Thursday 28 June 2018

किसके सपने..?





अध्याय ४१ 
हे ईश्वर
ये क्या हो गया है बुद्धु बक्से को? जो टेलीविज़न एक समय पर सामाजिक क्रांति का वाहक हुआ करता था वो आज बेसिरपैर की भावनाओं और कहानियों का एक भौंडा नाच बनके रह गया है. कभी नागिन, कभी भूत प्रेत और टीवी का सबसे लाडला दुलारा थीम – साजिशें. कैसी कैसी साजिशें? कभी कभी हफ़्तों तक मैं टीवी की शक्ल ही नहीं देखती और अच्छा ही करती हूँ. कुछ खास तो नहीं.. मैं कभी नहीं समझ पाई कि मैं औरों से इतनी अलग क्यूँ हूँ? मेरा टाइप क्या है और कहाँ पाए जाते हैं मेरे जैसे प्राणी? मैं आज तक समझ नहीं पाई कि मैं अच्छी हूँ या बुरी हूँ? कभी अपनी अच्छी अच्छी बातों से लोगों को इतना प्रेरित कर देती हूँ कि आसमान छू लें और कभी अपनी कड़वाहट उड़ेल देती हूँ. क्या हो गया है मुझे? मेरे जैसी कहानी भी होती है क्या भगवान्? आज की दुनिया में रहकर भी इतनी सच्चाई, ऐसी ईमानदारी किसलिए? बताओ न भगवान्?

और आपके ये धारावाहिक! एक छोटी सी बच्ची दूसरी छोटी बच्ची को आगे बढ़ते नहीं देख सकती. इतना ही नहीं वो उसकी सफलता को अपना बताने से भी नहीं चूकती. एक माँ जो अपनी बेटी को सिखाती है कि झूठ बोलना अपने सपनों को पूरा करने का सही तरीका है. या फिर ये कि कोई किसी से बदला लेने के लिए उसकी तरफ से गलत सन्देश लोगों को भेज दे. अपनी गलती न मानने के लिए लोग किसी भी हद तक चले जाते हैं और इसे गलत भी नहीं मानते. मैं समझ नहीं पाती कि हमें दुःख में इतना सुकून कैसे मिलता है? एक सशक्त कहानी लिखने के लिए बेहूदा प्रदर्शन की कोई ज़रूरत नहीं. क्या हो गया है तुम्हारी दुनिया को? ये कैसा मनोरंजन है ईश्वर? 

वैसे सबसे बड़ा मनोरंजन तो वैसे हमारी जिंदगियां हैं. आपकी ये पहेलियाँ मुझे समझ नहीं आतीं. मैं आप पर पूरा विश्वास करती हूँ पर आपके निर्णय समझ नहीं पा रही. क्या करना चाहते हैं भगवान्? कहाँ लेके जा रहे हैं मुझे? बताइए तो? आप जानते तो हैं अपने बच्चों को? कहाँ जा रहे हैं पता होने पर भी हम सौ बार सवाल करते हैं. तो मैं तो ये भी नहीं जानती कि आप मुझे ले कहाँ जा रहे हैं? और कितनी देर लगेगी? कैसे कहूँ और क्या कहूँ? बताइए? अच्छा ठीक है, एक दुआ ही कर लेती हूँ. आप मुझे इतनी शक्ति दीजिये कि हर बात का जवाब एक मीठी सी मुस्कान हो. कोई कुछ भी करे, कितनी भी कोशिश करे पर मेरी इस मुस्कान को झुठला न सके.

Tuesday 26 June 2018

काहे को ब्याहे बिदेस...?


अध्याय ४० 

पिताश्री का शुभ आगमन आज हुआ और हमने राहत की साँस ली. अब कम से कम खाना हिसाब से बनेगा और घर के ख़राब पड़े बल्ब बदले जायेंगे. घर की बंद पड़ी खिड़कियाँ खोल कर साफ़ हवा और धूप अन्दर आएगी और शाम की सैर अब ज़रा लम्बी होगी. कुछ दिन बड़े सुकून से कटेंगे, शाम की चाय का अलग स्वाद होगा. खाने के मेनू में व्यापक स्तर के बदलाव होंगे और रोज़ रोज़ आलू की भुजिया से मुक्ति मिलेगी. कितना कुछ करना होता है और सब याद आता है जब घर से कोई आ जाता है. अचानक आप फ्रिज पर जमी धूल और घर में लगे जालों को साफ़ करने लगते हैं. प्लेट में खाना निकाल कर बिस्तर पर खाने की जगह खाली पड़ी मेज़ सँवारने लगते हैं. अचानक ही समय पर घर जाने की जल्दी होती है और सुबह दफ्तर जाने में आलस.

सच है कि बेटियां पिता के बड़े नज़दीक हुआ करती हैं. पर बड़े होते मैं तो दोनों के ही पास आ गई हूँ. मुझे बचपन में बहुत बुरा लगता था जब पापा मुझे मेरे दोस्तों की तरह घर से वक़्त बेवक्त बाहर नहीं जाने देते थे. पर उसी वजह से शायद आज मैं समय से घर आना अपने आप सीख गई. बुरा लगता था जब फ़ोन पर बिना कारण लम्बी लम्बी बातें नहीं करने देते थे पर उसी सख्ती ने मेरा कितना समय बर्बाद होने से बचा लिया. बुरा लगता था जब ज्यादा दोस्त नहीं बनाने देते थे पर उसी आदत ने किताबों को मेरा दोस्त बना दिया. बुरा लगता था जब मेरी ज़रूरतें तो पूरी होती थीं पर जिदों के लिए थोड़ी मुश्किल हुआ करती थी. उसी बात ने शायद आज मुझे जिद और ज़रूरत दोनों पूरी करने की काबिलियत दे दी.

जब मैं छोटी थी तब बहुत कुछ बुरा लगता था पर आज वही सब मुझे अच्छा लगने लगा है. तब अपना घर भी बुरा ही लगता था. वही रंग, वही चारदीवारें सब में बंद बंद सा लगा करता था. आज चारों तरफ से हवादार इस घर में भी मन बार बार अपने घर ही लौट जाना चाहता है. उसी बचपन के बिस्तर पर टेबल लैंप की रोशनी में खुराफातें करना चाहता है. हम घर छोड़ आये हैं पर घर ने अभी भी हमारा हाथ थाम रखा है. कभी सोचा भी नहीं था एक रात भी घर से बाहर न बिताने वाली मैं, दिन क्या महीनों तक घर की शक्ल भी नहीं देख सकूंगी.

