अध्याय ११
हे ईश्वर
आजकल आरक्षण के
समर्थन और विरोध का चारों तरफ इतना शोर मच रहा है. सोचती हूँ मैं भी कुछ कहूँ..
क्या होता है
आरक्षण? किसी के लिए जगह घेरना. जैसे कोई बस में एक रुमाल रख कर कह देता है कि सीट
उसकी है. या जैसे कोई पहले से बैठा हो और उठने से पहले ही तय कर ले कि उसकी जगह
कौन अब उस जगह पर बैठेगा. आर्थिक स्तर और काबिलियत के अनदेखा किये जाने के इल्जामों
से घिरे कुछ लोग इसे अपना हक बताते हुए सड़कों पर उतरे हैं. कुछ इनके विरोध में भी
उतर आए हैं. आरोप-प्रत्यारोप का दौर, गाली
गलौज और हिंसा के इस दौर में असली बात तो सब भूल ही गए. ऐसा क्या कारण था
कि कुछ लोगों को प्रगति की सीट पर ये आरक्षण का रुमाल रखने की ज़रूरत पड़ी? क्यूँ?
कौन थे वो लोग जिन्होंने उनकी प्रगति के रस्ते में रोड़े अटकाए थे? थे तो सब अपने
ही – देश भी और देश के लोग भी. फिर क्या कारण था कि एक को दूसरे से खुले मुकाबले
के बजाए इस तरह आड़ में छुप कर गोलियां चला रहे हैं, पत्थर बरसा रहे हैं..
क्यूँ आपस में बात
नहीं करते लोग? पर कैसे करेंगे... एक वर्ग है जो आज भी ज़मीन में पड़े लोगों का अतीत
वापस लाना चाहता है. एक वर्ग है जो आसमान में रहने वाले को ज़मीन में जनम लेने की
हकीकत से वाकिफ कराना चाहता है. ये सच है कि काबिलियत का सम्मान होना चाहिए. पर इंसानियत
की भी इज्ज़त लोगों को रखनी चाहिए. दोनों में से किसी ने भी अपना फ़र्ज़ नहीं निभाया.
ये तो हुई देश
दुनिया की बात. अब अपनी बात करती हूँ:
याद है आपको जब आपने
कहा था , ‘अपनी बिरादरी में प्यार करना चाहिए था तुम्हें.’ सोच समझ कर सिर्फ सौदा
किया जा सकता है मेरी जान, प्यार नहीं. प्यार तो मैंने किया उस इन्सान से जिसने
बिना कहे समझ ली थी मेरी तकलीफ. उस इन्सान से जिसने मेरे शब्द नहीं मेरी ख़ामोशी
पढना सीखा था. उस इन्सान से जिसका कोई स्वार्थ नहीं है किसी की मदद करने के पीछे.
उस इन्सान से जो दुनिया को लात मार कर जीना जानता है. मैंने प्यार किया उस इन्सान
से जिसने किसी के आगे कभी सर नहीं झुकाया. उस इन्सान से जिसमें इफरात हिम्मत है,
सहनशीलता है, धैर्य है, परवाह है. जो खुद बिखर सकता है पर अपनों को समेट कर रखता
है. जिसने अपने लिए कुछ रखा ही नहीं. सब कुछ अपनों के लिए है उसका. वो जिसने तेरा
और मेरा का फर्क ही मिटा दिया. इसलिए जब सपने तोड़े तो मैंने पूछा ही नहीं कि सपने
तेरे थे या मेरे?
पर अब लगता है कि इन
सपनों का भी होना चाहिए था आरक्षण. कोई तो मेरे प्यार की सीट पर भी रख देता एक
भरोसे का रुमाल. तो शायद आज इनकी किरचें मेरी आँखों में नहीं चुभतीं. आरक्षण होता
मेरे विश्वास का तो उस पर आंच नहीं आती. आरक्षण होता अगर जनम लेने वाले पल का तो
ग्रह नक्षत्र, जात बिरादरी और साल वाल देख भाल कर ही पैदा होती मैं. आरक्षित रखती
एक सीट तुम्हारे जीवन में अपने लिए. पर कोई नहीं. मेरे लिए नहीं बना कोई आरक्षण. मेरे
लिए बस ये सफ़र ही बना है, कोई मंजिल नहीं.
पर आज भी भगवान् मेरा
विश्वास जिंदा है. एसिड का शिकार लड़की को जीवनसंगिनी बनाने वाले लोग , दो अलग अलग
धर्मों के होकर भी एक दूसरे को स्वीकार करने वाले लोग, दो दुश्मन देशों के नागरिक
होकर भी एक दूसरे से प्रेम करने वाले लोग, न्याय के लिए आवाज़ उठाने वाले लोग और भी
न जाने कितने लोग...जो छोटी ही सही पर एक लड़ाई लड़ते हैं सत्य के लिए...ऐसे सारे
लोग जब तक हैं, तब तक मेरा विश्वास जिंदा है, मेरे सपने सुरक्षित हैं. और उन्हें और
मुझे भी किसी आरक्षण की ज़रूरत नहीं. आज नहीं, कल नहीं, कभी नहीं.
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