अध्याय 63
हे ईश्वरकहने को आपकी दुनिया में आदमी सर्वशक्तिमान है। पर मेरी दुनिया में आपने चुन चुन कर सबसे दीन हीन, कमजोर और निरीह प्राणी भेजे हैं। समाज कहता है कि औरत वो बेल है जो आदमी रूपी वृक्ष के बिना फल फूल नहीं सकती। पर आप साक्षी हैं....पति, पिता भाई जिस भी रूप में पुरुष मेरे जीवन में हैं, सब आधे अधूरे ही हैं। कुछ भी करने में खुद को असमर्थ पाते हैं, बेचारगी जताते हैं। कितना अजीब हिसाब किताब है मेरी दुनिया का ईश्वर, आपकी दुनिया से बिलकुल उलट। कहाँ है वो पुरुष जो रक्षा करता है? यहाँ तो मेरी छवि बिगाड़ने के लिए मेरे जनक का एक जहरबुझा वाक्य ही बहुत है। मुझे वो सारे कापुरूष बहुत याद आते हैं आजकल जिनको पीछे छोड़ कर मैं बहुत पहले ही आगे बढ़ चुकी हूँ। मेरी जिंदगी और मैं ऐसी क्यूँ हूँ? फिर लोग कहते हैं, तुम चाहती हो कि कोई तुम्हारे साथ न हो। क्यूँ चाहूंगी ईश्वर? ऐसा क्या सुखद बदलाव आ जाता है मेरे जीवन में किसी के होने से? मेरी आत्मा और शरीर निचोड़ कर भी बदले में मुझसे घृणा ही तो करता है आपका भेजा हुआ हर पुरुष।मेरी कमियाँ गिनाते समय किस कदर सुकून उभर आता है उसकी आँखों में। फिर भी मेरा विश्वास नहीं टूटा। मैंने तब भी पकड़े रखी अपनी ‘मुझमें अच्छाई बाकी है’ की हठ। वैसे सच कहूँ...!!
मुझे तो ऐसा लगता है आपने पुरुष बनाने ही बंद कर दिए अब। जितने हैं सब अर्द्धपुरुष। याद आता है कैसे मैं किसी को उसके घर सुरक्षित पहुंचा कर ही घर जाती थी। कैसे रात के चौथे पहर में घर आने पर भी सड़क पार रहने वाला मेरी रक्षा के लिए कुछ सीढ़ियाँ भी नहीं उतर पाता था। किस तरह किसी खास मौके पर या तो खुद ही सारा सरंज़ाम करती थी ये फिर बस सब्र कर लिया करती थी। मैंने बस इतनी सी उम्मीद की थी किसी से कि मेरा इतना इंतज़ार किया था तो कद्र भी कर लेता थोड़ी। पर नहीं, ऐसा हुआ नहीं। आपकी दुनिया ने मुझे जितना निराश किया उतनी ही खुद को खुश रखने की मेरी आदत बन गई। आज मेरी ज़िंदगी में कोई भी रहे या जाए, मैं बिखर तो जाती हूँ पर खुद को समेट भी लेती हूं। मेरी हार मुझे फिर चलने का हौसला दे देती है। दर्द में जीना मेरी आदत सी बन गई है। मुझे डर लगता है आने वाले कल से क्योंकि वो मेरी सारी खुशियां और अरमान कुचल कर किसी और को देने वाला है। उस दिन का इंतज़ार भी है और उसी दिन की दस्तक से दहशत भी होती है। इंतज़ार है ताकि मैं एक बार फिर ठोकर खाकर गिरूं और ज़ख्म भरने का इंतज़ार करूँ। एक बात बताइए न..ऐसा क्यों नहीं होता कि मेरा विश्वास पूरी तरह उठ जाए। हर बार एक ही सपना और एक सी निराशा। कभी ऐसा क्यों नहीं होता कि पूरी हो जाए मेरी उम्मीद। पर वो भी अब एक दूर की कौड़ी लगती है। शायद यही मेरी नियति है कि मेरी ज़िंदगी में आने वाले मेरा विश्वास तोड़ते जाएं और मैं विश्वास करती जाऊं। यही आपकी इच्छा है क्या??
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