Monday, 17 December 2018

परित्यक्ता


अध्याय ६१

हे माँ

एक छोड़ी हुई औरत का भविष्य कितना अंधकारमय होता है न! मुझे न जाने क्यूँ आज इस बात का एहसास हुआ। मेरी एक ज़िद आज मुझ पर बेहद भारी पड़ गई। वो इतने नाराज़ हो गए। वो हमेशा नाराज़ क्यूँ हो जाते हैं भगवान

क्या मैं वैसी ही हूँ जैसा लोग कहते हैं? या मैं अपनी जगह सही हूँ? कुछ समझ नहीं आता। क्या कल सब कुछ ठीक हो जाएगा? या कल भी उनका वही लहज़ा और वही बातें होंगी। मन बहुत विचलित सा है। ईश्वर प्यार जब आता है तो हमें एहसास क्यूँ नहीं होता कि इस प्यार और ध्यान की उम्र सीमित है। ये जो एक्स्पायरी डेट वाला प्यार आप बार बार मेरी जिंदगी में भेज देते हो, ऐसा प्यार मुझे बेहद तकलीफ पहुंचाता है। ये दो दिन मैंने जैसे बिताए आप तो जानते होंगे। कभी कभी मन करता है मैं वही करूँ जो मेरा दिल कहता है। पर ऐसा करना आसान नहीं है।

पता नहीं मैं क्यूँ विश्वास कर लेती हूँ हर बार। वो दूसरों से अलग है पर उसकी बातें वहीं हैं जो उन लोगों ने की थीं। गुस्से में कुछ भी बोलने वाले को पता भी है कि वो बोल क्या रहे हैं!! मेरी शादी, वो सारे लोग जो उनसे पहले आए थे, मेरी ज़िद और मेरा निरंकुश व्यवहार, कुछ भी तो नहीं छोड़ा। मज़े  की बात तो ये है कि उनके शब्द और उनके लहजे में वही सारी बातें थीं जो किसी और ने भी कहीं और इसी लहजे में कहीं। किस बूते वो कहते हैं कि वो दूसरों से अलग हैं!!

सब कुछ ऐसे ही तो शुरू होता है। प्यार से बात करना, ख्याल रखना, छोटी से छोटी बातें याद रखना और फिर... एक दिन वो सब भूल कर लोग मुझे दर्द पहुँचाने में लग जाते हैं। मेरा मन अजीब सा हो रहा है। मन करता है कि सब कुछ छोड़ कर मैं कहीं चली जाऊँ। पर अपने आप से भाग कर जाऊँगी भी कहाँ? गलती मेरी ही तो है। मुझे ही बहुत भरोसा है, खुद पर। बस इतना और...कि मेरा ये विश्वास बनाए रखिएगा। बाकी सब तो मैं देख लूँगी!

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