Sunday 29 April 2018

भूल जाऊं तुम्हें...?


अध्याय १५

हे ईश्वर!!

‘मैं शादी कर रहा हूँ; आप आयेंगी न?’ क्या हुआ? पहले कहीं सुना है ये मैंने. अरे हाँ! पिछले वाले ने भी तो यही कहा था. तभी तो शुरू हुआ था हमारा रिश्ता, वही तो थी हमारी दोस्ती और प्यार की पहली सीढ़ी. जब मेरे सारे दर्द को ख़त्म करने का बीड़ा उठाया था तुमने. मेरी मदद करने को हाथ बढ़ाया था. एक अनकहा वादा किया था कि तुम कभी मेरा दिल नहीं टूटने दोगे. कितने यकीन से कहा था ‘मैं तुम्हें तुम्हारा हर दर्द भुला दूंगा.’ तब कहाँ जानती थी मैं कि उस दर्द को भुलाने के लिए उससे कई गुना गहरा दर्द तुम मुझे दोगे. आज न जाने कहाँ है तुम्हारा वो वादा और कहाँ है वो यकीन. मैं उतनी ही अकेली हूँ जितनी मैं तब थी. इतनी ही बेबस हूँ...बल्कि ज्यादा ही. पिछली बार मैंने उसे आड़े हाथों लिया था, पूछी थी वजह. आज तक नहीं भूली उसने जो कहा था. ‘आप कोई सती सावित्री नहीं हैं.’ जीने नहीं देती है उसकी ये बात मुझे. पर तुम...तुम तो न जाने कब से मुझे एहसास दिला रहे हो कि मैं तो उस लायक हूँ ही नहीं कि कोई मेरे साथ जीवन बिताने की सोच भी सके. तो अब तुमसे सवाल करूँ भी तो कैसे? क्या पूछूँ?

हाँ एक एहसान तो रहेगा तुम्हारा मुझ पर. जाने से पहले ही सारे कसमें वादे ले लिए हैं मुझसे. किसी और को नहीं आने दूंगी. अपने आप से प्यार करूंगी. अपना ख्याल रखूंगी. अपनी ज़िंदगी और उससे जुड़ी सारी चीज़ों की कद्र करूंगी. अपने रिश्तों को मान सम्मान दूंगी. और भी बहुत सी बातें. बहुत गुस्सा आ रहा है.मन करता है तोड़ दूँ तुमसे किये सारे वादे, पार कर दूँ अपनी हर हद, डूब जाऊं उसी दलदल में जिससे बच बच कर निकल रही हूँ मैं. भूल जाऊं कि कभी आए थे मेरी ज़िंदगी में तुम और आज तुम ही मेरी ज़िंदगी बन गए हो. भूल जाऊं कि तुमने मुझे वादा किया था कि तुम मुझे कभी दुःख नहीं पहुँचाओगे. वादा किया था कि तुम हमेशा मेरा साथ दोगे. मुझे तो कभी कभी लगता है वो सारी बातें जिसने मुझसे की थीं वो कोई और था. तुम वो हो ही नहीं क्यूंकि अगर होते तो याद रहता तुम्हें कि कितनी निराशा हुई थी मुझे जब मेरा रिश्ता टूटा था. मैंने किस तरह खुद को संभाला था. वजह तुम भी देते हो, उसने भी दी थी. पर ये दोनों ही कहानियां एक ही अंजाम की तरफ क्यूँ बढ़ गईं? इसका जवाब शायद मुझे कभी नहीं मिलेगा.

इसका जवाब तो मेरे ईश्वर ही दे सकते हैं. याद आता है जब आपने कहा था ‘अब अगर तुम खो गयी, तो मुझसे रास्ता मत पूछना. मैं तुम्हें रास्ता बताने नहीं आऊंगा. बहुत कुछ याद आ रहा है. दिल कर रहा है सब भूल जाऊं मैं. भूल जाऊं कि हम कभी मिले थे, दोस्त बने थे. प्यार किया है! आज जब भूलने बैठी हूँ न जाने क्या क्या याद आ रहा है. पता नहीं तुम कैसे सब भूल गये. मैं भी अब सब भूलना चाहती हूँ. मैं खो गई हूँ एक बार फिर. पर रास्ता नहीं पूछूंगी तुमसे. भूल जाऊँगी कि एक दिन तुमने ही मुझे रास्ता दिखाया था, चलने की ताक़त दी थी. मैं भूल जाऊँगी अपने हर सपने को. तुमसे जुड़ी हर बात को, हर याद को. भूल जाऊँगी कि मैंने कितना प्यार किया है तुमसे. भूल जाऊँगी. सब भूल जाऊँगी.

वादा करती हूँ..

अध्याय १५


हे ईश्वर

मैंने उसका दिल दुखाया! कैसे कह दी इतनी कड़वी बात मैंने? फिर से वही सब किया जो न करने का मन ही मन वादा किया था खुद से. अब क्या करूँ? कैसे माफ़ी मांगूं उससे? इतने पर भी मेरी परवाह थी उसको. मेरे लिए इतना किया, मुझे इतने प्यारे प्यारे पल दिए और मैंने क्या किया? शायद मैं उसके प्यार और परवाह के लायक ही नहीं हूँ. मेरे जैसे लापरवाह और मुंहफट इन्सान के पास कैसे रह सकता है कोई भी? क्या सच ही नहीं देख पाउंगी अब उसका चेहरा, नहीं सुन पाउंगी उसकी आवाज़, अब नहीं करेगा मेरी फिक्र? नहीं पूछेगा कि  घर पहुंची या नहीं? मन भी न जाने कहाँ कहाँ भटक रहा है....काश वो सपना सच हो जाये. सचमुच उसका एक हिस्सा मेरे अंदर हो...धीरे धीरे बढ़ता हुआ, आकार लेता हुआ. देश, दुनिया, समाज...सब से लड़ लूंगी मैं. हाँ भगवान्...सब सह लूंगी.

मैंने कभी सोचा भी नहीं था की जिस इंसान ने मुझसे इतना प्यार किया, मेरे बारे में इतनी फिक्र की...उसे इस तरह उसकी बचपन की नादानियों के लिए आड़े हाथों लूंगी मैं. लेती तो लेती..पर इस तरह उस पर उंगली उठाने और उन घटिया लोगों की जमात में उसको शामिल करने का मुझे कोई हक नहीं था. पर बचपन की एक टीस आज मेरे प्यार पर भारी पड़ गई. काश उसे याद आ जाए. उसके लिए नहीं कही थी वो बात मैंने..मेरे बचपन की सब से भयानक याद इसी तरह की बदमाशियों से जुड़ी है. जब भी ऐसी कोई बात सुनती हूँ, बस वही एक चेहरा आँखों के सामने आ जाता है. काश उसे याद आए, काश...

