अध्याय ६२
हे ईश्वर
किसी का हाथ अब मेरे हाथों में है या नहीं? क्या उसका साथ छूट गया है? क्या खो दिया है हमने हमारा प्यार? क्या अब मेरा उस पर कोई अधिकार नहीं? क्या वो बदल गया या बदल जाएगा? क्या सच में लोग जो कहते हैं वही सच है? मैं अपनी जिंदगी बर्बाद किए जा रही हूँ खुद अपने हाथों से। जो भी छूती हूँ, बिखर जाता है। जो रिश्ता बनाती हूँ टूट जाता है। कोई मेरे साथ रहना नहीं चाहता या मैं खुद ही लोगों को मजबूर कर देती हूँ खुद से दूर जाने पर। कौन देगा इसका जवाब?
मैंने आज फिर उन पर झूठे, बेबुनियाद और बेहद कड़वे इल्ज़ाम लगाए। शायद अब वो मुझसे नफरत करते होंगे। मैं ऐसा क्यूँ चाहती हूँ भगवान कि जिसे भी मैं प्यार करती हूँ वो मुझसे कोसों दूर चला जाए और वहीं रहे। पर दूर जाने का फैसला मेरा तो नहीं था। अपने परिवार की पसंद पर मुहर लगाने का निर्णय उनका था। अगर मुझमें इस तरह उनको किसी और का होता देखने की शक्ति नहीं है तो क्या करूँ? मैं पहले ही बेहद दर्द में हूँ अब अगर ये सब अपनी आँखों से देखूँगी तो सांस तक लेना दूभर हो जाएगा। पहले भी हुआ था ऐसा दर्द मुझे, उस बात को दिन ही कितने हुए हैं?
फिर भी आज मैं उसी जगह आके फिर क्यूँ खड़ी हो गई? खुद से किए सारे वादे भूल गई थी मैं उनके प्यार के लिए। क्या क्या तो सोचा था। अब मैं खुद को वो प्यार दूँगी जो किसी ने मुझे कभी नहीं दिया। अपने आप के साथ रहूँगी, अपनी खुशी खुद में ढूंढ लूँगी और अपने लिए उसी प्यार और ध्यान की उम्मीद करूंगी जैसे मैं दूसरों का रखती हूँ। वही मैं किसी के लिए अपनी जिंदगी तक खत्म करने का सोचने लगी हूँ। मैं कब से इतनी कमजोर हो गई? जहां उसने मुझे रिश्ता और आदत में से कोई एक चुनने को कहा था, वहाँ मैंने अपना रिश्ता चुन लिया। आदत छोड़ क्यूँ दी? जब एक दिन वो मुझे मेरी इसी आदत के साथ छोड़ देने का इरादा करके आया था।
उनका कहना है मेरी आदतों के साथ मैं कोई समझौता नहीं कर सकती। पर उसने भी तो मुझे बदल कर ही प्यार किया। मैं जैसी हूँ मुझे वैसे ही स्वीकार किसने किया ही है आज तक? फिर मैं क्यूँ किसी की चेहरे की मुस्कान के लिए अपनी सारी खुशियाँ वार देती हूँ? किसी की आँखों के आँसू पोंछने के लिए मैंने अपनी रातों की नींद हराम कर ली है। मन डूब सा जाता है जब मैं घर पर बात कर रही होती हूँ और वो कहते हैं किसी यार का फोन होगा। अजीब लगता है जब कहीं भी आने जाने की और देर तक बाहर रहने कि कैफियत देती हूँ। जब दफ्तर के सारे जलसे छोड़ कर मैं सिर्फ इसलिए घर आ जाती हूँ क्यूंकि मेरा देर रात बाहर रहना उनकी फिक्र की वजह है। मुझे उनकी फिक्र पर प्यार आता है, पर उनके शक पर गुस्सा। मैं उनके साथ एक रिश्ते में हूँ, अपनी खुशी से। फिर भी जब वो कहते हैं मेरी तरफ से आज़ाद हो तुम तो किसी बंधन में रहने को मन तरस के रह जाता है। इस आज़ादी से लाख दर्जे अच्छी तो उनके नियम कायदों की बेड़ियाँ हैं। उनमें कम से कम मेरे लिए उनका प्यार और फिक्र तो झलकती है। वो स्वतन्त्रता दूसरी ही होती है जिसमें लोग किसी को खुला छोड़ देते हैं कि वापस आए तो उनका है। ये तो कुछ और है। एक थोपी गई उड़ान कि अब तुम्हारे लिए मेरे पास कुछ बाकी नहीं बचा...मैं क्या करूँ?
ये इंसान जिसे मैं इतना प्यार करती हूँ। खुद अकेला होकर भी उसे मेरे अकेलेपन का एहसास ही नहीं। किसी ने एक बार उसके प्यार का अपमान किया था जिसकी टीस आज भी है। फिर कैसे वो भी उसी तरह का दर्द मुझे देने पर उतर आया है। उसका कहना है कि तुम खुद काफी हो खुद को नष्ट करने के लिए। सच तो है... ऐसे ही तो मायापंछी (phoenix) में खुद को नहीं देखती न मैं! खुद को जला के, पूरी तरह खत्म करके ही मुझे चैन आता है। अब वक़्त आ गया है एक बार फिर से खुद को खत्म करने का। अब मैं रख के करूंगी भी क्या?
कुछ वैसे ही जैसे कोई गुनाह का रास्ता छोड़ कर नेकी के रास्ते पर चलना चाहे लेकिन समाज उसे बार बार उसी दलदल में धकेल दे। मुझे भी अब लगने लगा है कि ये दलदल ही मेरा घर है, मुझे इसे छोड़ कर जाना ही नहीं चाहिए।
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