पर खैर इसी तरह से एक दिन मैं अपना घर भी बना लूंगी एक दिन. जिसमें सोकर मुझे वही बचपन वाला सुकून महसूस होगा. उसी दिन का इंतज़ार है अब मुझे. वो दिन ला दो न, मेरे ईश्वर!

Friday 22 June 2018

तुम हो न


अध्याय ३९ 

मेरे ईश्वर

कैसे पता चल जाता है आपको कि मुझे क्या चाहिए? अचानक ही जब उनकी आवाज़ सुनी, ऐसा लगा जैसे अभी तक सांस भी नहीं ले रही थी. जब वो नहीं होते तो मैं भी पता नहीं कहाँ खो जाती हूँ. बात करती हूँ, हंसती बोलती हूँ, काम भी करती हूँ. पर मन में कहीं न कहीं कुछ चुभता रहता है. ऐसे जैसे पता नहीं कितनी धूप में निकल आई हूँ. या ऐसे जैसे एकदम से अकेली हूँ. कोई है ही नहीं जिसे मैं जानती हूँ. कोई है ही नहीं जो मुझे जानता है. कुछ अच्छा भी नहीं लगता और कुछ बुरा भी नहीं लगता. समझ ही नहीं आता कि सामने वाला क्या कह रहा है, क्यूँ कह रहा है? बस ऐसा लगता है जब तक वो न रहे तब तक मैं भी न रहूँ. नज़र ही न आऊँ किसी को. किसी से भी बात न करनी पड़े.
 
बात तो आपके बारे में करने चली थी. अभी टीवी देखते देखते कुछ नज़र आ गया और मन भटक गया. ‘बहन जी टाइप’ – ये वो जुमला है जो सड़क चलती किसी भी लड़की को मैरिज मटेरियल बना देता है. वो बहन जी टाइप ही तो होती हैं जो घुटने के नीचे तक दुपट्टा लटका कर सर झुका कर चलती हैं. धीरे धीरे मीठी आवाज़ में बोलती हैं. चुप चाप और सहमी सहमी रहती हैं. इन्हें सब अच्छी लड़की कहते हैं. प्यार व्यार का तो नाम तक नहीं जानती हैं. ऐसी लड़कियां किसी भी लड़के के लिए एक चुनौती सी तो होती हैं. उन्हें बहला फुसला कर शादी के सपने दिखा कर उनका फायदा उठाना कितना आसान होता है. इन्हें मन कर दो तो रो पीट कर सब्र कर लेती हैं. बड़ी प्यारी होती हैं, सर झुका कर किसी और से चुप चाप शादी भी कर लेती हैं. ‘बहन जी’ टाइप लड़कियां...

क्यूँ करते हैं लड़के ऐसा? जब कोई सीधे रास्ते चलता रहता है तो उसे क्यूँ गलत रास्ते जाने पर मजबूर करते हैं. फिर साथ भी नहीं देते. अगर प्यार करते हो तो शादी कर लो. इतना सा ही तो चाहती हैं लड़कियां. शादी नहीं निभा सकते तो क्यूँ प्यार के रस्ते पर कदम बढ़ा देते हैं. इनके तो परिवार इन्हें ७ खून भी माफ़ कर देते हैं, हमारा एक रिश्ता माफ़ करना इनकी जान पर आता है. बोलो न भगवान्, क्यूँ है आपकी दुनिया ऐसी?

वो ऐसे नहीं हैं. ये बात वो कई बार कह चुके. पर गलती मेरी भी नहीं है. क्या है भगवान्? क्यूँ है?  

Tuesday 19 June 2018

कासे कहूँ?


अध्याय ३८

हे ईश्वर

धोखा खूबसूरत होता है और सत्यम कभी सुन्दरम नहीं होता.आज जब दोनों ही आँखों के सामने आए तो आँखों पर विश्वास नहीं हुआ. मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि जिन लोगों के बारे में मैंने इतनी नेक राय बना रखी है वो मेरी पीठ में छुरा घोंपने से पहले एक बार भी नहीं सोचेंगे. वैसे मेरे बारे में आपके अलावा सोचता ही कौन है? शुक्रिया भगवान, वक़्त पर मेरी आँखें खोलने के लिए. भगवान जैसे जैसे दिन बीत रहे हैं, अपने आपको संभालने की मेरी हर कोशिश नाकाम होती जा रही है. मदद के लिए जहाँ भी हाथ बढ़ा रही हूँ, निराशा ही हाथ आ रही है. ईश्वर, मैंने इतनी किताबें पढ़ी हैं, सबमें लिखा होता है ‘अच्छा सोचो.’ कुछ दिन बड़े जोर शोर से अच्छा सोचो अभियान चलता है. डायरी में अच्छी अच्छी बातें लिखी जाती हैं, सूचियाँ बनाई जाती हैं. फिर कुछ ऐसा हो जाता है जो एक ही पल में मेरी सारी मेहनत पर पानी फेर देता है. ये क्या है, भगवान? ऐसे जैसे छोटे से पिल्ले के साथ खेलते हुए अचानक वो आपको दांत गड़ा दे. अपनी असावधानी पर बहुत क्रोध आता है, पिल्ले के दुस्साहस पर आश्चर्य भी होता है. अचानक से उसको झटकने को हाथ भी उठ जाता है.

ऐसा ही कुछ मेरा गुस्सा है. एक तो मैं हर वक़्त दर्द में रहती हूँ आजकल. ऐसे में न जाने कितने लोग मेरी दुखती रग पर जाने अनजाने हाथ रख़ देते हैं. एकदम से उनको झटकना मेरी आदत नहीं है भगवान, ज़रूरत है. मुझसे टीस बर्दाश्त नहीं होती. क्या करूँ? सामने वाले तो दांत गड़ा देते हैं. आत्मरक्षा में मैं उन पर हाथ उठा देती हूँ. कैसे रोकूँ खुद को?

लोग कहते हैं तुम सोचती हो सारी दुनिया तुम्हारे खिलाफ है, ऐसा है नहीं. न होगा भगवान. पर ‘सावधानी हटी दुर्घटना घटी’ इतनी बार हो चुका है कि अब ऐसा सोचने के अलावा मेरे पास बचने का कोई रास्ता नहीं है. शक्की कहलाना मंजूर है मुझे पर बेवकूफ नहीं.

