अध्याय ३६
हे ईश्वर
आज उन्होंने कहा, “जब किसी चीज़ के
लिए दिल से कोशिश की जाती है तभी आप सफल होते हैं.” फिर क्यूँ मैं लाख चाह कर भी
उनकी मदद नहीं कर पा रही. क्या मैंने दिल से कोशिश नहीं की? मेरे प्रयास में क्या
कमी थी, बोलो न? क्या आप नहीं चाहते कि मैं वो सुकून महसूस करूँ जो मुझे उनकी मदद
करके मिलता है. प्लीज भगवान्, मेरी मदद करो. मुझे उनकी मदद करने दो. पर कभी कभी
लगता है क्या इतना ही है हमारा रिश्ता? अगर मैं कोई चीज़ न कर सकूँ तो क्या इसका
मतलब मैंने कोशिश नहीं की? इस्तेमाल होने के लिए ही बनाया है क्या आपने मुझे? और
काम में न आ सकूँ तो फ़ेंक दिया जाए किसी कोने में?
बोलो भगवान्? क्यूँ इतना आसान है ये
कहना कि मेरे समर्पण, मेरे प्यार, मेरी वफादारी में कोई कमी है! याद आता है कि किस
तरह हमेशा उनकी इच्छाएं मेरे लिए मेरी बड़ी से बड़ी ज़रूरत से ज्यादा अहम हो जाती
हैं. हमेशा कितनी कोशिश करती हूँ कि उनकी ज़रूरतें ही नहीं ख्वाहिशें भी पूरी कर
सकूँ. हमेशा मैंने इतना ही चाहा है कि उनके चेहरे पर मुस्कान रहे. उस एक मुस्कान
के लिए मैंने क्या कुछ किया. और अब वो कहते हैं कि तुमने कोशिश की ही नहीं.
कभी कभी दिल करता है छोड़ दूँ इतना
प्रयास करना. जिस तरह वो कभी मेरी परवाह नहीं करते, मैं भी भूल जाऊं कि मैंने
उन्हें कोई भरोसा दिलाया था. कितना कितना प्रयास करती हूँ. जब तक सफल होता है तब
तक सब ठीक रहता है पर जैसे ही छोटी सी चूक हो जाए, सब बर्बाद हो जाता है. किस
तलवार की धार पर चलती हैं औरतें भी. बरसों का किया धरा एक पल में अकारथ हो जाता
है. ‘तुम करती ही क्या हो? तुमने किया ही क्या है?’ कितनी आसानी से हमारी दबी हुई
हर इच्छा, किये हुए हर बलिदान को नकार देते हैं लोग. क्यूँ करते हैं वो ऐसा?
कामकाजी हो या घरेलू...वैसे ये सिर्फ नाम के विशेषण हैं. मेरे लिए तो हर लड़की
कामकाजी है.
तो फिर ठीक है. भले ही मेरा किया
धरा अकारथ करके आज आप कह दें कि मैं करती ही क्या हूँ? मेरे ईश्वर को मालूम है
मैंने क्या और कितना किया है. इसलिए भले ही लोग ऊँगली उठाते रहे, भले ही आप मुझ पर
ऊँगली उठा दें...मैं जानती हूँ और मेरा ईश्वर जानता है कि मैंने कुछ नहीं किया
कहना और मेरा इस बात को मान लेना इतना आसान नहीं है.
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