हे ईश्वर आपने मुझे ऐसा बनाया ही क्यूँ है? कितनी सारी बातें वो मुझसे बाँटने लगा था...क्या फिर कभी वो दिन लौटेंगे? पता नहीं इस बार गलती किसकी है? क्या एक गलती मेरे इतने दिनों के प्यार को भी फीका कर देगी? वो हमेशा कहता है ये गलती नहीं है आदत है तुम्हारी. गलतियाँ सुधारी जा सकती हैं पर आदतें बदलना इन्सान के वश में नहीं होता. अगर ये सच होता तो मेरी इतने बरसों की बुरी आदतें यूँ एक पल में कैसे बदल जातीं? अगर वो आदतें छूट गईं तो ये भी ज़रूर छूटेगी. मुझे विश्वास है.

उसने कहा था भूल जाओ अब मुझे. मैं वापस नहीं आऊंगा अब. मैं कभी नहीं देखूंगा अब तुम्हारी तरफ. कभी नहीं...बड़ा लंबा अरसा होता है ये कभी नहीं भगवान्. एक ही जगह पर रहते हुए क्या भूल सकता है वो मुझे? क्या सच ही इतना हल्का है मेरे प्यार का पलड़ा. जो भी हो...मुझे अपने आप को संभालना है. मन डूब रहा है, ऑंखें भर आई हैं, पर नहीं...टूटने बिखरने के लिए नहीं मिली है ये ज़िंदगी मुझे. मुझे उसके हिस्से की हिम्मत भी आज खुद जुटानी होगी. भरोसा करना होगा अपने आप पर.गलतियाँ सब से होती हैं, मुझसे भी हुई हैं. एक गलती से ज़िंदगी ख़त्म नहीं हो जाती.
बड़ा अच्छा तरीका अपनाया उसने मुझे तोड़ने का. किसी और के साथ हूँ. पर मैं भी आज खुद से वादा करती हूँ. अगर सचमुच वो किसी के साथ हो तब भी मैं नहीं टूटने वाली. नहीं दुहराउंगी अपनी गलतियाँ. नहीं करूंगी अब वो सब कुछ फिर से. मैं वादा करती हूँ. वादा करती हूँ मैं सबके सामने कभी नहीं आने दूंगी अपनी तकलीफ. कभी ये एहसास नहीं होने दूंगी कि वो मेरे लिए क्या एहमियत रखता है. मेरी ज़िंदगी में आग लगाने वाले कोई पराये नहीं थे, मेरे अपने ही थे. तो अब मैं किसी को भी अपना नहीं मानूंगी, सब गैर हैं मेरे लिए. जिन लोगों को मैंने अपना एक एक ज़ख्म दिखाया वो सारे उस पर नमक छिड़कने से बाज़ नहीं आए. तो वादा करती हूँ, मेरे ज़ख्म अब किसी को नहीं दिखेंगे. कोई नहीं जान पायेगा कि मेरे मन में क्या क्या छुपा है.मैं किस कहर से गुज़र कर आ रही हूँ. उसने मुझसे इतने सारे वादे किये थे,उसने सब तोड़ दिए. उसका कहना है कि गलती मेरी है. वो तो पहले ही मान चुकी हूँ. मैंने उम्मीद की, भरोसा किया, अपने दर्द बांटे, खुद को इन्सान समझा. इतनी छोटी नहीं है मेरी गलतियों की फेहरिस्त. तो अब वादा करती हूँ, कोई गलती नहीं दुहराउंगी. अब कोई कभी मुझ तक नहीं पहुँच सकेगा. मैं किसी पर विश्वास नहीं करूंगी. किसी से प्यार तो बिलकुल नहीं करूंगी. प्यार बहुत तकलीफ देता है. वादा करती हूँ इस तकलीफ से अब खुद को कभी नहीं गुजरने दूंगी. वादा करती हूँ भगवान्. मैं अब सिर्फ खुद को प्यार करूंगी, वो करूंगी जो मुझे अच्छा लगता है. किसी की परवाह नहीं करूंगी, किसी से नहीं डरूँगी. किसी की बात नहीं मानूंगी, किसी के आगे अपना सर नहीं झुकाउंगी. जो रिश्ता मुझे अपना नहीं सकता, मैं भी उस रिश्ते को कभी नहीं अपनाउंगी. भूल जाउंगी मैं भी तुमको, वादा करती हूँ. जीना सीखूंगी बिना तुम्हारे, वादा करती हूँ, नहीं देखूंगी पलट कर अब तुम्हारी तरफ, वादा करती हूँ. वादा करती हूँ जितने पत्थरदिल आज तुम बन गये हो, मैं भी उतनी ही बन कर दिखाउंगी. नहीं चाहिए कोई सहारा मुझे. आज जब मुझे तुम्हारी ज़रुरत है, तुम मुझे ज्यादा से ज्यादा दुःख पहुँचाने में लगे हो. मैं भी वादा करती हूँ, मैं फिर कभी किसी को इतना करीब आने ही नहीं दूंगी की वो मुझे इस तरह तोड़ डाले. वादा करती हूँ मैं अपने आप से और तुमसे. अब बस ...मैं अब और खुद को तकलीफ में नहीं डालूँगी, नहीं करुंगी अपने आप से कोई नाइंसाफी. वादा करती हूँ. नहीं देखूंगी रास्ता तुम्हारा, नहीं करूंगी तुम्हारा इंतज़ार. नहीं मांगूंगी कोई दुआ तुमसे जुड़ने की. नहीं चाहूंगी तुम्हारा साथ. कुछ नहीं मांगूंगी, कुछ नहीं चाहूंगी, सिवाय उस सुकून के जो तुमने छीन लिया है, सिवाय उस नींद के जो अब मुझे आती ही नहीं, सिवाय उस प्यार के जो मैंने तुमसे किया है. ईश्वर करे तुम्हें भी मुझसे वही प्यार हो जो मुझे हो गया है तुमसे. तब लौट आना मेरे पास और खुला मिलेगा हर दरवाजा तुम्हें, वादा करती हूँ.

Wednesday 25 April 2018

कोयला भई न राख


अध्याय १५ 

हे ईश्वर

फिर से एक सवाल ‘क्यूँ किया था इतना विश्वास तुमने, किस रिश्ते से?’ क्या रिश्ता है मेरा तुमसे. इस सवाल का जवाब देने में मेरी ज़बान लड़खड़ा जाती है. रिश्ता मेरा तुमसे नहीं, उस पल से है जिसमें तुम मेरी मुसीबतों के आगे ढाल बनकर खड़े हो जाते हो. मेरा रिश्ता उस लम्हे से है जब मेरी निराशा और मेरे आंसूं दोनों पोंछ डाले थे तुमने. मेरा रिश्ता उन आँखों से है जिसमें मेरे सारे सपने रहते हैं. कमाल की बात तो ये है कि तुम्हारे समाज ने हर सतही रिश्ते को नाम दे दिया पर इतने गहरे रिश्ते के लिए उसके पास देने को कुछ नहीं है. मैं भी बनाना चाहती थी कभी – रीत रिवाजों वाला रिश्ता. पर जिस समाज में बेटी की मर्यादा संभाले जाने के बजाय तार तार कर दी जाती हो, उस समाज में मेरी मर्यादा की रक्षा करने कौन आयेगा? इसलिए मेरे बनाये हर रिश्ते के आगे तुम्हारा समाज दीवार बन कर खड़ा हो जाता है और उसके बनाये हर रीत रिवाज़ को मैं साल दर साल झुठलाए जा रही हूँ.