क्या मेरे प्रति कोई वफादार नहीं है? क्या मेरी मेहनत का कोई मोल नहीं है? क्या चापलूसी ही सफलता का एकमात्र रास्ता है? क्या मैं भी कड़वे सच की जगह चाशनी में लिपटे झूठ बोलने लगूं? क्या होती है डिप्लोमेसी? इसकी कहीं कोई कक्षा भी चलती है क्या? बहुत सारे सवाल हैं मेरे पास और कोई संतोषजनक उत्तर नहीं है.

सबकी राजनैतिक और सामाजिक मुद्दों पर राय है और वो खुलकर उसे प्रकट करते हैं. सिर्फ मेरे लिए ये विकल्प बंद है. क्यूँ भगवान? कहाँ है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता? सेंस ऑफ़ ह्यूमर के नाम पर अश्लील मजाक बर्दाश्त नहीं कर पा रही, इसलिए लोग कहते हैं कि मैं अपने ‘औरत कार्ड’ का प्रयोग कर रही हूँ. लोगों से कहीं ज्यादा योग्य होने के बावजूद मुझे और मेरे काम को पहचान नहीं मिल रही तो लोग कहते हैं मैं अपने कोटे का फायदा उठा रही. बहुत बोलते हैं तुम्हारे लोग भगवान और मेरी जुबान बंद रखने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं.

हाँ, मेरा कोई सामाजिक जीवन नहीं है और इसका मुझे कोई अफ़सोस भी नहीं है. मैंने सब कुछ खो कर अपने आप को पाया है और मैं इस प्राप्ति की कद्र करती हूँ. शुक्रिया भगवान.

Sunday 17 June 2018

तुम भी...

अध्याय 36

हे ईश्वर





शादी करनी है या...


अध्याय ३७ 

हे ईश्वर

एक फिल्म देख रही थी पर उसमें और हकीक़त में ज्यादा फर्क नहीं था. शादी के बाद नौकरी करनी है या नहीं...ये एक बड़ा सवाल होता है. और इस सवाल का कोई सीधा जवाब नहीं है. कोई लड़की को सीधे सीधे नहीं बताता कि शादी के बाद उसे नौकरी करने देंगे या नहीं. जब लड़की ने साफ़ साफ़ पूछती है तब गोल मोल जवाब देके टाल दिया जाता है. बहुत से घर हैं जहाँ काम काजी बेटियां हैं पर काम काजी बहुएं लाने में ऐसे लोग भी संकोच करते हैं. कभी कभी तो लड़का जो वादे करता है, घरवालों की आड़ लेकर उनसे बड़ी आसानी से पलट जाता है. प्रेमिका हो तो कामकाजी..पर पत्नी घरेलू ही चाहिए. ऐसे बगला भगतों की कमी नहीं है तुम्हारी दुनिया में ईश्वर. दोगले हैं तुम्हारे लोग, खोखली है समाज की सारी रवायतें जो सिर्फ लड़कियों को भारी पड़ती हैं. दामाद सात समंदर पार भी जाए तो लड़की का भविष्य उज्जवल नज़र आता है.चाहे वहां जाने के बाद ग्रीन कार्ड के लालच में वो आपकी लड़की को गच्चा क्यूँ न दे दे. लेकिन अगर लड़की अपने उज्जवल भविष्य के लिए एक सख्त कदम उठा ले तो गाली गलौज की बौछार उसे झेलनी पड़ती है.

यहाँ सबको अपनी बेईज्ज़ती अब नज़र आई जब लड़की ने बारात लौटा दी और उन्हें दहेज़ की रकम लौटानी पड़ी. कहते हैं जिस गली जाना नहीं उसका रास्ता नहीं पूछते. तो फिर लोग एक ऐसी लड़की को जिसे शादी के बाद नौकरी करने की इच्छा है..क्यूँ हाँ कर देते हैं? कितना कुछ दिखाया इन लोगों ने पिक्चर में. लड़के की माँ बीमार पड़ जाती है, बहन को छींटा कशी झेलनी पड़ती है, इन लोगों की बदनामी होती है. पर क्या होता अगर वो भागने के बजाय सीधे इन लोगों से बात करती. हम बताते हैं...बाद में बात करते हैं कह कर शादी हो जाने देते ये लोग. फिर उसके बाद रीत रिवाज़, समाज की दुहाई देकर उसे जाने से मना कर देते. घरवालों से कहती तो वो यही समझाते कि अब तो उस घर से अर्थी ही निकलेगी.किस तलवार की धार पर चलती हैं लड़कियां.

‘अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे’ वाले अंदाज़ में लड़की से वो मिलता है उसका बॉस बनकर. बहुत कम किया यार तुमने. यहाँ तो लोग मुंह पर तेज़ाब फेंकने या उठवा कर बलात्कार करने जैसा सस्ता, सुन्दर और टिकाऊ (!!) तरीका अपनाते हैं. तुमने तो इतनी मेहनत की और उससे ऊँची कुर्सी पाई. सचमुच एक सफल आदमी के पीछे एक औरत का ही हाथ होता है. वैसे जिस किस्म की बेईज्ज़ती उसने की, उसे मानसिक बलात्कार ही कहेंगे.

अच्छा ही हुआ कि मैंने शादी नहीं की. कितनी आसानी से लोग हमारी मेहनत को बर्बाद कर देते हैं और एक पल रुक कर सोचते ही नहीं. ऐसा ही कुछ लोग करने की कोशिश कर रहे हैं. न वो सफल हुए थे, न ये सफल होंगे. वादा करती हूँ ईश्वर.

बहुत आसान है

अध्याय ३६

हे ईश्वर

आज उन्होंने कहा, “जब किसी चीज़ के लिए दिल से कोशिश की जाती है तभी आप सफल होते हैं.” फिर क्यूँ मैं लाख चाह कर भी उनकी मदद नहीं कर पा रही. क्या मैंने दिल से कोशिश नहीं की? मेरे प्रयास में क्या कमी थी, बोलो न? क्या आप नहीं चाहते कि मैं वो सुकून महसूस करूँ जो मुझे उनकी मदद करके मिलता है. प्लीज भगवान्, मेरी मदद करो. मुझे उनकी मदद करने दो. पर कभी कभी लगता है क्या इतना ही है हमारा रिश्ता? अगर मैं कोई चीज़ न कर सकूँ तो क्या इसका मतलब मैंने कोशिश नहीं की? इस्तेमाल होने के लिए ही बनाया है क्या आपने मुझे? और काम में न आ सकूँ तो फ़ेंक दिया जाए किसी कोने में?

