Saturday, 7 April 2018

कभी नहीं सुधरोगी !!

अध्याय १०

हे भगवान्

अभी कुछ ही दिन पहले मैंने आपसे प्रार्थना की थी कि उसे लौटा दो. आपने लौटा भी दिया और मैंने क्या किया? वापस वही सारे सवाल जवाब!! पर क्या करूँ? मुझे मेरे जवाब कौन देगा? किसे पूछूं मैं? मेरी दुआ का असर नहीं, प्यार का एहसास नहीं, मेरे दर्द की परवाह नहीं...जो मेरी जान है उसके लिए मैं सिर्फ जान पहचान हूँ! मुझे प्यार करने वाला कौन है? कोई है भी या नहीं? उसका कहना है कि समुद्र में लहरें उठती हैं पर अन्दर क्या-क्या समाया होता है कोई नहीं जानता. जानती हूँ इसलिए तो सर नहीं झुकाती तुम्हारे समाज की रवायतों के आगे. नहीं स्वीकारती नकली रिश्ते में रहने की मजबूरी को. मेरे ईश्वर मेरा रिश्ता आपके समाज ने नहीं मेरे दिल ने बनाया. कहते हैं जहाँ प्रेम होता है वहां आप होते हैं. तो फिर भगवान्, आपकी दुनिया के लोग इतनी शिद्दत से आपको क्यूँ बाहर निकालना चाहते हैं? मर्यादा है तो प्रेम की मर्यादा की रक्षा क्यूँ नहीं करते आप? क्यूँ है इतनी मजबूरी आपकी दुनिया में? कहाँ से लाये हो ये चलती फिरती लाशों का झुण्ड? हर कोई एक मरी हुई ज़िंदगी जी रहा है. अपने अरमानों का बोझ अपने कंधे पर ढो रहा है. आपकी तरफ देखता है तो सब्र का पाठ पढ़ाया जाता है. जबकि आप तो हमेशा कर्म की महिमा और उद्यमशीलता को प्रश्रय देते हैं. हे ईश्वर कहते हैं कर्म से भाग्य बदल जाता है. भाग्य में विद्या की रेखा न होते हुए भी पाणिनि को आपने प्रकांड विद्वान बनाया. तो फिर क्यूँ किसी की जीवनसंगिनी नहीं बन सकती मैं?

 मेरे ईश्वर प्यार को ऐसा बेबस क्यूँ बनाया आपने? प्यार तो ताक़त होता है, वो कबसे इतना कमज़ोर हो गया? जिस प्यार से जुदा होकर मर जाने का लोग दम भरा करते थे आज उसी के बिना जीना आपकी दुनिया का चलन हो गया है. असंभव को भी संभव करने वाले आप ही तो हैं. तो हाथ क्यूँ नहीं रखते अपनी संतानों के सर पर? कहते क्यूँ नहीं कि आप हमारे साथ हैं. किसी की ख़ुशी के लिए कोई आग लगा देता है अपने अरमानों को! और लोग उस पर हाथ सेंकते हैं. फ़र्ज़ है तो क्या अपने प्रेम के प्रति आपका कोई फ़र्ज़ नहीं? जो रिश्ता बेनाम होकर भी सबसे अहम् हो जाता है, उसे ही सबके सामने अपमानित होते देखकर भी चुप रहते हैं तुम्हारे लोग. कुछ तो तरह तरह के तर्क भी देते हैं. ‘बाद में सब कुछ ठीक हो जाता है’ एक बात बताओ न ईश्वर.. जब शरीर का कोई अंग कट जाये तो हम उसके बिना जीना सीख जाते हैं. ऐसा करने से क्या अंग न होने का एहसास ख़त्म हो जाता है? तो फिर अपनी आत्मा का एक टुकड़ा अपने से अलग करके भी तो हम जीना सीख जाते हैं. इससे हमारा दर्द तो कम नहीं हो जाता! क्यूँ देते हो ऐसा दर्द हमें?

आपने इन्सान बनाये और इन्सान ने रवायतें. और आज उसके लिए रवायतें ही सब कुछ हैं. इन्सान का और उसके जीवन का कोई मोल नहीं. और हम भी रीत रिवाज़ और संस्कार के नाम पर पिसते रहें. तभी तो आपकी दुनिया हमें सच्चरित्र कहेगी. नहीं कहलाना मुझे. आप तो जानते हो मैं सही हूँ. सच का रास्ता आसान कब हुआ है? मेरा भी आसान तो नहीं. पर सही रखना भगवान. तुम्हारी दुनिया के लोगों को तर्क भी बड़े आते हैं. ‘आज इसके कल उसके हो जाओगे’ तो ऐसे कहते हैं जैसे इनके बनाये रिश्ते बड़े मज़बूत होते हैं. हर पर्दे के पीछे इनके बनाये रिश्तों की सच्चाई दिखाई देती है. ये भी कि प्यार करके आप अपनी जिम्मेदारियां भूल जाते हैं. हे ईश्वर प्यार खुद अपने आप में बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी होती है. और सच्चा प्यार हमेशा आपको प्रेरणा ही देता है. सबसे खतरनाक वाला जानते हैं ‘पा लेना ही प्यार नहीं होता’ – और क्या उम्मीद करूँ बिना लड़े हार जाने वालों से.  

मेरे ईश्वर प्यार की भी बना दो न ऐसी पक्की रवायतें, कि कोई उन्हें तोड़ न सके. कोई अपने प्यार को मजबूरी के चलते बलि न दे दे.

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