Wednesday, 7 October 2020

मैं तुम्हें फिर मिलूँगी*

हे ईश्वर

लोग कहते तो थे कि समय पंख लगा के उड़ जाता है पर मैंने अपनी जिंदगी के 18 साल कब बिता दिए मुझे पता ही नहीं चला। मुझे घर भेजने के लिए शुक्रिया आपका। मुझे इसकी बेहद ज़रूरत थी। एक अरसे बाद मैं अपने शहर, अपनी गली और अपने घर में थी। घर – मैं भी तो किसी का घर ही बनना चाहती हूँ भगवान! पर आपने तो मुझे रास्ते में पड़ने वाला एक पेड़ बनाया है। कोई भी आने जाने वाला कुछ क्षण सुस्ताता है, कभी कभी कच्चे पक्के चूल्हे जला के कुछ रोटियाँ भी सेंक लेता है। पर ईश्वर इस पेड़ के नीचे किसी का घर नहीं है। मैं भी किसी का घर नहीं हूँ और अभी मेरा भी कोई घर नहीं।   

मैं घर होना चाहती थी किसी एक के लिए पर उसके लिए मुझे अपनी जड़ें काटनी पड़तीं, तना छांटना पड़ता और फिर हर आने वाले मौसम के साथ खिलने वाली कोंपलों और कलियों को अलविदा देनी पड़ती। ऐसा तो मैंने नहीं चाहा न! शायद इसलिए भगवान मेरी छाँव में आने वाला हर राहगीर जलावन की लकड़ी के लिए मेरी शाखाओं को बेदर्दी से काट देता है।

तुम बिल्कुल भी नहीं बदली ये सुनने में कितना सुकून है। जानते हैं? हाँ, नहीं बदली हूँ मैं। क्यूँ बदलूँगी? तुम्हारी दुनिया का काम है ये तो... पल पल पर रंग बदलना। मैं कोई दुनिया थोड़ी हूँ। भगवान एक बात तो बताइये... जिसे आपसे इतना प्यार था, जिसको आप पर इतनी श्रद्धा थी उसको आपने इस तरह दर्द क्यूँ दिया? बताइये न?

चलो कोई नहीं... आपका दिया हुआ सब कुछ मुझे आँख बंद करके स्वीकार है।

भगवान कहीं पढ़ा था *हमारी आत्मा का एक हिस्सा ही कहीं पैदा होता है, कोई रूप लेकर। आपको इस दुनिया में उसको ढूंढ कर उसको अपनाना होता है। वो मिल जाए तो जीवन सहज और सरल हो जाता है।* मैं और मेरी आत्मा का वो जुड़वां हिस्सा आपकी दुनिया में कुछ जादे ही भटक गए हैं। मैं इस कोने वो उस कोने। कैसा सफर है ये कि खत्म ही नहीं होता।

वो कहते हैं मैं तुम्हें कोई वादा नहीं दे सकता। वादा मैंने मांगा ही कब था ईश्वर... मैंने तो बस इतना कहा था कहीं भी चले जाओ तुम। कुछ भी कर लो। किसी के भी साथ रह लो। जिस भी दिन, जिस भी क्षण तुम मुझे पुकारोगे उसी दिन, उसी क्षण सब कुछ भूलकर *मैं तुम्हें फिर मिलूँगी।

 नोट:

1॰ ब्लॉग का शीर्षक अमृता प्रीतम जी द्वारा 2002 में रचित अंतिम कविता से साभार।

2॰ प्रतिलिपि पर उपलब्ध अनुराधा पचवारिया जी की रचना परम सत्य से साभार।  

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