बोलो भगवान्? क्यूँ इतना आसान है ये कहना कि मेरे समर्पण, मेरे प्यार, मेरी वफादारी में कोई कमी है! याद आता है कि किस तरह हमेशा उनकी इच्छाएं मेरे लिए मेरी बड़ी से बड़ी ज़रूरत से ज्यादा अहम हो जाती हैं. हमेशा कितनी कोशिश करती हूँ कि उनकी ज़रूरतें ही नहीं ख्वाहिशें भी पूरी कर सकूँ. हमेशा मैंने इतना ही चाहा है कि उनके चेहरे पर मुस्कान रहे. उस एक मुस्कान के लिए मैंने क्या कुछ किया. और अब वो कहते हैं कि तुमने कोशिश की ही नहीं.

कभी कभी दिल करता है छोड़ दूँ इतना प्रयास करना. जिस तरह वो कभी मेरी परवाह नहीं करते, मैं भी भूल जाऊं कि मैंने उन्हें कोई भरोसा दिलाया था. कितना कितना प्रयास करती हूँ. जब तक सफल होता है तब तक सब ठीक रहता है पर जैसे ही छोटी सी चूक हो जाए, सब बर्बाद हो जाता है. किस तलवार की धार पर चलती हैं औरतें भी. बरसों का किया धरा एक पल में अकारथ हो जाता है. ‘तुम करती ही क्या हो? तुमने किया ही क्या है?’ कितनी आसानी से हमारी दबी हुई हर इच्छा, किये हुए हर बलिदान को नकार देते हैं लोग. क्यूँ करते हैं वो ऐसा? कामकाजी हो या घरेलू...वैसे ये सिर्फ नाम के विशेषण हैं. मेरे लिए तो हर लड़की कामकाजी है.

तो फिर ठीक है. भले ही मेरा किया धरा अकारथ करके आज आप कह दें कि मैं करती ही क्या हूँ? मेरे ईश्वर को मालूम है मैंने क्या और कितना किया है. इसलिए भले ही लोग ऊँगली उठाते रहे, भले ही आप मुझ पर ऊँगली उठा दें...मैं जानती हूँ और मेरा ईश्वर जानता है कि मैंने कुछ नहीं किया कहना और मेरा इस बात को मान लेना इतना आसान नहीं है.


  

Tuesday 12 June 2018

अब और क्या


अध्याय ३५ 
हे ईश्वर

तुम्हारी दुनिया के लोग क्यूँ इतनी नफरत करते हैं लड़कियों से? जहाँ देखो वहां गाली गलौज और तानेकशी की बौछार ही नज़र आती है. आज मैंने अपना सोशल मीडिया हैंडल खोला तो एक मशहूर अभिनेत्री के नए रिश्ते पर छींटाकशी का दौर चल रहा था. लोगों की सोच पर तरस भी आता है और गुस्सा भी. बड़ी आसानी से किसी भी स्त्री पर कीचड़ उछाल देते हैं. उम्र का अंतर आज कैसे नज़र आ गया उन लोगों को जिनकी आँखों के सामने इतने सारे बेमेल विवाह होते रहते हैं. जहाँ मर्द जितने चाहे रिश्ते बना लेता है वहां एक लड़की को कैसे कह दिया कि वो एक की कभी होकर नहीं रह सकती. जनम जनम का रिश्ता कहलाने वाली शादी भी तोड़ने में लोग एक बार भी नहीं सोचते. फिर क्यूँ सच्चरित्र होना सिर्फ हमारा धर्म है.

मैंने आपसे पूछा था न भगवान्..वो क्यूँ मुझे सबके सामने स्वीकारते नहीं. फिर समझ आता है कि अगर सबके सामने हम साथ आये तो लोग उन पर नहीं मुझ पर कीचड़ उछालेंगे. वैसे ही कहा करते हैं बहुत कुछ. मैं लोगों से नहीं डरती. कहने दो उनको जो वो चाहें. तुम तो सच जानते हो न. उनकी मदद करना भगवान्. लोग चाहे जो कहें उनको सही रास्ता दिखाते रहना. करोगे न भगवान्?

हमारी शादी पर फिर वही समाज, परिवार और जात बिरादरी की तलवार लटक रही है. सब कहते हैं तुम क्या घर तोड़ देना चाहती हो? नहीं भगवान्, क्यूँ चाहूंगी ऐसा? मैं तो एक घर को उसी खुले दिल से अपनाना चाहती हूँ जिस दिल से मैंने उन्हें और उनके तौर तरीकों को अपना लिया था. एक बार गुस्से में उन्होंने कहा था “तुम न तो अपना घर, न नौकरी, न आदतें और तौर तरीके छोड़ सकती हो. तुम सिर्फ अपने लिए जीती हो.” याद आ गया था मुझे कि कैसे उनके घर के हिसाब से खुद को ढालना चाहा था. कैसे उनकी सारी दिक्कतें खुद पर ओढ़ ली थीं और उनको हर तरह से आराम पहुँचाने की कोशिश की थी.

मेरी जिंदगी में आए किसी भी इन्सान ने कभी मेरे लिए कुछ करने का सोचा ही नहीं. रिश्ते में सुरक्षा मेरा हक था पर पता नहीं कब मेरा फ़र्ज़ बन गया. लोगों का ख्याल राख राख के थक गयी हूँ अब. आराम करना चाहती हूँ. पहली बार लग रहा है उसके साथ हूँ तो सुरक्षित हूँ. मुझे सुरक्षित रहने दो न भगवान. प्लीज!

Tuesday 5 June 2018

बाकी है अभी


अध्याय ३४ 
हे ईश्वर

आज मैं आपसे बहुत नाराज़ हूँ. बात भी करने की इच्छा नहीं होती. कोई दुआ मांगने का मन नहीं करता. विश्वास डगमगाने लगा है अब मेरा. मन करता है आपसे खूब झगड़ा करूँ, आपको चढ़ाये हुए सारे फूल तोड़ कर बिखेर दूँ, आपके पास पड़ा रुपया पैसा छीन कर बाँट दूँ ज़रुरतमंदों में. आपके मंदिर के रास्ते रोक दूँ कि आपको एक दिन अकेले रहना पड़े. सोचा था कि आपसे दुआ मांगूंगी और वो कुवूल हो जाएगी. पूरी हो जाएगी मेरी कहानी. पर आज जितनी निराशा और जितना दुःख मुझे हो रहा है उससे भी कहीं ज्यादा अफ़सोस हो रहा है. हे ईश्वर, आप हो न?