मेरे ईश्वर क्या तुमने एक भी ऐसा पुरुष नहीं बनाया जिसे अपने लिए स्त्री की नहीं एक साथी की तलाश हो? जो मुझे मेरे व्यक्तित्व,मेरे सच झूठ, मेरी अच्छाई बुराई, मेरी गलतियों और सबसे ज़रूरी मेरे अतीत के साथ स्वीकार कर ले? नाम अलग अलग हैं, चेहरे भी...पर उनके बोल नहीं बदले. उनका लहज़ा नहीं बदला, उनकी सारे आरोप प्रत्यारोप भी अक्षर अक्षर वही हैं. मैं अब कैसे विश्वास करूं कि कोई होगा जो मुझे अपना लेगा. सबके सामने.उस दिन की उसकी बातें आज भी मेरे कानों में पिघला सीसा बन कर उतर जाती हैं. किसी क्षण जब मैं सब भूल कर हंसने लगती हूँ, तब मेरी आँखों में आंसूं बन कर छलक जाती हैं. कैसे खुश रहूँ मैं? किस तरह ख़त्म हो ये दर्द?  हर पल ऐसा लगता है जैसे साँस लेना भी दुश्वार है. लेकिन तुम्हारी दुनिया ने और सब तो किया बस मुझे मरने नहीं दिया. अपनी जान लेकर मैं दुनिया को मेरे अपनों पर हंसने का मौका नहीं देना चाहती. पर ऐसी छवि के साथ रहूँ तो कैसे? साँस भी लूँ तो कैसे? क्या करूँ?

जिसे मैंने इतना प्यार किया, जिसे अपने आप से भी ज्यादा अहमियत दी जिसकी इच्छा के लिए मैंने खुद को झुका दिया, वो अगर मेरे बारे में ऐसा सोच सकता है तो क्या गलत करते हैं लोग? क्या गलत करते हैं अगर मेरी हर उपलब्धि को संशय की निगाह से देखते हैं? अगर मुझे खुशहाल देखकर उनको लगता है कि ये ख़ुशी किसी चोर दरवाज़े से आई होगी मेरे पास! अब कुछ करने की इच्छा ही मरती जा रही है मेरे अन्दर. हे ईश्वर, मुझे जीवन में आपने सब कुछ दिया पर साथ ही साथ दे दी लोगों की गंदी नज़रें भी. लोगों को तो मैं एक कहर भरी नज़र डाल कर चुपा देती हूँ, पर अपनों की आँखों में इतना धिक्कार है कि अब दम घुटने लगा है मेरा.

मैंने खुद को सँभालने की बहुत कोशिश की, उसके कहने पर एक नई शुरुआत करने के लिए भी तैयार हो गई, मन मज़बूत करके अतीत के सब दरवाज़े भी बंद कर दिए. पर भगवान, न जाने किस अशुभ घड़ी में उसके मुंह से मेरे लिए इतनी गलीज़ बातें निकलीं. मेरा सारा आत्मविश्वास तिनके की तरह उड़ गया. किन्ही कमज़ोर क्षणों में लगता है ‘ क्या सचमुच ढोंग कर रही हूँ सच्चरित्र होने का?’ पर मन नहीं मानता दुनिया की कही सुनी पर सहमति की मुहर लगाने को. पर ये बात कहने वाली दुनिया तो नहीं थी, वो शख्स था जो मेरी दुनिया है. तो अब क्या करूँ? झुठला दूँ उसकी बात, जता दूँ उसे कि मैं बड़ी सच्ची हूँ, सीधी हूँ.

कहने तो तो अगले ही दिन उसने माफ़ी मांगी, मुझे यकीन दिलाया कि गलती मेरी नहीं थी. उसका वो मतलब नहीं था. पर कमान से छूटा तीर और मुंह से निकली बात वापस नहीं आ सकते. मैंने उसको तसल्ली देने के लिए कह दिया ‘मैंने तुम्हे माफ़ किया.’ पर मेरी ऑंखें मेरे शब्दों का साथ नहीं दे रहीं. मेरा मन भूल ही नहीं पा रहा, न भूलने दे रहा है. मेरी आत्मा जले जा रही है, सूखी लकड़ी की तरह. काश उसे एहसास होता कि उसने क्या किया? होगा ज़रूर एहसास उसे. पर उसके इस एहसास करने से मेरी टीस कम होने वाली नहीं.

पता नहीं कब मैं इस दर्द से बाहर आ पाउंगी. कब भूल पाउंगी..? कब सीने की जलन ख़त्म होगी, आंखों के आंसूं सूखेंगे..पता नहीं.

Friday 20 April 2018

इंतज़ार था मुझे

अध्याय १४

‘मेरे बाद कोई नहीं आएगा’ ये ही वादा लिया है तुमने मुझसे. पूछा था क्या कारण है जो मैं खुद से प्यार नहीं करती, अपनी इज्ज़त नहीं करती, अपने आप को खुश देखना नहीं चाहती. मैं क्या चाहती हूँ क्या नहीं ये सोचने की फुर्सत कहाँ थी मुझे आज तक. आज तुमने कहा तो सोचने पर मजबूर हो गई कि मै आखिर चाहती क्या हूँ इस रिश्ते से या किसी भी रिश्ते से! मैं चाहती हूँ किसी का एकनिष्ठ प्यार, मेरे लिए किसी की परवाह, मुझ पर और मेरी उपलब्धियों पर किसी की आँखों में मेरे लिए फख्र. महज़ इतने पर ही संतुष्ट नहीं होता मेरा मन. वो तो चाहता है कि उस इन्सान में दुनिया, समाज और मेरे अपनों के सामने मुझे अपनाने की हिम्मत हो. पर मेरी वो उम्मीद आज तक अधूरी है. इसलिए मैंने अपने आपको यही समझा लिया कि मैं किसी के एकनिष्ठ प्यार के लायक ही नहीं.

आज तुम कहते हो कि हमेशा साथ दोगे मेरा. पर इस हमेशा की उम्र कितनी है? मैं न रह कर भी रहूँगा. ऐसा कहने से पहले सोच लो एक बार. जब सात फेरे ले लोगे तो उलझ जाओगे उसी ज़िन्दगी में. फिर इस रिश्ते को निभाना बोझ लगने लगेगा तुम्हें. तब कहाँ जाएगा ये साथ और क्या होगा हमारा रिश्ता. खैर!! पता नहीं क्यों तुमसे मिल कर अच्छा लगा, अच्छा बनने का मन हुआ. तुम कहते हो कि हमारी डोर हमारे हाथ में नहीं है. तो आज मैं भी कहती हूँ विधाता से. एक बार बता दे कि सही दिशा कौन सी है और मोड़ दे मुझे उधर. तुमने दिखाया तो है मुझे रास्ता. अब इस रस्ते पर चलने की हिम्मत भी दे दो.

