अध्याय १४
‘मेरे बाद कोई नहीं
आएगा’ ये ही वादा लिया है तुमने मुझसे. पूछा था क्या कारण है जो मैं खुद से प्यार
नहीं करती, अपनी इज्ज़त नहीं करती, अपने आप को खुश देखना नहीं चाहती. मैं क्या
चाहती हूँ क्या नहीं ये सोचने की फुर्सत कहाँ थी मुझे आज तक. आज तुमने कहा तो
सोचने पर मजबूर हो गई कि मै आखिर चाहती क्या हूँ इस रिश्ते से या किसी भी रिश्ते
से! मैं चाहती हूँ किसी का एकनिष्ठ प्यार, मेरे लिए किसी की परवाह, मुझ पर और मेरी
उपलब्धियों पर किसी की आँखों में मेरे लिए फख्र. महज़ इतने पर ही संतुष्ट नहीं होता
मेरा मन. वो तो चाहता है कि उस इन्सान में दुनिया, समाज और मेरे अपनों के सामने
मुझे अपनाने की हिम्मत हो. पर मेरी वो उम्मीद आज तक अधूरी है. इसलिए मैंने अपने
आपको यही समझा लिया कि मैं किसी के एकनिष्ठ प्यार के लायक ही नहीं.
आज तुम कहते हो कि
हमेशा साथ दोगे मेरा. पर इस हमेशा की उम्र कितनी है? मैं न रह कर भी रहूँगा. ऐसा
कहने से पहले सोच लो एक बार. जब सात फेरे ले लोगे तो उलझ जाओगे उसी ज़िन्दगी में.
फिर इस रिश्ते को निभाना बोझ लगने लगेगा तुम्हें. तब कहाँ जाएगा ये साथ और क्या
होगा हमारा रिश्ता. खैर!! पता नहीं क्यों तुमसे मिल कर अच्छा लगा, अच्छा बनने का
मन हुआ. तुम कहते हो कि हमारी डोर हमारे हाथ में नहीं है. तो आज मैं भी कहती हूँ
विधाता से. एक बार बता दे कि सही दिशा कौन सी है और मोड़ दे मुझे उधर. तुमने दिखाया
तो है मुझे रास्ता. अब इस रस्ते पर चलने की हिम्मत भी दे दो.
मैं अपने आप से
प्यार नहीं करती – क्यूँ? कैसे करूँ उस इन्सान से प्यार जिसे कोई प्यार नहीं करता.
तुम जानते ही नहीं मैं वो इन्सान हूँ जिसके एक छोटे से किताबों के शौक ने उसके
जानने वालों की नींदें उड़ा रख हैं. लोग सोचते हैं ज्यादा पढने लिखने वाले लोग
दुनियादारी नहीं जानते. मैं जानती हूँ पर मैं इस दुनिया के दोगलेपन को भी अच्छी
तरह पहचानती हूँ. और फिर भी विश्वास करती हूँ कि कोई तो होगा जो दोगला नहीं होगा.
कोई होगा जो मुझे अपने फायदे के लिए नहीं मेरे साथ के लिए पसंद करेगा. कोई होगा जो
मेरे ऊपर लगे इन तरह तरह के इल्जामों से परे हटकर मुझे जानना चाहेगा. कोई तो...
तुमने मेरे लिए ये कोशिश की है. तुमने पहचाना है मुझे. हौसला तो दिया है पर ये
हौसला भी कब तक. पता नहीं. पर वादा किया है तो वादे की कद्र तो करनी होगी.