अच्छा अगर हो तो बताओ बिहार में उस बेबस मासूम लड़की की चीखें क्यूँ नहीं सुनीं आपने? अब कहाँ गये भैया पुकारने पर बलात्कार रोकने का दावा करने वाले? वीडियो वाली लड़की तो भैया भैया ही चीख रही थी. उन लोगों को तरस तो नहीं, उलटे हंसी आ रही थी. उनकी हंसी इतनी खौफनाक थी कि...वैसे भी मैं तो लड़की हूँ. हर बात बढ़ा चढ़ा कर कहती हूँ. कल अनचाहा स्पर्श परेशान कर रहा था आज उस लड़की के साथ हुई बदसलूकी. हे ईश्वर अपने बन्दों को सद्बुद्धि दे दो. बंद कर दो ये वहशीपना. पहले तो एकांत में ही हुआ करता था. अब तो ऐसी हरकतों को लोग बार बार देख सकते हैं.उसके अपनों की नज़र से भी तो गुजरा होगा ये सब कुछ.

इन लोगों के साथ जो हुआ वो तो इतना भयानक था. पर इसी भयानकता का एक छोटा सा हिस्सा मेरी जिंदगी में भी है. कह नहीं सकती, किसी को बता भी नहीं सकती. ईश्वर आपसे तो कुछ छुपा ही नहीं. अनचाहे स्पर्श को तो इंकार करना हम जानते हैं, पर जिस स्पर्श को किसी की मौन स्वीकृति प्राप्त हो उसे क्या करें? कैसे कहें कि वो अनचाहा था? कैसे कहें कि उसके लिए हाँ नहीं की थी? कैसे समझाएं कि क्यूँ अब ऐसा लगता है कि हमें ऐसा नहीं करना चाहिए था? कटघरे में खड़े हैं और कोई सुनवाई नहीं हो रही है अब.

समाज जब किसी पर चरित्रहीन का ठप्पा लगा देता है तो किसी की नहीं सुनता. अब तो और नहीं सुनेगा. एक नहीं दो नहीं तीसरी बार मैंने सपने देखने का साहस किया और किसी ने मेरे सारे सपने तोड़ दिए. पता नहीं मैं क्या सोच रही थी! क्यूँ है मुझे खुद पर इतना विश्वास. जब कोई रिश्ता टूटता है न भगवान्, तो इन्सान भी उसी के साथ टूट जाता है. कुछ दिन तक तो सांस भी ठीक से ली नहीं जाती. दिल डूबने लगा है अब तो. इस बार तो मुझे सँभालने वाला भी कोई नहीं होगा. मेरे अपनों के चेहरों पर ‘मैंने तो पहले ही कहा था’ की परछाई तैर रही है! कुछ कहने से भी डर लगता है.

पता नहीं क्यूँ भगवान्? हमें ऐसा क्यों लगता है दुनिया हमें वैसे ही स्वीकारती है जैसे हम हैं. हमारी गलतियों को माफ़ करके हमें दूसरा मौका देती है. दुनिया ऐसी नहीं है भगवान्. वरना मेरी कहानी ऐसी कभी नहीं होती. मेरे ईश्वर, लिखने वाले तो आप हैं. क्यूँ नहीं लिखा आपने ‘प्रेम न जाने जात कुजात’. क्यूँ नहीं समझाते रीत रिवाज़ की रक्षा करते करते हमारी आत्मा को कितना कुछ सहना पड़ रहा है.

शोषण का एक रूप ये भी है भगवान. जहाँ कोई अपनी निरीहता जता कर मजबूर कर रहा है आपको चुप रहने के लिए. आज से थोड़े न है ये दुनिया ऐसी. याद है भगवान्, देवशिशु कर्ण को भी सूत पुत्र कह कर मछली की आंख नहीं भेदने दी थी. तब तो कन्या को खुद ही चुनना था अपना वर. चुन लेती तो शायद युद्ध भले ही हो जाता, पर द्रौपदी की दुर्दशा न होती. कौन समझाए इन लोगों को? फ़र्ज़ के नाम पर खुद तो शहीद होते ही हैं, किसी की मासूम ख्वाहिशें, सपने और आत्मविश्वास भी पैरों तले बिना सोचे समझे कुचल देते हैं.

इतना गुस्सा आता है न आपको जब मैं खुद को कुछ भी कहती हूँ. सुना नहीं जाता है आपसे. तब क्या होगा जब सब कहेंगे? सुना जाएगा आपसे? लोग कई बार आपको मुझसे दूर रहने के लिए समझा चुके हैं. बर्दाश्त नहीं होती है तुम्हारी दुनिया की गन्दी सोच. मैंने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा, चीखती रहती हूँ. जीने दो भी कई बार चिल्ला चुकी. बहरा है तुम्हारा समाज तो. पर ईश्वर, क्या आप भी नहीं सुन पा रहे? बताइए न?

Sunday 3 June 2018

कैसे कहें अलविदा


अध्याय ३३

हे ईश्वर

कल सारी रात अंधियारे में बीती. आंधी तूफ़ान आया था और मोमबत्तियां भी ख़त्म हो चली थीं. मुझे अँधेरे से बहुत डर लगता है भगवान्, आपको तो पता है. फिर भी रात किसी तरह कट ही गई. बहुत कुछ सोचने को जो रहा करता है. लोग कहते हैं अच्छा सोचो, अच्छा होगा. उन्होंने भी तो यही कहा था. एक वक़्त था जब मैंने निश्चय किया था कि मैं अब कभी किसी भी रिश्ते में खुद को झोंकने से पहले अच्छी तरह सोच समझ कर निर्णय लूंगी. सामने वाले से कोई न कोई वादा ले लूंगी. अपने आप को प्राथमिकता दूंगी, अपनी ख़ुशी के बारे में सोचूंगी. अपने आप को दुबारा किसी अनिश्चित और असुरक्षित रिश्ते में कदम नहीं रखने दूंगी. क्या क्या नहीं सोचा था भगवान्! आज मैं फिर से एक ऐसे रिश्ते में हूँ जिसके सर पर मजबूरी की तलवार लटक रही है, उतनी ही असुरक्षित हूँ जितनी पहले थी, बल्कि ज्यादा ही. किसी से उतना ही प्यार करती हूँ बल्कि ज्यादा ही. सांस रोके प्रतीक्षा कर रही हूँ, उस कैदी की तरह जिसे मृत्युदंड सुनाया जा चुका है और वो बचे खुचे दिन गिन रहा है. आप सोचते होंगे रिश्ता है या क़ैद? अगर इतनी नाखुश हूँ तो छोड़ क्यूँ नहीं देती उसे. वो भी अक्सर यही कहते हैं.