मैं अपने आप से प्यार नहीं करती – क्यूँ? कैसे करूँ उस इन्सान से प्यार जिसे कोई प्यार नहीं करता. तुम जानते ही नहीं मैं वो इन्सान हूँ जिसके एक छोटे से किताबों के शौक ने उसके जानने वालों की नींदें उड़ा रख हैं. लोग सोचते हैं ज्यादा पढने लिखने वाले लोग दुनियादारी नहीं जानते. मैं जानती हूँ पर मैं इस दुनिया के दोगलेपन को भी अच्छी तरह पहचानती हूँ. और फिर भी विश्वास करती हूँ कि कोई तो होगा जो दोगला नहीं होगा. कोई होगा जो मुझे अपने फायदे के लिए नहीं मेरे साथ के लिए पसंद करेगा. कोई होगा जो मेरे ऊपर लगे इन तरह तरह के इल्जामों से परे हटकर मुझे जानना चाहेगा. कोई तो... तुमने मेरे लिए ये कोशिश की है. तुमने पहचाना है मुझे. हौसला तो दिया है पर ये हौसला भी कब तक. पता नहीं. पर वादा किया है तो वादे की कद्र तो करनी होगी.

मैं अपनी इज्ज़त नहीं करती – ये सच है. मैं खुद से इतनी नफरत करती हूँ कि बौखला जाती हूँ कुछ अच्छा होता है तो. मैंने अपने करीबियों की नजरों में कभी अपने लिए इज्ज़त नहीं देखी. देखा तो हसद या फिर हिकारत. भीख में नहीं मिली ये सारी नियामतें मुझे. मैंने बेहद मेहनत की है, बड़ी सारी कुर्बानियां दी हैं. इसलिए आज इस मक़ाम पर हूँ. लोगों को तो लगता है मेरे जैसे लोगों के कोई उसूल नहीं होते. या आज हम सुकून की ज़िन्दगी जी रहे हैं तो कल या आज हमारी ज़िंदगी में कोई दुश्वारी है ही नहीं. वो नहीं जानते कि मैं हर दिन जूझती हूँ दुनिया से. कभी अपनी जगह बनाने के लिए तो कभी अपनी जगह बचाए रखने के लिए. लोग मेरा संघर्ष नहीं देखते, देखते हैं तो केवल विजय. जो लोग मेरी ज़िंदगी का हिस्सा नहीं हैं, वही करते हैं ऐसे अनर्गल प्रलाप. जो मेरे करीब हैं...मेरे इतने करीब आज तक आया ही नहीं कोई कि समझ सके मुझे. मैं जानती हूँ मेरे अतीत से जुड़े किसी भी इन्सान ने ये पढ़ लिया तो यही कहेगा ‘मैं था तुम्हारे करीब.’ पर सच यही है मैं आज तक किसी के साथ रह कर भी हमेशा अकेली ही हूँ.

हे ईश्वर इतने बरसों से ढून्ढ रही हूँ, अपनी आत्मा का वो एक हिस्सा जो आप ने न जाने कहाँ छुपा दिया. मैं अधूरी हूँ और यही अधूरापन ही मेरी बेचैनी का कारण है. किसी से जुड़ भी जाऊं तो वो मेरे पास टिकता नहीं है और मेरी आत्मा पहले से ज्यादा अकेली और उदास हो जाती है. कस्तूरी की तरह जो खोज रही हूँ बाहर वो शायद मुझमें ही है. जानती मैं सब हूँ, फिर भी.

ऐसा नहीं है कि आज जो सवाल आपने मुझसे किये वो मैंने कभी अपने आप से नहीं पूछे. न जाने कितनी बार पूछे हैं, कितनी बार समझाया भी है खुद को. दूध के जले छाछ को भी फूँक कर पीते हैं. पर जिसने एक बार काजल की कोठरी में पांव धर दिया उसे बाहर का रास्ता मिल भी गया तो कालिख तो लग ही जाती है. कौन छुड़ाए ये कालिख! आपकी ही दुनिया ने तो समझाया है मुझे कि मेरे जैसे लोगों के लिए भलाई इसी में है कि कालिख को ही अपना असली रंग मान कर अपना लें. आपके सफेदपोश बगला भगत जो आज मुझ पर उँगलियाँ उठाते हैं, चोरी छिपे यही चाहते हैं कि उन्हें मेरी ज़िंदगी जीने का मौका मिले. मैं क्या थी भगवान् और क्या हो गयी हूँ. कभी कभी खुद को पहचान नहीं पाती मैं. अपने आपसे ही दूर हो गयी हूँ.

पर मेरे लिए अभी उम्मीद बाकी है. उसने कहा है बड़ी हिम्मत के साथ कि नई शुरुआत करो. न जाने क्यूँ उसकी बातों पर अमल करने को जी चाह रहा है.मांगता तो जान भी दे देते पर ये इन्सान तो मुझसे मेरे ही लिए नयी ज़िंदगी मांग रहा है. हे ईश्वर, मुझे इसी इन्सान का तो इंतज़ार था.जो मेरे बाहरी आवरण के पार मेरी आत्मा को देख सके.पहचान सके उसकी बेचैनी को. शायद उसे दूर भी कर सके. पर अब तो एक नई बेचैनी मेरा रास्ता रोक रही है. ऐसा लगता है जैसे वो अपने जाने के लिए मुझे तैयार कर रहा है. डरता है कि उसके बिना भटक न जाऊं इसलिए ये सब कर रहा है. खैर उसी के शब्दों में ‘होगा वही जो आपने तय कर रखा है.’ तो ईश्वर, आप ही लिख दो मेरी ज़िंदगी में उसका साथ.मैं और भटकना नहीं चाहती, थक गयी हूँ.

Wednesday 18 April 2018

हर बेटी फूलन होती

अध्याय १३

हे ईश्वर

आपके देश के अखबार पटे पड़े हैं... एक पिता, पड़ोसी. अभिभावक या राह चलता कोई. कोई अंतर नहीं रह गया. ६ महीने, ६ साल या सत्रह...कोई फर्क नहीं पड़ता. साड़ी, सलवार सूट या डायपर...कुछ भी चलेगा. विवाहित या अविवाहित...जानना भी नहीं चाहते. जिस देश में, जिस राज्य में माता रानी का नाम लेकर लोग दर्शन करने जाते हैं, उसी राज्य में ऐसे लोग भी रहते हैं. एक समुदाय को डराने के लिए उनको यही तरीका समझ आया. वो घर जला सकते थे, मवेशी ले जा सकते थे, कुछ भी कर सकते थे. पर न जाने किस बीमार मानसिकता ने उन्हें समझाया कि एक छोटी सी बच्ची पर अपनी मर्दानगी दिखाना ही सबसे अच्छा तरीका है. अमानवीयता का ये नंगा नाच सिर्फ एक राज्य या एक बेटी की बात नहीं. ६ महीने की बच्चियां हों या ६० साल की माएं...अब तो कोई सुरक्षित नहीं है.

