Thursday 10 September 2020

अंत हो तुम और अंतिम भी

मेरे सबकुछ

बहुत कुछ कहा है आपने मुझे और आजकल मैं आपको जवाब भी दे दिया करती हूँ। अभी कुछ दिन पहले तो अपशब्द ही बोल दिए सीधे सीधे। बोलने के बाद मैं कितना रोई थी ये बात आपको नहीं पता होगी। शायद एहसास हो आपको पर न भी हो तो क्या? मैंने अपना प्रायश्चित तो चुन लिया है। शायद इसी से मेरे थके हुए क्लांत मन को वो शांति मिले जिसके लिए मैं भटक रही हूँ। तुम सोचते बहुत हो जान! कभी ये भी सोचा है कि मैं जो बार बार तुमसे मिलने की, बात करने की मिन्नतें किया करती थी आजकल सारा सारा दिन कैसे खामोशी से गुज़ार देती हूँ। वही मैं जो हर कीमत पर साथ रहना चाहती थी और इतनी कोशिश किया करती थी कैसे अचानक इतनी बड़ी दुनिया में तुम्हें छोड़ के रहने को राज़ी हो गई चुपचाप। वही मैं जिसे जब तुम ब्लॉक कर देते थे परेशान होकर तुम्हें ढेरों मैसेज किया करती थी, कैसे चुपचाप इंतज़ार करती हूँ कि तुम मुझे फिर से कब अनब्लॉक करोगे या फिर सोच कर बैठ जाती हूँ कि न भी करें तो क्या? जब मैं उनके दिल में नहीं तो फोन में रहकर क्या करूंगी?

बहुत कुछ होता है और हो रहा है। फिर इस सब के बीच में एक और बात हुई – क्या हम दोस्त बन कर नहीं रह सकते?’ सीधा जवाब दिया आपको नहीं! पर वो आपको पसंद नहीं आया। फिर आपने वो सारे कारण गिनने शुरू किए कि मैं क्यूँ सही नहीं हूँ और मुझमें कितनी कमियाँ हैं। अपनी कमियाँ मैं खुद भी जानती हूँ। जले हुए दिल से मैं किसी के लिए भला बोलूँ भी तो कैसे? आपको क्यूँ लगता है मेरे अंदर ऐसी कोई अच्छाई बाकी होगी? आप बार बार मेरे आत्मसम्मान पर सवाल उठा देते हैं जब भी कहते हैं तुम जैसी लड़की के साथ तो कोई नहीं रह सकता। मेरी ही मजबूरी है कि मुझे रहना पड़ता है नहीं! आपकी ऐसी कोई मजबूरी नहीं। जिस इंसान को मेरे प्यार, एकनिष्ठा, स्पष्टवादिता और निस्वार्थ भाव ने आकर्षित नहीं किया वो मेरे साथ किसी मजबूरी के चलते रहे ऐसा तो मैं सपने में भी नहीं सोच सकती।

मैं भी जानती हूँ मेरे साथ कोई नहीं रह सकता। सूरज को थोड़ी देर तक देखा जा सकता है पर उसकी आंच में हमेशा कोई नहीं रह सकता। आग हूँ मैं क्यूंकि आग होना पड़ता है। मेरी जैसी हर लड़की को...

आपने ये भी कहा कि आप मुझे अंतिम अवसर दे रहे। जिस इंसान को आपने प्रेम नहीं दिया, जिसकी परवाह नहीं की उसको आपकी ये भीख नहीं चाहिए। मैं अपना जीवन जी लूँगी जिसे भी बन पड़ेगा। अच्छा ही जियूँगी क्यूंकि एक पूरा समाज इंतज़ार कर रहा है मेरे पतन का, चारित्रिक दुर्बलता का और मैं अपने अच्छे आचरण से इसकी आँखों में मिर्च झोंकने का!!

