Friday, 28 December 2018

वितृष्णा


अध्याय ६५ 

हे ईश्वर

मन बहुत अशांत है आज। लगता है कहीं भी सुकून नहीं मिलेगा। आजकल लगता है औरत होकर इतना आगे बढ़ना शायद मेरे लिए उचित नहीं था। मैं आत्मनिर्भर होकर भी इस कदर पराश्रित और परावलंबी हूँ। प्रतिदान भी देती हूँ और उसे ग्रहण करने के लिए किसी की अभ्यर्थना भी करती हूँ। ये कैसे याचक है भगवान, जो याचना भी अधिकारपूर्वक करते हैं और उलाहने भी देते हैं अस्वीकार करने पर। अतीत का एक पृष्ठ बार बार खुल कर आता है। मेरा एक मित्र हुआ करता था हालांकि उस स्वार्थी और लोभी पुरुष को मित्र कहना मित्रता के मुंह पर तमाचा है। उसने मुझसे जब भी मदद मांगी, मैंने की। हंस के कहता था, कभी नहीं चुकाऊंगा तेरा उधार। सच ही उसने जब विश्वासघात किया तो उसकी ओछी निकृष्ट हरकतों के जवाब में मैं बस असीमित सी अपनी चुप में सिमट गई। बेहद चोट पहुंचाई थी उसने मुझे भगवान। ऐसे सभी कथित मित्रों का ध्यान आज आ रहा है मुझे। मैंने मदद यही सोच कर की थी कि समय कुसमय कोई ज़रूरत पड़ने पर मुझे भी वही अवलंब मिलेगा। पर आवश्यकता पड़ने पर सारे के सारे न जाने क्यूँ कन्नी काट गए। ये सोचने से क्या लाभ कि मैं फिर कभी किसी का संबल नहीं बनूँगी। मैं जानती हूँ मैं फिर फिर वही गलतियाँ दुहराऊंगी क्यूंकि मुझे आप पर विश्वास है।

क्यूँ भगवान? आपका सर्वशक्तिमान पुरुष इतना कायर और परावलंबी क्यूँ है? कितनी ही माओं को बड़े गर्व से कहते सुना है कि उसने अपने लाडलों को बड़े अच्छे संस्कार दिए हैं। क्या यही उन सब के संस्कार हैं, मां कि छल, कपट, मिथ्या, घड़ियाली आंसू और हमेशा अपने संस्कारों और रीत रिवाजों की दुहाई देते रहें पर साथ ही साथ प्रेम के नाम पर छल भी करते रहें। ऐसे ही एक बार एक किसी को आड़े हाथों लिया था मैंने। बहुत बड़ी गलती की थी। हर तरफ से फटकार बरसी थी उस समय मुझ पर। उस वक़्त एहसास हुआ कि शादी के बारे में सोच कर भी मैंने कितनी बड़ी गलती की। मेरे भाग्य में सुहाग के चिन्ह नहीं हैं। कभी होंगे भी नहीं क्यूंकि मेरे जीवन में आने वाले हर पुरुष के पास मुझे देने ले लिए सिर्फ उलाहना ही है, और कुछ भी नहीं।

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