अब तक तो हम सब रात के अँधेरे से ही डरते थे, अकेलेपन और अजनबियों से ही सावधान रहते थे...पर अब तो जान पहचान वालों को भी संभल कर मिलना होगा. पैदा होते ही बच्ची को सात तालों में रखना होगा. उसे माँ बोलने से पहले ना बोलना सिखाना होगा. कैसे बतायंगे हम उसे कि उसके साथ क्या क्या हो सकता है! जो मासूम बच्चा अपनी तोतली बोली और प्यारी सी मुस्कान से किसी पत्थर का भी दिल पिघला सकता है, उसे ही देख कर किसी के मन में शैतानियत जागी तो कैसे..? किस तरह के कपडे रहे होंगे वो, न जाने कैसे हाव भाव? अब कहाँ हैं वो लोग जो हमारे कपड़ों को दोष देते थे. घड़ी की सुइयों से नापते थे हमारे चाल चलन को. हमारे सिगरेट और शराब पीने की तरफ उँगलियाँ उठाते थे. क्यूँ चुप हो गये वो?

सत्ताधारी लोग जिन्हें हमारा रक्षक होना चाहिए, वो ही भक्षक बने बैठे हैं. कभी ख़त्म नहीं होती उनकी भूख. भंवरी से लेकर मधुमिता और अब छोटी छोटी बच्चियां जिन्होंने ठीक से समझा भी न होगा अपने स्त्रीपन को. कुछ लोग कहते हैं जिन पर इलज़ाम लगा है वो दोषी नहीं हैं. कुछ अभियुक्तों और पीड़ितों के जाति धर्म को लेकर बवाल मचाने में लगे हैं तो कुछ को लगता है कि किसी की माँ बहन को गलियां देकर वो अपना फ़र्ज़ पूरा कर रहे हैं. ये सारे लोग ये भूल गये हैं कि अत्याचारी का कोई धर्म नहीं होता और जिस दर्द से वो बच्चियां और उनके अभिभावक गुज़रे हैं उसकी टीस कभी कम नहीं होगी.

 हम कहते हैं कि हर बेटी को फूलन और लक्ष्मी बाई होना चाहिए. आवाज़ उठानी चाहिए, हथियार चलाना चाहिए. पर हम ये क्यूँ भूल जाते हैं कि ऐसा करने के लिए भी तैयारी और परिपक्वता की ज़रुरत है. यहाँ तो हम उन्हें होश सँभालने तक की भी मुहलत नहीं दे रहे. क्या हो गया है हमारे समाज को, हमारी व्यवस्था को, हमारे लोगों को और उनकी सोच को. पहले तो हम कहा करते थे ‘क्या आपके घर में माँ बहन नहीं है?’ पर जिस समाज के लोग अपनी ही बहन बेटियों की इज्ज़त तार तार कर चुके हैं, उन्हें अब कहें भी तो क्या?

हे ईश्वर ये सारे किस्से तो उन बलात्कारों के हैं जो शरीर पर किये गये. लेकिन किसी के मन और आत्मा को छलनी करने वाले बलात्कार का क्या? उन ज़ुबानों का क्या जिनकी धार से किसी की भी इज्ज़त के आंचल को मैला किया जा सकता है. उन लोगों का क्या जो किसी भी औरत पर सिर्फ इसलिए उँगलियाँ उठाते हैं क्यूंकि वो औरत है. देर रात तक दफ्तरों से घर लौटने वाली, अपना घर बसाने की जगह खुद बनाने वाली, अपने सपनों के साथ समझौता न करने वाली और न जाने कितनी सारी स्त्रियाँ जिनका एकमात्र अपराध ये है कि वो स्त्रियाँ हैं. बस एक शब्द लगता है उनकी सारी मेहनत, सारी उपलब्धियों पर पानी फेरने में. पर हम भी हार नहीं मानेंगे. अपने सपनों से समझौता नहीं करेंगे. इस समाज और इसकी रवायतों के आगे सर नहीं झुकायेंगे. करने दो तुम्हारे समाज को जो करना है. अगर किसी के मासूम हाथों में हथियार उठाने की ताक़त न हो, तो हम खुद उसके लिए हथियार उठाएंगे.

Saturday 14 April 2018

प्यार के लिए


अध्याय १२ 

हे भगवान्

प्यार करने के लिए कितनी सज़ा मुक़र्रर है, बता दो कि मैं एक बार में काट लूँ. बार बार का ये निर्वासन अब मुझसे नहीं झेला जाता. अगर तुम मुझ से प्यार करती हो....’विश्वास नहीं है’ ने क्या कम आतंक मचाया था जो ये नया शिगूफा छेड़ दिया. 

हाँ, मेरे ईश्वर मैं उसे बहुत प्यार करती हूँ. बेइंतहा प्यार करती हूँ, उसी की ख़ुशी और सलामती की दुआएं मांगती हूँ. इंतज़ार कर रही हूँ उस पल का जब उसके सपने पूरे होंगे, वो अपने पैरों पर खड़ा होगा. अब आप पूछोगे कि ये कड़वाहट किसलिए? क्यूँ है मुझे इतनी नाराजगी. नाराजगी मेरी कभी भी उस पर नहीं थी, भगवान्. ये आपको भी पता है. नाराज़गी तो इस बात की है कि वो मुझे अपनी प्रेरणा नहीं, अपने रस्ते का रोड़ा मानता है. मैंने उसके साथ थोडा वक़्त बिताना चाहा था, ये नहीं कि मेरे पीछे वो अपना वक़्त बर्बाद करे.

नाराज़गी इस बात की भी कि वो मुझे अपना नहीं सकता. जो आज मेरी इतनी फिक्र करता है, कल उसे शायद पता भी नहीं होगा कि मैं दुनिया के किस कोने में, किस हाल में हूँ! मेरे साथ आने वालों ने हमेशा यही तो किया है. मुझे छोड़ का आगे बढ़ जाना तुम्हारी दुनिया की आदत है. इसलिए तो कहा है किसी ने:

“तुझको भी जब अपनी कसमें, अपने वादे याद नहीं. 
हम भी अपने ख्वाब तेरी आँखों में रख कर भूल गये.”
किसी को क्या फर्क पड़ता है अगर मेरे सपने उससे जुड़ जाएँ.

कभी कभी भूल जाना ही अच्छा होता है. जितने भी लोग जीने के गुर सिखाते हैं सब इसी पलायनवादी मानसिकता को ही प्रश्रय देते हैं. ‘भूल जाओ, जाने दो, माफ़ कर दो, अपना रास्ता देखो....’ इन्सान को सामाजिक प्राणी कहने वालों ने उसे हमेशा ‘एकला चलो’ ही सिखाया है. मैंने भी तो अकेले ही तय किया है ये लक्ष्य प्राप्ति का सफ़र. कोई न राह बताने वाला था, न थक जाने पर राह सुझाने वाला. आपका इतना शुक्रिया तो अदा ही कर दूँ कि कभी अँधेरे में तीर नहीं चलाया. पता था किस मछली की आंख को भेदने के लिए धनुष उठाया है.

