Tuesday 22 January 2019

बंद दरवाजे और मेरी दस्तक


हे ईश्वर

मैं आज बुरी तरह हारा हुआ महसूस कर रही हूँ। आज पहली बार एहसास हो रहा है कि मुझे इन्सानों की ज़रा भी पहचान नहीं है। मैं हर बार धोखा खाती हूँ और फिर भी नहीं सीखती। एक बार ठोकर लग जाए तो इंसान अपने आप चलना सीख जाता है पर मैं तो न जाने कैसी हूँ?? कब सीखूंगी।

जिनके सुख आराम के लिए, खुशियों के लिए, सपनों के लिए मैं प्रयास करती रहती हूँ उनकी नज़रों में मैं उनके दुख का कारण हूँ। क्या इससे बड़ी चोट मुझे पहुँच सकती है कभी? सच कहूँ भगवान मैंने कोशिश बहुत की। पर किसी के दिल में जगह बनाना शायद इस जनम में मुझसे नहीं हो पाएगा। मैंने अपने जीवन में कभी ग्लानि या पछतावे को जगह नहीं दी। जो भी हुआ, जैसा भी हुआ अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर स्वीकार किया। गलती चाहे जिससे हुई मैं हमेशा उसे अपने सर लेके सामने वाले को निश्चिंत कर देती हूँ।

पर एक बात बताओ न माँ? ऐसे लोग क्या कभी आईना भी नहीं देखते? घर की ज़िम्मेदारी, परिवार का सुख-दुख, घरवालों की खुशी इन सब का रास्ता मेरे ही सपनों की लाश से होकर क्यूँ जाता है? अगर जाता है तो दूरी क्यूँ नहीं रखते। रखते भी हैं तो देर से। जब मैं अपना समय, श्रम और प्रेम सब न्योछावर कर चुकी होती हूँ। सब कुछ देके भी मेरे हिस्से आती है तो केवल नफरत।

बहुत से सवाल अपने मन में उठते हैं पर मैं किसी से भी पूछ नहीं सकती। मैं पहले ही सवाल-जवाब के सारे दरवाज़े बंद कर चुकी हूँ। मेरी ही मौन स्वीकृति ने उनके हर सही गलत व्यवहार को जायज़ बना दिया है। दोष दूँ भी तो किसे? और क्यूँ? क्या मेरे दोष देने या नफरत करने से कुछ बदल जाएगा? कल जो मुझे दुनिया घुमाने के दावे करते थे आज वही दुनिया के दूसरे छोर पर जाने को तैयार हो गए मेरे कारण। तो मैं भी एक वादा करती हूँ ईश्वर। मैं बिखरूंगी नहीं। उनके सामने तो बिलकुल भी नहीं। मेरी जिंदगी और मेरे दिल का हर दरवाजा उनके लिए खुला है। हाँ,हमेशा खुला रहेगा क्यूंकि इंसानियत और प्रेम का पाठ पढ़ने के बाद दुनियादारी सीखना शायद थोड़ा मुश्किल है। है न?

Wednesday 16 January 2019

आज या अतीत


हे ईश्वर

मुझे बहुत डर लग रहा है। वैसे तो ये डर मुझे न जाने कब से सता रहा था पर आज तो वो सच होता नज़र आ रहा है। मुझे एहसास ही नहीं था कि सुबह गुस्से में कहे हुए मेरे ये शब्द ऐसा रंग लाएँगे। अब समझ नहीं आ रहा है कि क्या करूँ? क्या सच में यही हमारे रिश्ते का अंतिम पड़ाव है? क्या आज हमारा रिश्ता उस मोड़ पर आ गया है जहां से हमारे रास्ते अलग अलग हैं। मैंने आपसे पूछा तो मेरी सारी आशंकाओं पर विराम लगा दिया। पर इस सब में एक बात मुझे साफ समझ आई। ये शख्स किसी भी मोड़ पर मेरा हाथ छुड़ा कर यूं चला जाएगा जैसे हम कभी साथ थे ही नहीं। खुद पर बेहद आश्चर्य हो रहा है आज। एक ऐसे इंसान के लिए मैं दुनिया से लड़ने चली हूँ जो पहले से ही मुझे हार चुका है। क्यूँ  भगवान?

इस दुनिया में बहुत से ऐसे लोग होते हैं जो परिवार के लिए कोई भी त्याग कर सकते हैं। उस त्याग में से एक हमारा रिश्ता भी है। कितनी जल्दी ये फैसला कर लिया था उसने कि सब अब खत्म है। आज जब मैंने उससे बात करने की कोशिश की, मैंने भी संयम खोकर कुछ कड़वी बातें कहीं। एक तरफ तो अपने आत्मसम्मान की रक्षा करके अच्छा लग रहा है, दूसरी तरफ उस शख्स को खो देने का डर सता रहा है। क्या करूँ? स्त्री सदियों से ऐसे ही दोराहों पर खड़ी रही है। अपना सम्मान या प्यार? प्यार खो दूँ और सम्मान बचा रहे तो भी हार तो मेरी ही है।

