अध्याय ६४
मेरे भगवान!!
मेरे भगवान!!
कल जो
हुआ उसे बयान करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है । एक दोस्त से साझा की गई
बातों का ये मतलब निकाला जाएगा ऐसा मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। अब समझ में
आया है कि लड़की के चरित्र पर कीचड़ उछालना किस कदर आसान है। कुछ काम नहीं आता ऐसे
वक़्त पर। आपकी शिक्षा दीक्षा, आपके
संस्कार, आपकी
वफादारी और आपका प्यार - सब भूल जाते हैं लोग जब उनके मन में शक का कीड़ा कुलबुलाता
है। कहने से क्या फायदा कि मेरे मन में ऐसा कोई ख्याल नहीं और मैंने अपनी मर्यादा
का उल्लंघन नहीं किया। मन तो इतना दहल गया था कि
बचपन से आज तक के अपने हर दोस्त का मन ही मन आकलन कर लिया। राहत की सांस ली
ये सोच कर कि तकरीबन सारे विवाहित हैं और उनमें से
कोई भी अब संपर्क में नहीं है। जिसके लिए ये बात उन्होंने बोली वो
भी तो न सिर्फ विवाहित बल्कि दो प्यारे बच्चों के पिता भी हैं। जब बिना कुछ किए मेरा
ये हाल है तो उन लड़कियों का क्या होता होगा जो सचमुच दो नावों की सवारी किया करती हैं।
ख़ैर उन्होंने अपने शब्दों के लिए क्षमा मांग ली और मैंने उनको माफ भी
कर दिया। पर मेरा मन अभी भी अशांत है। क्या मैं भी उन हजारों स्त्रियों की तरह अपना
हर शौक भूल जाऊँगी, दोस्तों और समाज से किनारा कर लूँगी, पर- पुरुष को भैया कहना शुरू कर दूँगी और अपने मन की मन में दबाना सीख जाऊँगी? फिर मेरे सपने का क्या होगा? मंटो, शिवानी, अमृता प्रीतम जैसों की तरह महान तो नहीं पर
छोटी सी रचनाकार बनने की इच्छा है न मेरी!
क्या वो सपना मैं मार दूँ?
प्रभा खेतान की अन्या से अनन्या की याद आ गई। दूसरी औरत असल
में क्या होती है इसका जितना सटीक और मार्मिक चित्रण उन्होंने किया शायद मैंने कहीं
और कभी नहीं पढ़ा। अपनी स्थिति की मन ही मन उनसे तुलना करने से खुद को नहीं रोक पाई
मैं। किस तरह अपना समय, श्रम, पैसा, प्यार और सर्वस्व देकर भी एक पुरुष का विश्वास नहीं जीत सकी थीं वो। ईश्वर, औरत हमेशा क्यूँ हार जाती है? कभी सीता हार गईं थीं
और आज मैं... मुझे जीतना है ईश्वर। अपने हर गुण, अवगुण और सहज
आचरण के साथ उनका विश्वास जीतना है। मेरी मदद करो न, प्लीज।
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