एक बार जो उसके सपने पूरे हो गये, फिर वो खो जायेगा अपनी दुनिया में.  फिर भी मैं दिल से यही चाहती हूँ कि उसके सपने पूरे हों. वो कामयाब बने, उसकी काबिलियत का लोगों को एहसास हो. सब उस पर उतना ही गर्व करें जितना मैं आज करती हूँ. सब उसकी उतनी ही इज्ज़त करें जितनी मेरे मन में उसके लिए है. सब उसके अन्दर छिपे उस इंसान को जानें पहचानें जिसे जान कर मैंने सर झुका दिया है उसके आगे. हे भगवान्, उसे सफल बना दो, सुरक्षित रखो, प्यार करो. उसका वो अकेलापन दूर कर दो जो उसकी आँखों में नज़र आता है मुझे. और उसे ये समझा दो कि उसकी ख़ुशी और उसके साथ के अलावा मैंने कुछ नहीं चाहा. मुझे उसकी ख़ुशी चाहिए भगवान्, पर उसमें अपना हिस्सा भी चाहिए. उसकी अच्छी ज़िंदगी चाहिए, पर उस ज़िंदगी में अपनी जगह भी चाहिए.

मुझ पर कभी कभी बहुत दबाव पड़ता है, ईश्वर. कभी रिश्ता तोड़ने का कभी नये रिश्ते बनाने का. पर मैं किसी दबाव में विश्वास नहीं करती. मैं सिर्फ आप पर विश्वास करती हूँ. पूरा विश्वास करती हूँ और जानती हूँ कि आप जो करेंगे अच्छा करेंगे. मेरी आत्मा का एक हिस्सा कहीं खो गया है, मैं कहीं खो गयी हूँ. जब तक वो वापस नहीं आता, मैं भी नहीं आ पाउंगी. मुझे वापस ला दो भगवान्, प्लीज.

आपकी दुनिया मेरे जैसे लोगों को स्वार्थी कहती है क्यूँकि हम किसी की ख़ुशी के लिए अपनी आत्मा की हत्या नहीं करते. किसी के सुकून के लिए अपने अरमान नहीं कुचलते. इसलिए भगवान तुन्हारे लोगों को बड़ी ख़ुशी होती है जब हमारे सपने टूटते हैं. इसी बात पर हम भी वादा करते हैं: कितने भी सपने टूटें हमारे, हम कभी नहीं टूटेंगे क्यूंकि न जाने कितने अरमान हमारे आपने ही पूरे किये हैं. आपने हमें दिल खोल कर दिया है, बहुत दिया है. और हम आपका शुक्रिया करते हैं.

शुक्रिया कि आपने मेरी ज़िंदगी में उसके जैसा इन्सान लाया. वो जो न गलती करता है, न गलत बात बर्दाश्त करता है. वो जो हर एक के साथ इंसाफ करता है. वो जिसे सही गलत की पहचान बड़ी बारीकी से है. हे ईश्वर, उसे सुकून दे दो, मेरे हिस्से का भी. मैं चाहती हूँ की उसकी मेहनत रंग लाये, उसे वो सब कुछ मिले जिसका वो हक़दार है. प्लीज मेरी प्रार्थना स्वीकार करो. जिस तरह आपने मुझे मेरे सही मुकाम तक पहुंचा दिया, उसे भी पहुंचा दो. उसके धैर्य की और परीक्षा मत लो. हे भगवान, उसे वो सुकून दो जो मैंने उसके नज़दीक आकर महसूस किया. एक बार उसे विश्वास करने का हौसला दो और मुझे उसका विश्वास बना कर रखने की ताक़त दो.हम दोनों ही बहुत थक गये हैं, अब हमारे सफ़र को थोडा सा विराम दे दो. 


Tuesday 10 April 2018

एक आरक्षण ऐसा भी....


अध्याय ११ 

हे ईश्वर

आजकल आरक्षण के समर्थन और विरोध का चारों तरफ इतना शोर मच रहा है. सोचती हूँ मैं भी कुछ कहूँ..
क्या होता है आरक्षण? किसी के लिए जगह घेरना. जैसे कोई बस में एक रुमाल रख कर कह देता है कि सीट उसकी है. या जैसे कोई पहले से बैठा हो और उठने से पहले ही तय कर ले कि उसकी जगह कौन अब उस जगह पर बैठेगा. आर्थिक स्तर और काबिलियत के अनदेखा किये जाने के इल्जामों से घिरे कुछ लोग इसे अपना हक बताते हुए सड़कों पर उतरे हैं. कुछ इनके विरोध में भी उतर आए हैं. आरोप-प्रत्यारोप का दौर, गाली  गलौज और हिंसा के इस दौर में असली बात तो सब भूल ही गए. ऐसा क्या कारण था कि कुछ लोगों को प्रगति की सीट पर ये आरक्षण का रुमाल रखने की ज़रूरत पड़ी? क्यूँ? कौन थे वो लोग जिन्होंने उनकी प्रगति के रस्ते में रोड़े अटकाए थे? थे तो सब अपने ही – देश भी और देश के लोग भी. फिर क्या कारण था कि एक को दूसरे से खुले मुकाबले के बजाए इस तरह आड़ में छुप कर गोलियां चला रहे हैं, पत्थर बरसा रहे हैं..

क्यूँ आपस में बात नहीं करते लोग? पर कैसे करेंगे... एक वर्ग है जो आज भी ज़मीन में पड़े लोगों का अतीत वापस लाना चाहता है. एक वर्ग है जो आसमान में रहने वाले को ज़मीन में जनम लेने की हकीकत से वाकिफ कराना चाहता है. ये सच है कि काबिलियत का सम्मान होना चाहिए. पर इंसानियत की भी इज्ज़त लोगों को रखनी चाहिए. दोनों में से किसी ने भी अपना फ़र्ज़ नहीं निभाया.

ये तो हुई देश दुनिया की बात. अब अपनी बात करती हूँ:

याद है आपको जब आपने कहा था , ‘अपनी बिरादरी में प्यार करना चाहिए था तुम्हें.’ सोच समझ कर सिर्फ सौदा किया जा सकता है मेरी जान, प्यार नहीं. प्यार तो मैंने किया उस इन्सान से जिसने बिना कहे समझ ली थी मेरी तकलीफ. उस इन्सान से जिसने मेरे शब्द नहीं मेरी ख़ामोशी पढना सीखा था. उस इन्सान से जिसका कोई स्वार्थ नहीं है किसी की मदद करने के पीछे. उस इन्सान से जो दुनिया को लात मार कर जीना जानता है. मैंने प्यार किया उस इन्सान से जिसने किसी के आगे कभी सर नहीं झुकाया. उस इन्सान से जिसमें इफरात हिम्मत है, सहनशीलता है, धैर्य है, परवाह है. जो खुद बिखर सकता है पर अपनों को समेट कर रखता है. जिसने अपने लिए कुछ रखा ही नहीं. सब कुछ अपनों के लिए है उसका. वो जिसने तेरा और मेरा का फर्क ही मिटा दिया. इसलिए जब सपने तोड़े तो मैंने पूछा ही नहीं कि सपने तेरे थे या मेरे?