वीरों से खाली धरती

हे ईश्वर

दुनिया में महामारी का आतंक तो आज देखने को मिल रहा है और हजारों जानें भी जा रही हैं। पर इन सब जानों में कुछ ऐसी जानें भी हैं जो अकारण ही स्वेच्छा से मौत को गले लगाए जा रही हैं। आज फिर एक जान गई है भगवान, आज फिर किसी के घर का दिया बुझ गया। क्यूँ? हँसते बोलते, मुस्कुराते रोज़ मिलने वाले लोग अचानक एक दिन ठंडे मुर्दा जिस्मों में बदल जाते हैं। पता चलता है तो विश्वास करना मुश्किल हो जाता है कि कोई ऐसा भी कर सकता था। बाहर चमक दमक में जीने वाले अंदर से कितने खोखले हो चुके हैं भगवान?

सहनशीलता, जुझारूपन और जिजीविषा कहीं देखने को ही नहीं मिलती अब। इन आत्महत्याओं के कारण खोजने जाओ तो बड़ी निराशा होती है भगवान। जान की कीमत इतनी कम है इस संसार में? कभी महंगा फोन तो कभी घंटों खेलने की आज़ादी। कभी कर्ज़ का बोझ तो कभी प्रेम में निराशा या धोखाधड़ी। इंसान का इंसान पर तो विश्वास कभी का हट चुका था। अब तो वो अपने आप पर भी भरोसा करना भूल चुका है। मुझे याद आता है कुछ समय पहले मैं भी कितनी शिद्दत से मर जाना चाहती थी। पर आपने उबार लिया। आज वो स्थितियाँ नहीं हैं उतनी विकट। सब ठीक हो रहा है और हो भी जाएगा। एक आखिरी चोट और जो मुझे सहनी है उसके लिए खुद को तैयार कर रही हूँ मैं। कहा था उन्होंने भी भगवान मिल रहे हैं तुम्हें तो इंसान की क्या ज़रूरत?

सही है। अपनी कमजोरी को छुपाने का बड़ा खूबसूरत बहाना खोजा उन्होंने। ईश्वर आप क्यूँ लेके आते हैं ऐसे इंसान मेरे जीवन में? अब अगर वो दूरी बना भी लें तो क्या मैं भूल सकती हूँ उनको? क्यूँ पुरुष को ऐसा लगता है कि कुछ दूर साथ चल कर अचानक हाथ छोड़ देना एक स्वस्थ परंपरा है या सहज क्रम है जीवन का। जीवन का सहज क्रम तो वो होता कि हम एक साथ हमारे सपने पूरे कर रहे होते। अपनी खुद की आँखों से देख रहे होते अपनी सारी मेहनत साकार होते। वो सब तो छोड़ो, आज तो वो मुझे किसी कोशिश का हिस्सा भी नहीं बनाना चाहते। वो इतने कब दूर हो गए मुझसे भगवान? मैं कबसे उनके लिए इतनी पराई हो गई? जानती हूँ अगर वो जानते तो यही कहते इसकी वजह भी तुम ही हो। हूँ तो!

जो इंसान हमेशा मेरा साथ नहीं दे सकता, दुनिया के सामने, समाज के सामने मुझे अपना नहीं सकता उसको अपने प्यार का एहसास दिला के क्या करूंगी मैं? सोचने दो उसे कि मैं उसे बुरा समझती हूँ, उसकी कदर और इज्ज़त नहीं करती। उस पर शक़ करती हूँ। क्यूँ बताऊँ मैं उसे कि आज भी उसी के लिए जीती हूँ मैं? क्यूँ बताऊँ कि उसको एक नज़र देखने के लिए कितना तरसा करती हूँ? कितनी निराशा होती है मुझे जब वो मुझे मिलने बुला कर नहीं आता और किसी और को भेज देता है। जिसे वो भेजता है वो भी हमारी आँखों का तारा ही है पर ये भी क्यूँ बताऊँ मैं उसे? नहीं बताना मुझे उसे कुछ भी। पर जब भी वो मुझे कुछ करने को कहता है मैं न नहीं करना चाहती, न कभी करूंगी जब तक मेरा बस चले। एक बार एक बात मेरे खिलाफ क्या चली गई, मुझे उसका एहसास दिलाने का कोई अवसर नहीं छोडते हैं वो।