जवाब दूँ? अच्छा अगर ये शादी होती तो आप क्या कहते? मैं बताऊँ? बेटा रिश्ते ऐसे जल्दबाजी में नहीं तोड़े जाते. थोड़ी समझदारी से काम लेना पड़ता है. हर रिश्ते में उंच नीच आम बात है. थोड़ा एडजस्ट करना पड़ता है. सोच समझ कर निर्णय लेना. शादी सिर्फ दो लोगों का नहीं दो परिवारों का भी रिश्ता है. यही सब न? और हमारा रिश्ता जिस पर न परिवार की मुहर है न समाज की. उसके टूटने का इंतज़ार कर रहे हैं. मैं भी इंतज़ार कर रही हूँ. भगवान मैं आपके फैसले का इंतज़ार कर रही हूँ. जिस इंसान को आपने सही और गलत की इतनी गहरी समझ दी देखती हूँ वो मेरे साथ सही करता है या नहीं.

हम जब मिले थे, कितनी सारी बातें की थीं. आज वो कहता है कि उसे कुछ याद नहीं है. उसने ये भी कहा कि उसने कभी भी मुझसे कोई वादा किया ही नहीं था. उसका कहना है उसने कभी मुझसे शादी के लिए हाँ भी नहीं की थी. उसने ये भी कहा कि वो मुझसे प्यार नहीं करता. तो क्या भगवान मैंने एक बार फिर गलत इन्सान चुना है, गलत आदमी पर विश्वास किया है? दिन पर दिन उसकी बातें उन सब लोगों की हाँ में हाँ मिलाने लगी हैं जो मेरे अतीत का हिस्सा थे. जब भी कोई फैसला करने को कहती, वो लोग मुझे यही सारे ताने दिया करते थे. उसने मुझे बहुत प्यार और इज्ज़त से रखा. पर वही इन्सान ये भी कहने लगता है तुम मेरे लिए वैसे ही हो जैसे बाकी लोग. उसके कहने और करने में साम्य नहीं है ज़रा भी भगवान. मैं क्या करूँ? अपने लिए आज़ादी मांगी और मैंने एक बार खुद से कोई निर्णय ले लिया तो नाराज़ हो गया. मैं सब कुछ छोड़ तो दूँ पर किसके भरोसे? कितनी स्वार्थी और क्रूर है तुम्हारी दुनिया भगवान. ऐसी दुनिया में वो अकेला क्यूँ रहे?

मैं तो ये सब सोच रही हूँ. उसे क्यूँ ये ख्याल नहीं सताते? उसने तो अपना निर्णय अपने परिवार पर छोड़ दिया और निश्चिन्त हो गया. मुझे भी सुना दिया है उनका फैसला. मेरे पास अब उनकी इच्छा के आगे सर झुकाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं. मैं वो शर्त भी तो नहीं पूरी कर पाई जो उसने रखी थी. अब मुझे कुछ भी कहने का हक ही क्या रहा? पर मन नहीं मानता. वो यही कहता है कि उसे सारी सच्चाई पता थी. फिर भी उसने ये रास्ता चुना जिस पर चलकर मुझे फिर से आग से गुजरना पड़ेगा. उसके लिए मैंने अपनी सारी बुरी आदतें बदल डाली थीं, आज मैं बस इस बात का इंतज़ार कर रही हूँ कि वो मुझे वापस उन्हीं बुरी आदतों के साथ जीने दे. सोच ले कि मैं कभी नहीं सुधर सकती ताकि उसे दुःख न हो. सोच लेगा कि मैं हूँ ही बुरी इन्सान तो जीना आसान हो जाएगा उसके लिए. वैसे भी वो हमेशा यही कहता है कि तुम कभी सुधर नहीं सकती. मुझे तुम पर विश्वास नहीं है. तुम जैसी लड़की कभी सही रस्ते पर नहीं चल सकती. फिर भी मैं चले जा रही हूँ उसी रस्ते पर जो उसने दिखाया है. अँधेरे से इतना डरने वाली मैं अँधेरे में ही चले जा रही हूँ. बिना रास्ता देखे, ठोकर लगने का इंतज़ार करते हुए. हल्की सी उम्मीद के साथ कि शायद ऐसा न हो. शायद मेरी किस्मत किसी तरह बदल जाए. मैं इस अन्धेरे में चलने को तैयार हूँ ईश्वर, जानते हुए कि मुझे ठोकर लग सकती है. मुझे आप पर अब भी पूरा विश्वास है.

Friday 1 June 2018

अनचाहा


अध्याय ३२ 

हे ईश्वर

हम निर्भया और मैरिटल रेप जैसी गंभीर समस्याओं का हल खोजने में व्यस्त हैं. पूरे देश में छोटी छोटी बच्चियां वहशियों का शिकार हो रही हैं. झूठे दहेज़ और बलात्कार के मामले भी हल मांगने के लिए सड़कों पर उतर आये हैं. इस नक्कारखाने में जाने कहाँ से ये ‘अनचाहे स्पर्श’ नाम की तूती बोल पड़ी. अनचाहा स्पर्श – जैसे सड़कों पर चलते हुए भीड़ भाड़ में अचानक स्तन, कमर या नितम्बों पर किसी का हाथ पड़ जाना. पलट कर देखो तो आँखों में शर्म भी नहीं दिखती. दिखता है दुस्साहस! या फिर आप कार्यालय में कोई दस्तावेज़ किसी को पकड़ाते समय कोई आपका हाथ ही अपने हाथों में भर लेता है और माफ़ी भी नहीं मांगता. या फिर कंप्यूटर के गिर्द आपको घेर कर आपके सर पर बैठी भीड़. जो ज़रा सा आपके सरकने का इंतज़ार रही होती है. या बिना वजह छोटी से छोटी बात पर हाथ मिलाने को आतुर लोग! ऐसे में लोगों से भरे कमरे में कैमरे की दृष्टि के आगे एक राज्यपाल ने एक महिला पत्रकार का गाल छू दिया. उसके सवाल का जवाब नहीं दिया, बस मुस्कुरा कर आगे बढ़ गये. माफ़ी मांगते समय उन्होंने अपनी बुजुर्गियत का हवाला दिया. पर हम कहते हैं जनाब आपको ऐसा करने की आवश्यकता ही क्यूँ पड़ी? तारीफ़ ही करनी थी तो मुंह से कुछ शब्द बोल देते. आज जहाँ सगे रिश्तों में वासना की घुसपैठ है, वहां आप उम्मीद करते हैं कि कार्यस्थल पर उत्पीड़न को हम वात्सल्य की संज्ञा दे दें. आखें मूँद लें उसकी तरफ से.

