अध्याय
३२
हे ईश्वर
हम निर्भया और मैरिटल रेप जैसी गंभीर समस्याओं का
हल खोजने में व्यस्त हैं. पूरे देश में छोटी छोटी बच्चियां वहशियों का शिकार हो
रही हैं. झूठे दहेज़ और बलात्कार के मामले भी हल मांगने के लिए सड़कों पर उतर आये
हैं. इस नक्कारखाने में जाने कहाँ से ये ‘अनचाहे स्पर्श’ नाम की तूती बोल पड़ी.
अनचाहा स्पर्श – जैसे सड़कों पर चलते हुए भीड़ भाड़ में अचानक स्तन, कमर या नितम्बों
पर किसी का हाथ पड़ जाना. पलट कर देखो तो आँखों में शर्म भी नहीं दिखती. दिखता है
दुस्साहस! या फिर आप कार्यालय में कोई दस्तावेज़ किसी को पकड़ाते समय कोई आपका हाथ
ही अपने हाथों में भर लेता है और माफ़ी भी नहीं मांगता. या फिर कंप्यूटर के गिर्द
आपको घेर कर आपके सर पर बैठी भीड़. जो ज़रा सा आपके सरकने का इंतज़ार रही होती है. या
बिना वजह छोटी से छोटी बात पर हाथ मिलाने को आतुर लोग! ऐसे में लोगों से भरे कमरे
में कैमरे की दृष्टि के आगे एक राज्यपाल ने एक महिला पत्रकार का गाल छू दिया. उसके
सवाल का जवाब नहीं दिया, बस मुस्कुरा कर आगे बढ़ गये. माफ़ी मांगते समय उन्होंने
अपनी बुजुर्गियत का हवाला दिया. पर हम कहते हैं जनाब आपको ऐसा करने की आवश्यकता ही
क्यूँ पड़ी? तारीफ़ ही करनी थी तो मुंह से कुछ शब्द बोल देते. आज जहाँ सगे रिश्तों
में वासना की घुसपैठ है, वहां आप उम्मीद करते हैं कि कार्यस्थल पर उत्पीड़न को हम
वात्सल्य की संज्ञा दे दें. आखें मूँद लें उसकी तरफ से.
सत्ताधारी पार्टी के नेता ने भी जवाब में जो किया
वो तो पुरुष तंत्र न जाने कब से करता आ रहा है. ‘चरित्रहीनता’ के तमगे से डरना अब
छोड़ दिया है हमने. शौक से आप हमें पुंश्चली कह लीजिए, वैश्या पुकारिए, कहिए
चौराहों पर कि हम न जाने कितने पुरुषों की अंकशायिनी हैं. हम भी हां में ही सर
हिलाते हैं. न करने से कौन सा आप हमारा भरोसा कर लेंगे? हमारी जिंदगी पर आपके इस
तमगे से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. हम वही करेंगे जो करते आये हैं.
वैश्या!! क्यूँ इतना पसंद है ये विशेषण आप लोगों
को? किसी लड़की को अपमानित करना हो तो झट से कह दो ‘वैश्या’. मैं भी जब खुद को
अपमानित करना चाहूँ तो इसी विशेषण का प्रयोग करती हूँ. फिर भी उस दिन जब उन्होंने
गुस्से में कहा मैं बर्दाश्त नहीं कर सकी. दो दिन तक घर से बाहर कदम तक नहीं निकाल
सकी. जब भी बाहर जाने के लिए कदम बढ़ाती ऐसा लगता लोग मुझसे अभी पूछ लेंगे मेरी एक
रात की कीमत. मैंने उस दिन सोच लिया था मैं अपने आप को इस विशेषण से कभी नहीं
पुकारूंगी. मेरी जिंदगी और मेरे निर्णय के लिए मुझ पर सवाल उठाने का इस दुनिया को
कोई हक नहीं. ये वही दुनिया है जिसने दु:शासन को द्रौपदी का चीर खींचने की इज़ाज़त
दी थी. वही है जिसने निर्भया को कहा था ‘इतनी रात में बाहर जाना उसकी गलती थी.’
यही है जो लड़की के अतीत को उभार कर उसके रिश्ते तुड़वाने में अजीब किस्म का सुकून
महसूस करती है.