आँखों पर औरों की राय का पर्दा चढ़ा के जब वो मुझसे सवाल जवाब करते  हैं, कुछ बोलने का मन नहीं करता। फिर भी आज उनको आड़े हाथों लिया मैंने। मैं नहीं दिखाऊँगी उनको सही रास्ता तो कौन दिखाएगा भगवान? इसलिए वो मेरी सुने न सुने, मैं हमेशा उसको सही बात ही बोलूँगी। दुनिया उस पर हंस सकती है पर उस दुनिया को उस पर हंसने का मौका दिया तो खुद को कभी नहीं माफ करूंगी।

वेश्या हो तुम, पुरुष!!

हे ईश्वर

इतनी सारी कहानियाँ पढ़ीं मैंने जिसमें सुंदर, सशक्त, आत्मनिर्भर स्त्री का प्यार के नाम पर शोषण किया जाता है। शारीरिक संबंध स्थापित करके उसे नीचा दिखाया जाता है। उसकी संपत्ति, उसके सोच विचार, स्वतन्त्रता का हनन करके उस पर एकाधिकार जताया जाता है। पर ये सब करने वाला पुरुष चाहे उसका पति हो, प्रेमी या दोस्त... कभी स्त्री स्वतन्त्रता, कभी यौन स्वच्छंदता के नाम पर, स्त्री का जी भर कर फायदा उठाते और फिर उसे तड़पने के लिए छोड़ देते। स्त्री जो घर में शोषित और कुंठित होती है तो घर से बाहर कदम निकालती है। अपनी जगह बनाती है, अपना संघर्ष करती है। उसी संघर्ष से जब उसे कुछ प्राप्त हो जाता है या होने की संभावना होती है तो आ जाते हो लार टपकाते हुए। उसके प्राप्य में हिस्सा बंटाने। जब तक सफल नहीं है तब तक स्त्री के लिए तुम्हारे मन में सम्मान नहीं। जब वो सफल हो जाती है तब भी उसकी सफलता को, उसकी मेहनत को अवसरवादिता बताते हो। उसके संघर्ष का मज़ाक उड़ाते हो। तुम ही थे न जिसने बचपन में मुझे समझाया था ‘ससुराल में लात जूते खाओगी तो औकात समझ आएगी’ वो जो आज भी मेरे आत्मसम्मान को घमंड कहता है।  कहा करते थे ‘ज़िंदगी भर तुम कॉल सेंटर में सड़ोगी, तुम उसी के लायक हो’ तुम ही थे न जिसने कहा त ‘तुम तो शायद टाटा नैनो के आगे कभी सोच भी नहीं पाओगी’ या क्या इतना ही आसान है सरकारी नौकरी पाना। जितना पैसा इन सब फॉर्म भरने में बरबाद करती हो उतना तुम्हें बचा के रखना चाहिए। मेरे उज्ज्वल भविष्य से तुम्हें 1000-500 की बचत ज़्यादा ज़रूरी लगती थी। शायद मन ही मन सोचते थे मुझमें ऐसा कोई इम्तेहान पास करने की क्षमता ही नहीं है। 