सत्ताधारी पार्टी के नेता ने भी जवाब में जो किया वो तो पुरुष तंत्र न जाने कब से करता आ रहा है. ‘चरित्रहीनता’ के तमगे से डरना अब छोड़ दिया है हमने. शौक से आप हमें पुंश्चली कह लीजिए, वैश्या पुकारिए, कहिए चौराहों पर कि हम न जाने कितने पुरुषों की अंकशायिनी हैं. हम भी हां में ही सर हिलाते हैं. न करने से कौन सा आप हमारा भरोसा कर लेंगे? हमारी जिंदगी पर आपके इस तमगे से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. हम वही करेंगे जो करते आये हैं.

वैश्या!! क्यूँ इतना पसंद है ये विशेषण आप लोगों को? किसी लड़की को अपमानित करना हो तो झट से कह दो ‘वैश्या’. मैं भी जब खुद को अपमानित करना चाहूँ तो इसी विशेषण का प्रयोग करती हूँ. फिर भी उस दिन जब उन्होंने गुस्से में कहा मैं बर्दाश्त नहीं कर सकी. दो दिन तक घर से बाहर कदम तक नहीं निकाल सकी. जब भी बाहर जाने के लिए कदम बढ़ाती ऐसा लगता लोग मुझसे अभी पूछ लेंगे मेरी एक रात की कीमत. मैंने उस दिन सोच लिया था मैं अपने आप को इस विशेषण से कभी नहीं पुकारूंगी. मेरी जिंदगी और मेरे निर्णय के लिए मुझ पर सवाल उठाने का इस दुनिया को कोई हक नहीं. ये वही दुनिया है जिसने दु:शासन को द्रौपदी का चीर खींचने की इज़ाज़त दी थी. वही है जिसने निर्भया को कहा था ‘इतनी रात में बाहर जाना उसकी गलती थी.’ यही है जो लड़की के अतीत को उभार कर उसके रिश्ते तुड़वाने में अजीब किस्म का सुकून महसूस करती है.

स्त्री पुरुष की बराबरी एक मिथक है. ऐसा कुछ नहीं होता. वरना पुरुष अधिकारी का आदेश सर्वमान्य और मेरा अवहेलित न होता. दोनों एक सामान पद पर हैं पर उसको प्रणाम और मुझे नमस्ते किया जाता है. नाराज़ दोनों होते हैं पर उसकी डांट स्वीकार्य है और मेरी ‘पीठ पीछे मेरी निंदा करने का स्वर्णिम अवसर’. पर मैं भी मैं हूँ. चरित्रहीन का तमगा लटकाने के बाद कितने स्वतंत्र हो जाते हैं हम. ‘लोग क्या कहेंगे’ हमारे लिए नगण्य हो जाता है. आखों में शर्म हया की जगह दुस्साहस उतर आता है.

फिर भी हम कितने मूर्ख हैं. चाहते हैं जो हमें प्यार करता है वो हमारे इस सख्त आवरण के पीछे की नरमी को पहचान सके. कितना विश्वास होता है न हमें प्रेम की ताक़त पर. इतनी बार टूटा है फिर भी अब तक बना हुआ है. अभी भी सोचती हूँ किसी दिन उसे एहसास होगा कि मुझमें और किसी आम लड़की में कोई फर्क नहीं है बुनियादी. मैं जब घर में होती हूँ, स्वतंत्र होती हूँ तब उतरता है मेरा वो सख्त मुखौटा. मैं प्यार कर सकती हूँ टूट कर. त्याग भी कर सकती हूँ और घर परिवार की सार संभाल भी. अवसर देते तो देख लेते कि मैं कितनी घरेलू (!) हूँ या हो सकती हूँ. पर नहीं तुम भी तो मुझे उसी कार्यस्थल पर मिले थे. कैसे बदल सकती है तुम्हारी सोच. नहीं है मुझमें लड़कियों वाला शर्म लिहाज़, मैं मर्दों की दुनिया में रहती हूँ. थोड़ी भी नरमी दिखाई तो नोच के खा जायेंगे ये लोग मुझे. मैं इंतज़ार करुँगी उस इन्सान का जो इस मुखौटे के पीछे छिपा सही चेहरा पहचान सके और मेरा साथ देने का साहस कर सके. ऐसा एक इन्सान है जिसने मुझे पहचान तो लिया पर सबके सामने मुझे अपनाने की हिम्मत नहीं है उसके अन्दर. जानती हूँ मजबूरी का हवाला देगा, जिम्मेदारियों की बात कहेगा. रीत रिवाज़ की समझाईश भी देगा. नाराज़ होगा तो मुझे वैश्या भी कहेगा. ये भी बोलेगा कि मैंने उसकी नेक सीरत का फायदा उठा कर उसको मेरा साथ देने पर मजबूर किया. इलज़ाम भी लगाएगा कि मैंने उसका इस्तेमाल किया है. मेरा असल मकसद तो उसको अपने जाल में फंसाना था.

कुल मिला कर उसी अग्निकुंड में झोंक देगा जो उसके पहले वाले ने तैयार किया था. ये वाला तो औरों से अलग था न भगवान? इसके भी बोल पहले वाले जैसे क्यूँ हो गये? इसकी भी सोच वैसी ही क्यूँ निकली? इसने भी फैसला मेरे खिलाफ क्यूँ सुना दिया? क्यूँ इतना समझदार होने के बावजूद इसने भी वही किया और अब उसे ‘मेरी ख़ुशी’ का नाम दे रहा है. मेरी ख़ुशी क्या इसी में है कि जिसे मैंने इतना प्यार और सम्मान दिया वही मुझे मौकापरस्त और मतलबी कहे? स्वार्थी इन्सान अपना नुकसान करके किसी का ख्याल करता है क्या? मैंने पैसा, परिवार, सामाजिक प्रतिष्ठा सब भूल कर इसका साथ दिया भगवान. उसका क्या यही प्रतिदान मिलना था मुझे? खैर ये बात तो कभी ख़त्म नहीं होगी. पर अब मुझे इस दलदल से बाहर आना ही होगा. यही मेरी प्राथमिकता है. मदद करो मेरी भगवान्. मुझे न कहने की शक्ति दो. अलग होने के डर से मुक्ति दो. प्लीज भगवान.