स्त्री पुरुष की बराबरी एक मिथक है. ऐसा कुछ नहीं
होता. वरना पुरुष अधिकारी का आदेश सर्वमान्य और मेरा अवहेलित न होता. दोनों एक
सामान पद पर हैं पर उसको प्रणाम और मुझे नमस्ते किया जाता है. नाराज़ दोनों होते
हैं पर उसकी डांट स्वीकार्य है और मेरी ‘पीठ पीछे मेरी निंदा करने का स्वर्णिम
अवसर’. पर मैं भी मैं हूँ. चरित्रहीन का तमगा लटकाने के बाद कितने स्वतंत्र हो
जाते हैं हम. ‘लोग क्या कहेंगे’ हमारे लिए नगण्य हो जाता है. आखों में शर्म हया की
जगह दुस्साहस उतर आता है.
फिर भी हम कितने मूर्ख हैं. चाहते हैं जो हमें प्यार
करता है वो हमारे इस सख्त आवरण के पीछे की नरमी को पहचान सके. कितना विश्वास होता
है न हमें प्रेम की ताक़त पर. इतनी बार टूटा है फिर भी अब तक बना हुआ है. अभी भी
सोचती हूँ किसी दिन उसे एहसास होगा कि मुझमें और किसी आम लड़की में कोई फर्क नहीं
है बुनियादी. मैं जब घर में होती हूँ, स्वतंत्र होती हूँ तब उतरता है मेरा वो सख्त
मुखौटा. मैं प्यार कर सकती हूँ टूट कर. त्याग भी कर सकती हूँ और घर परिवार की सार
संभाल भी. अवसर देते तो देख लेते कि मैं कितनी घरेलू (!) हूँ या हो सकती हूँ. पर
नहीं तुम भी तो मुझे उसी कार्यस्थल पर मिले थे. कैसे बदल सकती है तुम्हारी सोच.
नहीं है मुझमें लड़कियों वाला शर्म लिहाज़, मैं मर्दों की दुनिया में रहती हूँ. थोड़ी
भी नरमी दिखाई तो नोच के खा जायेंगे ये लोग मुझे. मैं इंतज़ार करुँगी उस इन्सान का
जो इस मुखौटे के पीछे छिपा सही चेहरा पहचान सके और मेरा साथ देने का साहस कर सके. ऐसा
एक इन्सान है जिसने मुझे पहचान तो लिया पर सबके सामने मुझे अपनाने की हिम्मत नहीं
है उसके अन्दर. जानती हूँ मजबूरी का हवाला देगा, जिम्मेदारियों की बात कहेगा. रीत
रिवाज़ की समझाईश भी देगा. नाराज़ होगा तो मुझे वैश्या भी कहेगा. ये भी बोलेगा कि
मैंने उसकी नेक सीरत का फायदा उठा कर उसको मेरा साथ देने पर मजबूर किया. इलज़ाम भी
लगाएगा कि मैंने उसका इस्तेमाल किया है. मेरा असल मकसद तो उसको अपने जाल में
फंसाना था.
कुल मिला कर उसी अग्निकुंड में झोंक देगा जो उसके
पहले वाले ने तैयार किया था. ये वाला तो औरों से अलग था न भगवान? इसके भी बोल पहले
वाले जैसे क्यूँ हो गये? इसकी भी सोच वैसी ही क्यूँ निकली? इसने भी फैसला मेरे
खिलाफ क्यूँ सुना दिया? क्यूँ इतना समझदार होने के बावजूद इसने भी वही किया और अब
उसे ‘मेरी ख़ुशी’ का नाम दे रहा है. मेरी ख़ुशी क्या इसी में है कि जिसे मैंने इतना
प्यार और सम्मान दिया वही मुझे मौकापरस्त और मतलबी कहे? स्वार्थी इन्सान अपना
नुकसान करके किसी का ख्याल करता है क्या? मैंने पैसा, परिवार, सामाजिक प्रतिष्ठा सब
भूल कर इसका साथ दिया भगवान. उसका क्या यही प्रतिदान मिलना था मुझे? खैर ये बात तो
कभी ख़त्म नहीं होगी. पर अब मुझे इस दलदल से बाहर आना ही होगा. यही मेरी प्राथमिकता
है. मदद करो मेरी भगवान्. मुझे न कहने की शक्ति दो. अलग होने के डर से मुक्ति दो.
प्लीज भगवान.
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