आज मेरी जिंदगी को देखते हो तो रश्क करते हो न! जवाब तुम्हें मैंने नहीं, मेरे परमात्मा ने दिया। जब मैंने शादी और अपने कैरियर में से कैरियर को चुन लिया। मुझे लात जूते मार कर मेरी औकात दिखाने के सभी विकल्प उसी दिन जड़ से खत्म हो गए थे। जब मेरी ऊंची नौकरी के चलते तुमने एक दिन झल्ला के कह दिया था तुम पैसों के पीछे भागने वाली और दिखावेबाज़ हो। जब मेरी चमकती हुई खूबसूरत सी होंडा सिटी देख कर तुमने अफवाहें उड़ाई थीं ‘इतनी महंगी गाड़ी उससे संभल नहीं रही है, बेचना चाहती है’ ऐसा भी नहीं है कि मैंने तुम्हे अपनी सफलता में हिस्सेदार नहीं बनाना चाहा। अपने घर परिवार का तो मेरा भी सपना था कभी। पर तुम मेरे जीवन में चोर दरवाज़े से ही आते आए हो सदा। सामने से आने का तुम्हारे अंदर साहस नहीं है। थाम सकते हो समाज और परिवार के सामने मेरा हाथ? नहीं न! लेकिन फिर भी मेरे जीवन पर तुम्हें एकाधिकार चाहिए। मैंने शादी से इंकार कर दिया तो तुम आज भी मेरे लिए इंतज़ार करने का दावा करते हो। पर सच्चाई ये है कि तुम्हारी असलियत वैसे ही समझ आ जाती है। याद है मैं कहा करती थी ‘I don’t want to be the man in the relationship. मर्द मर्द के जैसा ही अच्छा लगता है, औरत नहीं’ मेरे स्त्रियोचित गुण सहेज कर रखना चाहती थी  मैं हमेशा। पर तुमने और तुम्हारे समाज ने मुझे मर्दानी बना दिया है। इसलिए तुम्हारा दाम देकर तुम्हारा उपभोग करना भी मेरा अधिकार है जो मैंने अर्जित किया है। पर मैं उसमें भी हमेशा छली जाती हूँ। प्रेम, समर्पण और एकनिष्ठा से तुम्हारे साथ अपना सब कुछ बांटती हूँ। तेरा और मेरा का फर्क नहीं करती कभी। पर तुम... तुम ऐसे नहीं हो। तुम्हें अधिकार चाहिए पर कर्तव्य तुमसे निभाए नहीं जाते। जब भी कभी कहूँ तो कहते हो तुम तो आत्मनिर्भर हो तुम्हें सहारे की क्या ज़रूरत। दूसरी स्त्रियों के प्रति अतिशय सुरक्षा का तुम्हारा भाव मुझे बड़ा ही आकर्षक लगा था। सोचा था जब अजनबी स्त्रियों के लिए तुम्हारे मन में संरक्षण की इतनी उत्कट भावना है, तो अपनी प्रेयसी के लिए तुम कितना करोगे। पर नहीं! मेरे साथ आकर रात के अंधेरे में तुमने मुझे अकेला छोड़ दिया है। मैं वो स्त्री ही नहीं जो सुरक्षा मांग या चाह सकती है, क्या यही सोचते हो तुम मेरे बारे में? 

हर स्त्री चाहे जितनी भी सशक्त हो, प्रेम चाहती है, संरक्षण की इच्छा रखती है। लेकिन तुम वेश्या हो पुरुष, अवसरवादी और धूर्त! तुम दाम लेकर ही सुख दे सकते हो, वो भी क्षणिक। चिरस्थाई तो सिर्फ मेरा अकेलापन ही है। ये कटु सत्य कभी बदलने वाला नहीं।

Saturday 5 September 2020

गलती मेरी है II

हे ईश्वर

आज तक मैंने हमेशा आपसे उनकी शिकायतें की हैं। बताया है कि वो मुझे कितना सताते हैं। मुझे किस कदर परेशान करते हैं। कितनी बार उनके कारण मैंने आँसू बहाए हैं। कितनी बार किस किस तरह से उन्होंने सताया है मुझे। लेकिन आज मैं आपसे माफी मांगना चाहती हूँ। आज मैंने उनको अपशब्द कहे। मन करता है ऐसी ज़ुबान कट क्यूँ नहीं जाती जिससे मैंने उनके लिए ऐसे अपशब्द बोले। क्यूँ भगवान? आप तो जानते थे कि एक क्षण के आवेश के लिए मैं पूरे जीवन खुद को क्षमा नहीं कर सकूँगी। फिर ऐसा अवसर आपने मेरे जीवन में आने क्यूँ दिया?