सच है ईश्वर। अपने सम्मान के लिए मैंने सब कुछ तो खोया है, छोड़ दिया है। परिवार से दूर यहाँ अपनी जगह बनाने क्या इसीलिए आई थी? जिनके लिए सब कुछ ऐसे दे दिया जैसे वो कोई तिनका हो, उनकी नज़र में क्या इतनी ही कदर है मेरी और मेरे प्यार की? Expendable होना किसे अच्छा लगता है? लेकिन उसी शख्स से कोई भी दूरी बनाने का प्रयास मेरा कलेजा चीर देता है। इसलिए तो हम साथ हैं। आज गुस्से में जब मुझसे वो हमारे बीच के फर्क की बात करता है, मन करता है उसे ज़ोर से झिंझोड़ दूँ। पूछूं चीख चीख कर कि ये फर्क उस वक़्त क्यू तुम्हें नज़र नहीं आया जब मेरे साथ नज़दीकियाँ बढ़ाईं थीं। सिर्फ इस एक बात पर कि मैं उनके अपमानजनक रवैये को झेल नहीं सकी, उन्होंने मुझसे किनारा करने की ठान ली। खैर शायद यही आपकी इच्छा होगी।

Monday 14 January 2019

इसी लायक हो...

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अध्याय ६७

...हे ईश्वर

कैसे और किन शब्दों में आपका धन्यवाद करूँ? आपने मुझे अपने पास बुलाकर नया जीवन सा दे दिया। पर ईश्वर, मैं न जाने कितनी सोच में पड़ती जा रही हूँ। कुछ समझ में नहीं आता कि उसका असली चेहरा है क्या? पिछले कई दिनों से मन बहुत दुविधा में है। मैं क्या करूँ ईश्वर? आपसे जवाब मांगने के लिए ही तो आई थी। आपने हाँ कह दिया। पर अब जब उसकी तरफ देखती हूँ वो चेहरा न जाने क्यूँ अजनबी सा लगता है। या तो फिर उस चेहरे में बदल जाता है जिसे मैं बहुत पीछे छोड़ आई हूँ। वो एक चेहरा या कई चेहरे जिनकी उँगलियाँ हमेशा मेरी तरफ उठी रहती हैं। मेरी कलम हिचक रही है वो सब कुछ कहने में। न जाने मेरे जैसे कितने लोग होंगे जो अपने रिश्तों को अपने आत्मसम्मान से ज़्यादा महत्व देते होंगे। न जाने कितने होंगे जो सोचते होंगे कि अब वो अपने लिए जिएंगे, खुद से प्यार करेंगे। पर हमेशा घुटने टेक देते होंगे जब प्यार या परिवार की बेरुखी से सामना होता होगा। 

मैंने भी तो टेके हैं हर बार। जब भी वो कहते हैं ढूंढ लो कोई और जो तुम्हारी बराबरी का हो। मेरी हैसियत उतनी नहीं... मुझे बहुत दुख होता है। प्यार करने की ऐसी सज़ा किसको मिलती होगी भगवान? यदि उनके मन में यही सब कुछ था तो क्यूँ हाथ बढ़ा दिया ऐसी लड़की की तरफ? क्या नहीं जानते थे वो मेरे बारे में? फिर भी वो मेरे साथ आए क्यूँ? ये सारे लोग जिन्हें घर की इज्ज़त प्यारी होती है क्यूँ किसी और की इज्ज़त का ख्याल नहीं करते? ये लोग जिन पर जिम्मेदारियों का बोझ होता है उन्हें एक रिश्ते में गैर ज़िम्मेदारी से पेश आने पर कोई दुख क्यूँ नहीं होता? जब किसी के लिए उनके दिल और जिंदगी में जगह नहीं होती तो क्यूँ किसी को आने देते हैं अपने साथ?

मैं किसी के घर की इज़्ज़त नहीं भगवान। हो भी कैसे सकती हूँ? जिस लड़की को वेश्या कहते उसके परिवार की ज़ुबान नहीं लड़खड़ाती वो किस मुंह से समाज में अपने लिए स्थान मांगे? लाज आने लगी है मुझे अब। फिर भी बेशर्मी से सर उठा कर चलती हूँ। लोगों की और अपने परिवार की आँखों में आँखें डाल के बात करती हूँ। अपने लिए हर सुख सुविधा हासिल करती हूँ और खुद को आराम देने में ज़रा भी नहीं हिचकती। थोड़ा ही सही भगवान... आत्मविश्वास तो है। प्यार मैं सब से अब भी उतना ही करती हूँ पर अपना अपमान करने का अधिकार अब किसी को नहीं दूँगी। कभी नहीं।



किस किनारे.....?

  हे ईश्वर मेरे जीवन के एकांत में आपने आज अकेलापन भी घोल दिया। हमें बड़ा घमंड था अपने संयत और तटस्थ रहने का आपने वो तोड़ दिया। आजकल हम फिस...