एक बार फिर


अध्याय ३१ 

हे ईश्वर

लगता है तुम्हारी दुनिया एक बार फिर जीत गई और मेरा प्यार हार गया. एक बार फिर मैंने मात खाई, मेरा विश्वास टूटा. एक बार फिर लोग हंस रहे होंगे इस पागल लड़की पर. एक बार फिर अपना प्यार, अपनी ज़रूरतें, अपना दुःख दर्द सब भूल कर एक कोने में चुप मार कर बैठ जाना होगा. भगवान तुमने मुझसे इतना प्यार किया, इतनी नियामतें बिछा रखी हैं मेरे क़दमों के नीचे. सेहत दी, अक्ल दी, समझदारी दी, सफलता भी दी. प्रेम दिया और सब देकर मुझे अकेला भेज दिया दुनिया में. कोई है ही नहीं जिसे मैं अपना ये प्यार सौंप सकूँ. कोई है ही नहीं जो कानों में हौले से कह सके ‘मैं तुमसे प्यार करता हूँ. हमेशा साथ दूंगा तुम्हारा.’ कोई मिला ही नहीं जो हाथ पकड़ कर कह देता ‘तुम मेरी हो, सिर्फ मेरी.’ नहीं न भगवान. तुम मेरी हो तो हर कोई कह देता है. कहना चाहता है! पर रात के अँधेरे में, चुपके से. ऐसे कि मेरे साये को भी न सुनाई दे ये बात. कोई माई का लाल दुनिया के सामने मेरा हाथ क्यूँ नहीं पकड़ता? क्यूँ मेरे कन्धों पर रखे हाथ फिसल कर नीचे तो जाना चाहते हैं, पर उठा कर सर पर कोई नहीं रखता. क्यूँ हर कोई बस मेरी मुस्कान का, मेरी ख़ुशी का साथी बनना चाहता है. कोई मेरे आंसू क्यूँ नहीं पोंछता? मेरा गुस्सा नज़र आता है, मेरे गुस्से के पीछे का दर्द नहीं?

याद है पिछली बार दिल टूटा था तो किस तरह भाग कर आ गई थी मैं आपके पास? कितना सुकून मिला था, कितना चैन. आज भी उस बात को लेकर लोग सवाल करते हैं. कौन था मेरे साथ? कोई नहीं था माँ, बस तुम थी. तुम्हारा दिया हौसला था. प्यार था जो तुम मुझे बचपन से करती आई हो. याद है मुझे आज भी. बहुत दिन परेशान किया था मैंने आपको सवाल कर करके. पूछा करती थी कि तुमने मुझे एक इन्सान क्यूँ नहीं दिया जो मुझे प्यार करता, बिना शर्त. बुआ की बहुत याद आती थी उस वक़्त. वो बहुत प्यार करती थी मुझे. काश मेरे बड़े होने का इंतज़ार कर लेती. मैं भुला देती उसकी संतानहीनता का दर्द. बन जाती वो बेटी, उसकी बेटी. पर वो ऐसा ही दौर था कि लोग बस हार जाते थे, हार मान लेते थे. मैंने हार मानने से इनकार कर दिया भगवान. इसलिए शायद तुम्हारी दुनिया मुझे हराने के लिए इतनी कोशिश कर रही है.

अब कहाँ जाऊँगी? ये इन्सान इतना प्यारा है, सच! अभी भी याद है मुझे किस तरह भीड़ में बिना कहे कस कर मेरा हाथ पकड़ लेता है. किस तरह कभी मेरी उदासी तो कभी अकेलापन भांप लेता है. किसी की भी नज़रों में मेरे लिए गलत बात देखे तो घूर कर उसकी नज़रें झुका देता है. उसके पीछे चल कर बहुत सुकून मिलता है भगवान. वो जिस तरफ ले जाता है हर वो रास्ता सही निकलता है. फिर भी यही इन्सान है जो मुझे छोड़ देने की बात करता है. मुझसे कहता है अकेले जीना सीखो. अपना ख्याल रखना सीखो. अपने आप से प्यार करना तो ज़रूर सीखो.  

हर बार मुझे सही रास्ता दिखाने वाला ये इन्सान आज खुद एक गलत रस्ते पर जा रहा है. बहुत भरोसा है उसे अपने निर्णय पर. देख लेना ईश्वर, उसे पछताने का मौका मत देना. मेरे जैसे लोग तो गिर कर फिर उठ सकते हैं. वो गिर गया तो कौन संभालेगा? उसकी जिंदगी में उसके बारे में सोचने वाला कोई है ही नहीं. स्वार्थ में लिपटे हैं उसके रिश्ते भगवान. फ़र्ज़ का नाम देकर वो भले अपने आप को समझा ले, पर मैं सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ सकती. हे ईश्वर, मुझे थोड़ी और हिम्मत दो. मुझे उससे दूर जाने कि हिम्मत दो. मैं उसे किसी और का होते नहीं देख सकती. कभी कभी मन करता है, किसी भी राह चलते से गले में डलवा लूँ मंगलसूत्र. जो दर्द मुझे होने वाला है, उसका एहसास उसे करा दूँ. पर वो पहले ही इतने दर्द में है कि मेरी हिम्मत नहीं होती.  

हे भगवान् तोड़ दो उसका हर भरम. मुझे इतना वरदान दो कि एक बार उसकी नज़रें झुका सकूँ. एक बार जितने भी इशारे उसने मुझे मेरी शादी को लेके दिए थे सब झुठला दो. मत होने दो उसकी किसी भी भविष्यवाणी को सच. झुठला दो मेरी कुंडली और उसके बताये हुए भविष्य को. मुझे छोड़ देने पर बहुत बार मैंने लोगों की आँखों में अफ़सोस देखा है. पर उसकी आँखों में मैं देखना चाहती हूँ निश्चय. मुझे अपना लेने का निश्चय. उसे ये निश्चय दे दो और नहीं तो मुझे वो सुकून कि मैंने अकेले जीना बहुत अच्छी तरह सीख लिया है. प्लीज भगवान्.

किस किनारे.....?

  हे ईश्वर मेरे जीवन के एकांत में आपने आज अकेलापन भी घोल दिया। हमें बड़ा घमंड था अपने संयत और तटस्थ रहने का आपने वो तोड़ दिया। आजकल हम फिस...