मैं क्यूँ उनसे नहीं कह पाती कि मुझे बहुत कष्ट होता है। जब मेरी ही आँखों के सामने वो किसी और पर पर मुझसे जादे विश्वास करते हैं। जब उनकी आँखों में किसी और की उपलब्धियों के लिए प्रशंसा का भाव देखती हूँ। उनकी नज़र में मैंने कोई सफलता अर्जित ही नहीं की। आरक्षण की बैसाखी और मेरा प्रबल भाग्य... यही दो कारण हैं कि मैं आज यहाँ हूँ। कैसे एहसास दिलाऊँ उन्हें यहाँ तक पहुँचने में मेरे पाँव में किस कदर छाले पड़े हैं!

वो धीरे धीरे मुझसे दूर होते चले गए और मैं उनको रोक भी नहीं सकती। मैं हार मान चुकी थी भगवान। स्वीकार कर लिया था कि मैं उनके भविष्य का हिस्सा नहीं हूँ। फिर मुझे क्या हक़ था उन पर और उनके आचरण पर इस तरह सवाल उठाने का? बोलिए न? आपने क्यूँ मुझे ये सब कहने दिया? जवाब क्यूँ नहीं देते?

आपको बहुत अच्छे से पता था न कि मुझ पर चाहे जितनी उँगलियाँ उठा ले वो, मेरा सिर सिर्फ इसलिए ऊंचा रहता है क्यूंकि मैं उनको एकनिष्ठ प्यार करती हूँ। सच्चे मन से उनकी खुशी के लिए, सफलता के लिए आपके आगे हाथ जोड़ा करती हूँ। अब किस मुंह से उनके सामने जाऊँगी? कैसे आँखें मिलाऊँगी उनसे? जिंदगी भर के लिए उनके आगे मेरा सिर झुका दिया आपने।

वैसे ही पिछले साल जो कुछ भी हुआ उससे किसी तरह धीरे धीरे बाहर आने लगे थे हम। सोचने लगे थे कि शायद उनको कभी न कभी एहसास होगा कि गलती मेरी नहीं है। उनके ही नहीं मेरे साथ भी धोखा ही हुआ है। लेकिन नहीं! आपकी दुनिया में मेरे लिए रत्ती भर भी सुकून नहीं, न्याय नहीं।

वो मेरा हाथ इतनी बेदर्दी से छोड़ कर भी कितने सुकून से रहते हैं और मैं? एक गलती करके ऐसी मरी जा रही हूँ। कहाँ है वो चालाकी जिसका वो मुझ पर हमेशा आरोप लगाते रहते हैं?

मुझे तुम्हारी इस दुनिया में अब और नहीं रहना है भगवान। मैं इसके जैसी बिलकुल नहीं हूँ। अपनी छोटी से छोटी गलती के लिए मैंने अपने आप को न जाने कितनी बड़ी बड़ी सजाएँ दे रखी हैं। इस गलती के लिए कैसा प्रायश्चित करूँ? एक तो दिशा दिखा दो। प्लीज भगवान। आपके अलावा मेरे बारे में सोचने वाला कोई नहीं। मुझे और कोई नहीं समझ सकता। प्लीज़ भगवान, उससे कह दो मुझे माफ कर दे। एक बार फिर से मुझे प्यार से देखे, एक बार और मुझ पर विश्वास करे। एक बार तो महसूस करे मेरी तकलीफ़ें। सिर्फ एक बार भगवान! प्लीज़...   

किस किनारे.....?

  हे ईश्वर मेरे जीवन के एकांत में आपने आज अकेलापन भी घोल दिया। हमें बड़ा घमंड था अपने संयत और तटस्थ रहने का आपने वो तोड़ दिया। आजकल हम फिस...