पर अब लगता है कि इन सपनों का भी होना चाहिए था आरक्षण. कोई तो मेरे प्यार की सीट पर भी रख देता एक भरोसे का रुमाल. तो शायद आज इनकी किरचें मेरी आँखों में नहीं चुभतीं. आरक्षण होता मेरे विश्वास का तो उस पर आंच नहीं आती. आरक्षण होता अगर जनम लेने वाले पल का तो ग्रह नक्षत्र, जात बिरादरी और साल वाल देख भाल कर ही पैदा होती मैं. आरक्षित रखती एक सीट तुम्हारे जीवन में अपने लिए. पर कोई नहीं. मेरे लिए नहीं बना कोई आरक्षण. मेरे लिए बस ये सफ़र ही बना है, कोई मंजिल नहीं.

पर आज भी भगवान् मेरा विश्वास जिंदा है. एसिड का शिकार लड़की को जीवनसंगिनी बनाने वाले लोग , दो अलग अलग धर्मों के होकर भी एक दूसरे को स्वीकार करने वाले लोग, दो दुश्मन देशों के नागरिक होकर भी एक दूसरे से प्रेम करने वाले लोग, न्याय के लिए आवाज़ उठाने वाले लोग और भी न जाने कितने लोग...जो छोटी ही सही पर एक लड़ाई लड़ते हैं सत्य के लिए...ऐसे सारे लोग जब तक हैं, तब तक मेरा विश्वास जिंदा है, मेरे सपने सुरक्षित हैं. और उन्हें और मुझे भी किसी आरक्षण की ज़रूरत नहीं. आज नहीं, कल नहीं, कभी नहीं.

Saturday 7 April 2018

कभी नहीं सुधरोगी !!

अध्याय १०

हे भगवान्

अभी कुछ ही दिन पहले मैंने आपसे प्रार्थना की थी कि उसे लौटा दो. आपने लौटा भी दिया और मैंने क्या किया? वापस वही सारे सवाल जवाब!! पर क्या करूँ? मुझे मेरे जवाब कौन देगा? किसे पूछूं मैं? मेरी दुआ का असर नहीं, प्यार का एहसास नहीं, मेरे दर्द की परवाह नहीं...जो मेरी जान है उसके लिए मैं सिर्फ जान पहचान हूँ! मुझे प्यार करने वाला कौन है? कोई है भी या नहीं? उसका कहना है कि समुद्र में लहरें उठती हैं पर अन्दर क्या-क्या समाया होता है कोई नहीं जानता. जानती हूँ इसलिए तो सर नहीं झुकाती तुम्हारे समाज की रवायतों के आगे. नहीं स्वीकारती नकली रिश्ते में रहने की मजबूरी को. मेरे ईश्वर मेरा रिश्ता आपके समाज ने नहीं मेरे दिल ने बनाया. कहते हैं जहाँ प्रेम होता है वहां आप होते हैं. तो फिर भगवान्, आपकी दुनिया के लोग इतनी शिद्दत से आपको क्यूँ बाहर निकालना चाहते हैं? मर्यादा है तो प्रेम की मर्यादा की रक्षा क्यूँ नहीं करते आप? क्यूँ है इतनी मजबूरी आपकी दुनिया में? कहाँ से लाये हो ये चलती फिरती लाशों का झुण्ड? हर कोई एक मरी हुई ज़िंदगी जी रहा है. अपने अरमानों का बोझ अपने कंधे पर ढो रहा है. आपकी तरफ देखता है तो सब्र का पाठ पढ़ाया जाता है. जबकि आप तो हमेशा कर्म की महिमा और उद्यमशीलता को प्रश्रय देते हैं. हे ईश्वर कहते हैं कर्म से भाग्य बदल जाता है. भाग्य में विद्या की रेखा न होते हुए भी पाणिनि को आपने प्रकांड विद्वान बनाया. तो फिर क्यूँ किसी की जीवनसंगिनी नहीं बन सकती मैं?

 मेरे ईश्वर प्यार को ऐसा बेबस क्यूँ बनाया आपने? प्यार तो ताक़त होता है, वो कबसे इतना कमज़ोर हो गया? जिस प्यार से जुदा होकर मर जाने का लोग दम भरा करते थे आज उसी के बिना जीना आपकी दुनिया का चलन हो गया है. असंभव को भी संभव करने वाले आप ही तो हैं. तो हाथ क्यूँ नहीं रखते अपनी संतानों के सर पर? कहते क्यूँ नहीं कि आप हमारे साथ हैं. किसी की ख़ुशी के लिए कोई आग लगा देता है अपने अरमानों को! और लोग उस पर हाथ सेंकते हैं. फ़र्ज़ है तो क्या अपने प्रेम के प्रति आपका कोई फ़र्ज़ नहीं? जो रिश्ता बेनाम होकर भी सबसे अहम् हो जाता है, उसे ही सबके सामने अपमानित होते देखकर भी चुप रहते हैं तुम्हारे लोग. कुछ तो तरह तरह के तर्क भी देते हैं. ‘बाद में सब कुछ ठीक हो जाता है’ एक बात बताओ न ईश्वर.. जब शरीर का कोई अंग कट जाये तो हम उसके बिना जीना सीख जाते हैं. ऐसा करने से क्या अंग न होने का एहसास ख़त्म हो जाता है? तो फिर अपनी आत्मा का एक टुकड़ा अपने से अलग करके भी तो हम जीना सीख जाते हैं. इससे हमारा दर्द तो कम नहीं हो जाता! क्यूँ देते हो ऐसा दर्द हमें?

आपने इन्सान बनाये और इन्सान ने रवायतें. और आज उसके लिए रवायतें ही सब कुछ हैं. इन्सान का और उसके जीवन का कोई मोल नहीं. और हम भी रीत रिवाज़ और संस्कार के नाम पर पिसते रहें. तभी तो आपकी दुनिया हमें सच्चरित्र कहेगी. नहीं कहलाना मुझे. आप तो जानते हो मैं सही हूँ. सच का रास्ता आसान कब हुआ है? मेरा भी आसान तो नहीं. पर सही रखना भगवान. तुम्हारी दुनिया के लोगों को तर्क भी बड़े आते हैं. ‘आज इसके कल उसके हो जाओगे’ तो ऐसे कहते हैं जैसे इनके बनाये रिश्ते बड़े मज़बूत होते हैं. हर पर्दे के पीछे इनके बनाये रिश्तों की सच्चाई दिखाई देती है. ये भी कि प्यार करके आप अपनी जिम्मेदारियां भूल जाते हैं. हे ईश्वर प्यार खुद अपने आप में बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी होती है. और सच्चा प्यार हमेशा आपको प्रेरणा ही देता है. सबसे खतरनाक वाला जानते हैं ‘पा लेना ही प्यार नहीं होता’ – और क्या उम्मीद करूँ बिना लड़े हार जाने वालों से.  

