अध्याय ३४
हे ईश्वर
आज मैं आपसे बहुत नाराज़ हूँ. बात भी
करने की इच्छा नहीं होती. कोई दुआ मांगने का मन नहीं करता. विश्वास डगमगाने लगा है
अब मेरा. मन करता है आपसे खूब झगड़ा करूँ, आपको चढ़ाये हुए सारे फूल तोड़ कर बिखेर
दूँ, आपके पास पड़ा रुपया पैसा छीन कर बाँट दूँ ज़रुरतमंदों में. आपके मंदिर के
रास्ते रोक दूँ कि आपको एक दिन अकेले रहना पड़े. सोचा था कि आपसे दुआ मांगूंगी और
वो कुवूल हो जाएगी. पूरी हो जाएगी मेरी कहानी. पर आज जितनी निराशा और जितना दुःख
मुझे हो रहा है उससे भी कहीं ज्यादा अफ़सोस हो रहा है. हे ईश्वर, आप हो न?
अच्छा अगर हो तो बताओ बिहार में उस
बेबस मासूम लड़की की चीखें क्यूँ नहीं सुनीं आपने? अब कहाँ गये भैया पुकारने पर बलात्कार
रोकने का दावा करने वाले? वीडियो वाली
लड़की तो भैया भैया ही चीख रही थी. उन लोगों को तरस तो नहीं, उलटे हंसी आ रही थी. उनकी हंसी इतनी खौफनाक थी कि...वैसे भी मैं तो लड़की हूँ. हर
बात बढ़ा चढ़ा कर कहती हूँ. कल अनचाहा स्पर्श परेशान कर रहा था आज उस लड़की के साथ
हुई बदसलूकी. हे ईश्वर अपने बन्दों को सद्बुद्धि दे दो. बंद कर दो ये वहशीपना. पहले
तो एकांत में ही हुआ करता था. अब तो ऐसी हरकतों को लोग बार बार देख सकते हैं.उसके
अपनों की नज़र से भी तो गुजरा होगा ये सब कुछ.
इन लोगों के साथ जो हुआ वो तो इतना
भयानक था. पर इसी भयानकता का एक छोटा सा हिस्सा मेरी जिंदगी में भी है. कह नहीं
सकती, किसी को बता भी नहीं सकती. ईश्वर आपसे तो कुछ छुपा ही नहीं. अनचाहे स्पर्श
को तो इंकार करना हम जानते हैं, पर जिस स्पर्श को किसी की मौन स्वीकृति प्राप्त हो
उसे क्या करें? कैसे कहें कि वो अनचाहा था? कैसे कहें कि उसके लिए हाँ नहीं की थी?
कैसे समझाएं कि क्यूँ अब ऐसा लगता है कि हमें ऐसा नहीं करना चाहिए था? कटघरे में
खड़े हैं और कोई सुनवाई नहीं हो रही है अब.
समाज जब किसी पर चरित्रहीन का ठप्पा
लगा देता है तो किसी की नहीं सुनता. अब तो और नहीं सुनेगा. एक नहीं दो नहीं तीसरी
बार मैंने सपने देखने का साहस किया और किसी ने मेरे सारे सपने तोड़ दिए. पता नहीं मैं
क्या सोच रही थी! क्यूँ है मुझे खुद पर इतना विश्वास. जब कोई रिश्ता टूटता है न
भगवान्, तो इन्सान भी उसी के साथ टूट जाता है. कुछ दिन तक तो सांस भी ठीक से ली
नहीं जाती. दिल डूबने लगा है अब तो. इस बार तो मुझे सँभालने वाला भी कोई नहीं
होगा. मेरे अपनों के चेहरों पर ‘मैंने तो पहले ही कहा था’ की परछाई तैर रही है!
कुछ कहने से भी डर लगता है.
पता नहीं क्यूँ भगवान्? हमें ऐसा क्यों
लगता है दुनिया हमें वैसे ही स्वीकारती है जैसे हम हैं. हमारी गलतियों को माफ़ करके
हमें दूसरा मौका देती है. दुनिया ऐसी नहीं है भगवान्. वरना मेरी कहानी ऐसी कभी
नहीं होती. मेरे ईश्वर, लिखने वाले तो आप हैं. क्यूँ नहीं लिखा आपने ‘प्रेम न जाने
जात कुजात’. क्यूँ नहीं समझाते रीत रिवाज़ की रक्षा करते करते हमारी आत्मा को कितना
कुछ सहना पड़ रहा है.
शोषण का एक रूप ये भी है भगवान.
जहाँ कोई अपनी निरीहता जता कर मजबूर कर रहा है आपको चुप रहने के लिए. आज से थोड़े न
है ये दुनिया ऐसी. याद है भगवान्, देवशिशु कर्ण को भी सूत पुत्र कह कर मछली की आंख
नहीं भेदने दी थी. तब तो कन्या को खुद ही चुनना था अपना वर. चुन लेती तो शायद
युद्ध भले ही हो जाता, पर द्रौपदी की दुर्दशा न होती. कौन समझाए इन लोगों को? फ़र्ज़
के नाम पर खुद तो शहीद होते ही हैं, किसी की मासूम ख्वाहिशें, सपने और आत्मविश्वास
भी पैरों तले बिना सोचे समझे कुचल देते हैं.
इतना गुस्सा आता है न आपको जब मैं
खुद को कुछ भी कहती हूँ. सुना नहीं जाता है आपसे. तब क्या होगा जब सब कहेंगे? सुना
जाएगा आपसे? लोग कई बार आपको मुझसे दूर रहने के लिए समझा चुके हैं. बर्दाश्त नहीं
होती है तुम्हारी दुनिया की गन्दी सोच. मैंने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा, चीखती रहती
हूँ. जीने दो भी कई बार चिल्ला चुकी. बहरा है तुम्हारा समाज तो. पर ईश्वर, क्या आप
भी नहीं सुन पा रहे? बताइए न?
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