मैं अपनी इज्ज़त नहीं
करती – ये सच है. मैं खुद से इतनी नफरत करती हूँ कि बौखला जाती हूँ कुछ अच्छा होता
है तो. मैंने अपने करीबियों की नजरों में कभी अपने लिए इज्ज़त नहीं देखी. देखा तो
हसद या फिर हिकारत. भीख में नहीं मिली ये सारी नियामतें मुझे. मैंने बेहद मेहनत की
है, बड़ी सारी कुर्बानियां दी हैं. इसलिए आज इस मक़ाम पर हूँ. लोगों को तो लगता है
मेरे जैसे लोगों के कोई उसूल नहीं होते. या आज हम सुकून की ज़िन्दगी जी रहे हैं तो कल
या आज हमारी ज़िंदगी में कोई दुश्वारी है ही नहीं. वो नहीं जानते कि मैं हर दिन जूझती
हूँ दुनिया से. कभी अपनी जगह बनाने के लिए तो कभी अपनी जगह बचाए रखने के लिए. लोग
मेरा संघर्ष नहीं देखते, देखते हैं तो केवल विजय. जो लोग मेरी ज़िंदगी का हिस्सा
नहीं हैं, वही करते हैं ऐसे अनर्गल प्रलाप. जो मेरे करीब हैं...मेरे इतने करीब आज
तक आया ही नहीं कोई कि समझ सके मुझे. मैं जानती हूँ मेरे अतीत से जुड़े किसी भी
इन्सान ने ये पढ़ लिया तो यही कहेगा ‘मैं था तुम्हारे करीब.’ पर सच यही है मैं आज
तक किसी के साथ रह कर भी हमेशा अकेली ही हूँ.
हे ईश्वर इतने बरसों
से ढून्ढ रही हूँ, अपनी आत्मा का वो एक हिस्सा जो आप ने न जाने कहाँ छुपा दिया.
मैं अधूरी हूँ और यही अधूरापन ही मेरी बेचैनी का कारण है. किसी से जुड़ भी जाऊं तो
वो मेरे पास टिकता नहीं है और मेरी आत्मा पहले से ज्यादा अकेली और उदास हो जाती
है. कस्तूरी की तरह जो खोज रही हूँ बाहर वो शायद मुझमें ही है. जानती मैं सब हूँ,
फिर भी.
ऐसा नहीं है कि आज
जो सवाल आपने मुझसे किये वो मैंने कभी अपने आप से नहीं पूछे. न जाने कितनी बार
पूछे हैं, कितनी बार समझाया भी है खुद को. दूध के जले छाछ को भी फूँक कर पीते हैं.
पर जिसने एक बार काजल की कोठरी में पांव धर दिया उसे बाहर का रास्ता मिल भी गया तो
कालिख तो लग ही जाती है. कौन छुड़ाए ये कालिख! आपकी ही दुनिया ने तो समझाया है मुझे
कि मेरे जैसे लोगों के लिए भलाई इसी में है कि कालिख को ही अपना असली रंग मान कर
अपना लें. आपके सफेदपोश बगला भगत जो आज मुझ पर उँगलियाँ उठाते हैं, चोरी छिपे यही
चाहते हैं कि उन्हें मेरी ज़िंदगी जीने का मौका मिले. मैं क्या थी भगवान् और क्या
हो गयी हूँ. कभी कभी खुद को पहचान नहीं पाती मैं. अपने आपसे ही दूर हो गयी हूँ.
पर मेरे लिए अभी
उम्मीद बाकी है. उसने कहा है बड़ी हिम्मत के साथ कि नई शुरुआत करो. न जाने क्यूँ
उसकी बातों पर अमल करने को जी चाह रहा है.मांगता तो जान भी दे देते पर ये इन्सान तो
मुझसे मेरे ही लिए नयी ज़िंदगी मांग रहा है. हे ईश्वर, मुझे इसी इन्सान का तो
इंतज़ार था.जो मेरे बाहरी आवरण के पार मेरी आत्मा को देख सके.पहचान सके उसकी बेचैनी
को. शायद उसे दूर भी कर सके. पर अब तो एक नई बेचैनी मेरा रास्ता रोक रही है. ऐसा
लगता है जैसे वो अपने जाने के लिए मुझे तैयार कर रहा है. डरता है कि उसके बिना भटक
न जाऊं इसलिए ये सब कर रहा है. खैर उसी के शब्दों में ‘होगा वही जो आपने तय कर रखा
है.’ तो ईश्वर, आप ही लिख दो मेरी ज़िंदगी में उसका साथ.मैं और भटकना नहीं चाहती,
थक गयी हूँ.
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