मेरे ईश्वर प्यार की भी बना दो न ऐसी पक्की रवायतें, कि कोई उन्हें तोड़ न सके. कोई अपने प्यार को मजबूरी के चलते बलि न दे दे.

Wednesday 4 April 2018

तेरे निशान


अध्याय ९

हे भगवान्

मुझसे इतनी भयानक गलती क्यूँ हुई, कैसे हो गई? मैंने क्या कुछ कहा उसे!! सच कड़वा होता है कहने वाले कड़वे सच की एक घूँट भी बर्दाश्त नहीं कर सके. अब समझ आया मुझे कि मैंने अपनी ज़िन्दगी में इतना धोखा खाया क्यूँ? मुझमें सच बोलने की ताक़त और हिम्मत ही नहीं. जब भी मैं किसी को एहसास दिलाने की कोशिश करती हूँ अपनी तकलीफ का, मैं खुद उसकी तकलीफ में डूब जाती हूँ. मुझे नींद नहीं आई कल पूरी रात. मेरे सारे ज़हर बुझे शब्द, मेरे कानों में पिघले सीसे की तरह उतरते रहे. इससे तो अच्छा होता वो उस दिन आता ही नहीं. कम से कम उसे इतना दुःख तो नहीं होता. मुझे माफ़ कर दो भगवन. मैंने उस इन्सान का दिल दुखाया जिसे मैंने अपनी दुनिया माना, जिसके आगे सर झुकाया, जिसकी हमेशा इज्ज़त की. आज मैंने उसको ऐसे धिक्कारा की एक पल के लिए मुझे खुद भी अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ. आखिर क्या गलती थी उसकी?

कांच के जैसा खूबसूरत सा रिश्ता, आज मैंने उसमें दरार डाल दी. पर अब भी वो मेरी उतनी ही फिक्र करता है, मुझसे उतना ही प्यार करता है, मुझे उतनी ही इज्ज़त देता है. बस बराबरी नहीं देता. यही था न भगवान्, मेरे किसी से बात करने पर मुझे क्या कुछ सुना दिया था. कितने सारे इलज़ाम लगाये थे सिर्फ इसलिए कि मैंने किसी से सिर्फ बात की थी. आज वही मुझसे कहता है, मै सिर्फ घूमने ही तो गया था. ये सिर्फ न बड़ा ही खतरनाक लफ्ज़ है! कुछ भी कर के लोग उसके आगे सिर्फ की तलवार लटका देते हैं. किसी ने सिर्फ मुझसे अपने शादीशुदा होने की बात ही तो छुपाई थी. ऐसी भी क्या बड़ी गलती कर दी? तो क्या हुआ अगर उसके सच बताने तक बहुत देर हो चुकी थी. वो मेरे दिल दिमाग में घर कर चुका था. मेरी सारी उम्मीदें उससे जुड़ चुकी थीं. सिर्फ मेरे सारे सपने ही तो टूटे थे. और हुआ ही क्या था. सिर्फ मेरा आत्मविश्वास ही तो तोड़ा था उसने मुझे ये एहसास दिला कर कि मैं किसी के एकनिष्ठ प्यार के लायक ही नहीं. उस पल के बाद भगवान्, मैंने सपने देखना ही छोड़ दिया. मेरी सच्चरित्र रहने की इच्छा ही मर गई.बस तभी ऐसा हुआ था की अपनी कमतरी के एहसास में कुछ इस तरह डूब गई मैं कि मैंने आधे अधूरे मिले हुए हर प्रतिदान को ही अपनी नियति मान लिया.

कितना समझाते हैं मेरे लोग मुझे. कितना कहते हैं कि तुम ख़ास हो, तुम अपने आपको पहचानो, अपने आप को समझो, प्यार करो. पर मेरे मन में खुद के लिए ज़हर ही ज़हर भरा है. मैं अपनी हर चीज़ से नफरत करती हूँ. अपने प्रति अतिशय क्रूर भाव से पेश आती हूँ. यही सच है. इसलिए जो मुझे प्यार करता है वो मुझे एक आंख नहीं भा रहा. मै नहीं जानती कल के बाद हमारा रिश्ता कैसा होगा. पर इतना जानती हूँ कि गलती उसकी नहीं थी. उसने तो कभी न सोचा होगा कि उसे सर आँखों पर बिठाने वाली ये लड़की उसे इस तरह गिरा भी सकती है. मेरा इतना प्यारा रिश्ता दरका कर अब शांत हुआ है मेरा अंतर्मन. मुझे रोते देख कर मुझे चैन सा आ गया. पता नहीं क्यूँ मेरा हँसता हुआ चेहरा खुद मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा था. अब जो फूट फूट कर रोई हूँ तो लगा कि यही होना चाहिए था मेरे साथ.
पर भगवान् अब जानते हो क्या होगा? अब फिर एक बार भीख मांगूंगी की वो वापस आ जाए. एक बार फिर घुटने टेक कर माफी मांगूंगी अपनी सारी गलतियों की. जानती हूँ कि तौबा करुँगी अपने गुनाहों की. एक गलती करके मुझे इस तरह महसूस हो रहा है. न जाने कैसे तुम्हारी दुनिया के लोग न जाने कितनी गलतियाँ करते हैं और फिर भी कितने सुकून से रहते हैं. बिना ग्लानि के जीते हैं. चैन की नींद सोते हैं. मैं तो साँस भी ठीक से नहीं ले पा रही.

मेरे ईश्वर! उसे अब भी उतनी ही परवाह है मेरी. वरना वो मुझसे पूछता नहीं कभी भी. मैंने इसे इतना दुःख दिया फिर भी मेरे लिए फिक्र करने से बाज़ नहीं आता वो. माँ कहती हैं कि सिर्फ पत्नी को ये हक होता है कि वो अपने पति पर लगाम लगा सके. पर प्यार के अपने तर्क होते हैं, अपने कुछ अधिकार. मेरा इतना अधिकार तो उस पर रहेगा ही. ईर्ष्या ने मेरे घर में आग लगा दी है भगवान्, मेरी मदद करो इसे बुझाने में. प्लीज भगवान्. मुझे ज़रा भी चैन नहीं आ रहा है. पता नहीं कब सब ठीक होगा. पर इतना विश्वास तो है कि सब ठीक हो जायेगा. जल्दी ही. मेरी मदद करो भगवन.  उसे कह दो मुझे माफ़ कर दे.

किस किनारे.....?

  हे ईश्वर मेरे जीवन के एकांत में आपने आज अकेलापन भी घोल दिया। हमें बड़ा घमंड था अपने संयत और तटस्थ रहने का आपने वो तोड़ दिया। आजकल हम फिस...