Tuesday, 26 June 2018

काहे को ब्याहे बिदेस...?


अध्याय ४० 

पिताश्री का शुभ आगमन आज हुआ और हमने राहत की साँस ली. अब कम से कम खाना हिसाब से बनेगा और घर के ख़राब पड़े बल्ब बदले जायेंगे. घर की बंद पड़ी खिड़कियाँ खोल कर साफ़ हवा और धूप अन्दर आएगी और शाम की सैर अब ज़रा लम्बी होगी. कुछ दिन बड़े सुकून से कटेंगे, शाम की चाय का अलग स्वाद होगा. खाने के मेनू में व्यापक स्तर के बदलाव होंगे और रोज़ रोज़ आलू की भुजिया से मुक्ति मिलेगी. कितना कुछ करना होता है और सब याद आता है जब घर से कोई आ जाता है. अचानक आप फ्रिज पर जमी धूल और घर में लगे जालों को साफ़ करने लगते हैं. प्लेट में खाना निकाल कर बिस्तर पर खाने की जगह खाली पड़ी मेज़ सँवारने लगते हैं. अचानक ही समय पर घर जाने की जल्दी होती है और सुबह दफ्तर जाने में आलस.

सच है कि बेटियां पिता के बड़े नज़दीक हुआ करती हैं. पर बड़े होते मैं तो दोनों के ही पास आ गई हूँ. मुझे बचपन में बहुत बुरा लगता था जब पापा मुझे मेरे दोस्तों की तरह घर से वक़्त बेवक्त बाहर नहीं जाने देते थे. पर उसी वजह से शायद आज मैं समय से घर आना अपने आप सीख गई. बुरा लगता था जब फ़ोन पर बिना कारण लम्बी लम्बी बातें नहीं करने देते थे पर उसी सख्ती ने मेरा कितना समय बर्बाद होने से बचा लिया. बुरा लगता था जब ज्यादा दोस्त नहीं बनाने देते थे पर उसी आदत ने किताबों को मेरा दोस्त बना दिया. बुरा लगता था जब मेरी ज़रूरतें तो पूरी होती थीं पर जिदों के लिए थोड़ी मुश्किल हुआ करती थी. उसी बात ने शायद आज मुझे जिद और ज़रूरत दोनों पूरी करने की काबिलियत दे दी.

जब मैं छोटी थी तब बहुत कुछ बुरा लगता था पर आज वही सब मुझे अच्छा लगने लगा है. तब अपना घर भी बुरा ही लगता था. वही रंग, वही चारदीवारें सब में बंद बंद सा लगा करता था. आज चारों तरफ से हवादार इस घर में भी मन बार बार अपने घर ही लौट जाना चाहता है. उसी बचपन के बिस्तर पर टेबल लैंप की रोशनी में खुराफातें करना चाहता है. हम घर छोड़ आये हैं पर घर ने अभी भी हमारा हाथ थाम रखा है. कभी सोचा भी नहीं था एक रात भी घर से बाहर न बिताने वाली मैं, दिन क्या महीनों तक घर की शक्ल भी नहीं देख सकूंगी.

पर खैर इसी तरह से एक दिन मैं अपना घर भी बना लूंगी एक दिन. जिसमें सोकर मुझे वही बचपन वाला सुकून महसूस होगा. उसी दिन का इंतज़ार है अब मुझे. वो दिन ला दो न, मेरे ईश्वर!

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