Friday 14 December 2018

अधूरी अलविदा II

अध्याय ६० 
हे ईश्वर

माफी मांगती हूँ आपसे आज! मैंने आपकी दुनिया से प्यार, दोस्ती, ईमानदारी जैसी न जाने कितनी बड़ी बड़ी उम्मीदें लगा रखी थीं। आज मेरी वो सारी उम्मीदें टूटती नज़र आ रही हैं। सच कहूँ तो मैं भी बहुत टूट गई हूँ। लेकिन मैं आपकी इस दुनिया को खुद पर हंसने का मौका कभी नहीं दूँगी। मैं किसी के सामने कभी नहीं बिखरूंगी। 

मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि जिस इंसान को मैंने इतना प्यार दिया वो मुझसे इतनी नफरत कर सकता है। उसने न सिर्फ मुझे चोट पहुंचाई बल्कि आज मेरे साथ इतना अपमानजनक व्यवहार करके मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। मैं क्यूँ इस इंसान के साथ हूँ? क्या मजबूरी या कमजोरी है मेरी? एक आत्मनिर्भर, सशक्त और आत्मविश्वासी इंसान होकर भी मैं किसलिए ये अपमान सह रही हूँ? क्या प्यार का मतलब हर तरह का अपमान बिना किसी शिकायत के सुन लेना होता है? क्या प्यार और आत्मसम्मान में से प्यार को चुन कर मैंने कोई गलती की है? क्या सच में मुझे इस इंसान से भी दूर जाना पड़ेगा? क्या इसके लिए भी बंद हो गए हैं मेरे मन के दरवाजे? क्या जिंदगी में कभी मुझे पीछे पलट कर देखने का मन नहीं करेगा? कल उसने गलती की थी और आज माफी मांग ली। उसकी माफी में शिद्दत और अपनापन दोनों था। पर जब मैंने सोचने के लिए वक़्त मांगा वो अपने उसी रौ में आकर बोल पड़ा ' जैसी तुम्हारी इच्छा।' क्या है मेरी इच्छा भगवान? आज तक किसने रखा है मेरी इच्छा का मान!

अजीब है न ये बात ईश्वर! लोगों की नज़रों में मैंने अपना पूरा जीवन अपनी इच्छानुसार जिया है पर जहां से मैं देखती हूँ मुझे मेरे जीवन पर किसी और की इच्छा और अधिकार ही नज़र आता है। जब मैं अपने जीवन में विवाह के बारे में गंभीर थी उस वक़्त मेरा कैरियर अहम लग रहा था। आज जब मैं अपने कैरियर में नई उचाइयाँ छूना चाहती हूँ, अपना समय और ध्यान इसकी तरफ लगाना चाहती हूँ तब लोगों को मेरे अंधकारमय भविष्य की चिंता हो रही है। मेरे लिए वो सब कुछ चाहते हैं प्यार भी, परिवार भी, पद प्रतिष्ठा और मान सम्मान भी। 

अपने मन की मन में रखने वालों को पता भी है वो किस कदर सामने वाले को गुमराह करते रहते हैं। मैं उनके साथ रहना चाहती हूँ पर समाज और परिवार की सहमति वो मुझे दिला नहीं सकते न दिलाने की हिम्मत रखते हैं। देखा जाए तो इस रिश्ते में सिवाय अंतहीन समझौते के मेरे लिए है भी क्या? हाँ ये सच है कि मैं उनसे बेहद प्यार करती हूँ और उनकी हर खुशी और दुख में उनके साथ खड़े रहना चाहती हूँ। पर ये इंसान कभी तो अपने प्यार और परवाह से मुझे आकर्षित करता है और कभी ये निकृष्ट से शब्द मेरे लिए बोल कर मुझे सोचने पर मजबूर कर देता है। मैंने हमेशा दूसरों का भला ही सोचा है, भला ही चाहा है। वो जीवन के एक दोराहे पर हैं। इस वक़्त मेरा हाथ खींच लेना उन्हें भटका सकता है। मैं नहीं चाहती कि इस वक़्त उनका ध्यान ज़रा सा भी अपने लक्ष्य से भटके। पर उनके साथ रहने का मतलब समय समय पर ये अपमान और उनके जहरबुझे शब्द बर्दाश्त करना। कभी मेरी परवरिश, कभी मेरा व्यवहार, कभी मेरे संस्कार पर उनका उंगली उठाना। 

मैं जानती हूँ कि गुस्से में वाणी पर कोई वश नहीं चलता पर मुंह से निकली बात वापस भी तो नहीं आती। मुझे बेहद चोट पहुंचती है जब मेरे निजी जीवन या अकेलेपन पर वो कोई अपमानजनक बात कह देते हैं। या जब हमारे निजी पलों और यादों को वो किसी और ही रूप में मेरे सामने रख देते हैं। मैं स्वार्थी नहीं हूँ, चलता पुर्जा नहीं हूँ, बेईमान तो बिलकुल नहीं हूँ और वासना का मेरे जीवन में कोई स्थान नहीं। हाँ अपने जीवन में अपने लिए मुझे जो बेहतर लगा मैंने किया। मेरे संस्कारों के अलावा भी मेरा अपना एक व्यक्तित्व है, सोच है। उसके लिए किसी से शर्मिंदा होने की मुझे कोई भी आवश्यकता नहीं। 

माफी मांगती हूँ फिर एक बार। उनको प्यार, सम्मान और अपनापन देकर भी न तो उनके जीवन और न ही उनकी अच्छी यादों में मेरे लिए कोई जगह है। फिर भी मैं आपके समाज की रवायतों के आगे सर झुकाने को तैयार नहीं। मैं उसी राह चलूँगी जो मैंने खुद चुनी है। 

1 comment:

किस किनारे.....?

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