अध्याय १५
हे ईश्वर
हे ईश्वर
फिर से एक सवाल
‘क्यूँ किया था इतना विश्वास तुमने, किस रिश्ते से?’ क्या रिश्ता है मेरा तुमसे.
इस सवाल का जवाब देने में मेरी ज़बान लड़खड़ा जाती है. रिश्ता मेरा तुमसे नहीं, उस पल
से है जिसमें तुम मेरी मुसीबतों के आगे ढाल बनकर खड़े हो जाते हो. मेरा रिश्ता उस लम्हे
से है जब मेरी निराशा और मेरे आंसूं दोनों पोंछ डाले थे तुमने. मेरा रिश्ता उन
आँखों से है जिसमें मेरे सारे सपने रहते हैं. कमाल की बात तो ये है कि तुम्हारे
समाज ने हर सतही रिश्ते को नाम दे दिया पर इतने गहरे रिश्ते के लिए उसके पास देने
को कुछ नहीं है. मैं भी बनाना चाहती थी कभी – रीत रिवाजों वाला रिश्ता. पर जिस
समाज में बेटी की मर्यादा संभाले जाने के बजाय तार तार कर दी जाती हो, उस समाज में
मेरी मर्यादा की रक्षा करने कौन आयेगा? इसलिए मेरे बनाये हर रिश्ते के आगे
तुम्हारा समाज दीवार बन कर खड़ा हो जाता है और उसके बनाये हर रीत रिवाज़ को मैं साल
दर साल झुठलाए जा रही हूँ.
मेरे ईश्वर क्या तुमने
एक भी ऐसा पुरुष नहीं बनाया जिसे अपने लिए स्त्री की नहीं एक साथी की तलाश हो? जो
मुझे मेरे व्यक्तित्व,मेरे सच झूठ, मेरी अच्छाई बुराई, मेरी गलतियों और सबसे ज़रूरी
मेरे अतीत के साथ स्वीकार कर ले? नाम अलग अलग हैं, चेहरे भी...पर उनके बोल नहीं
बदले. उनका लहज़ा नहीं बदला, उनकी सारे आरोप प्रत्यारोप भी अक्षर अक्षर वही हैं.
मैं अब कैसे विश्वास करूं कि कोई होगा जो मुझे अपना लेगा. सबके सामने.उस दिन की
उसकी बातें आज भी मेरे कानों में पिघला सीसा बन कर उतर जाती हैं. किसी क्षण जब मैं
सब भूल कर हंसने लगती हूँ, तब मेरी आँखों में आंसूं बन कर छलक जाती हैं. कैसे खुश
रहूँ मैं? किस तरह ख़त्म हो ये दर्द? हर पल
ऐसा लगता है जैसे साँस लेना भी दुश्वार है. लेकिन तुम्हारी दुनिया ने और सब तो
किया बस मुझे मरने नहीं दिया. अपनी जान लेकर मैं दुनिया को मेरे अपनों पर हंसने का
मौका नहीं देना चाहती. पर ऐसी छवि के साथ रहूँ तो कैसे? साँस भी लूँ तो कैसे? क्या
करूँ?
जिसे मैंने इतना
प्यार किया, जिसे अपने आप से भी ज्यादा अहमियत दी जिसकी इच्छा के लिए मैंने खुद को
झुका दिया, वो अगर मेरे बारे में ऐसा सोच सकता है तो क्या गलत करते हैं लोग? क्या
गलत करते हैं अगर मेरी हर उपलब्धि को संशय की निगाह से देखते हैं? अगर मुझे खुशहाल
देखकर उनको लगता है कि ये ख़ुशी किसी चोर दरवाज़े से आई होगी मेरे पास! अब कुछ करने
की इच्छा ही मरती जा रही है मेरे अन्दर. हे ईश्वर, मुझे जीवन में आपने सब कुछ दिया
पर साथ ही साथ दे दी लोगों की गंदी नज़रें भी. लोगों को तो मैं एक कहर भरी नज़र डाल
कर चुपा देती हूँ, पर अपनों की आँखों में इतना धिक्कार है कि अब दम घुटने लगा है
मेरा.
मैंने खुद को
सँभालने की बहुत कोशिश की, उसके कहने पर एक नई शुरुआत करने के लिए भी तैयार हो गई,
मन मज़बूत करके अतीत के सब दरवाज़े भी बंद कर दिए. पर भगवान, न जाने किस अशुभ घड़ी
में उसके मुंह से मेरे लिए इतनी गलीज़ बातें निकलीं. मेरा सारा आत्मविश्वास तिनके
की तरह उड़ गया. किन्ही कमज़ोर क्षणों में लगता है ‘ क्या सचमुच ढोंग कर रही हूँ
सच्चरित्र होने का?’ पर मन नहीं मानता दुनिया की कही सुनी पर सहमति की मुहर लगाने
को. पर ये बात कहने वाली दुनिया तो नहीं थी, वो शख्स था जो मेरी दुनिया है. तो अब
क्या करूँ? झुठला दूँ उसकी बात, जता दूँ उसे कि मैं बड़ी सच्ची हूँ, सीधी हूँ.
कहने तो तो अगले ही
दिन उसने माफ़ी मांगी, मुझे यकीन दिलाया कि गलती मेरी नहीं थी. उसका वो मतलब नहीं
था. पर कमान से छूटा तीर और मुंह से निकली बात वापस नहीं आ सकते. मैंने उसको
तसल्ली देने के लिए कह दिया ‘मैंने तुम्हे माफ़ किया.’ पर मेरी ऑंखें मेरे शब्दों
का साथ नहीं दे रहीं. मेरा मन भूल ही नहीं पा रहा, न भूलने दे रहा है. मेरी आत्मा
जले जा रही है, सूखी लकड़ी की तरह. काश उसे एहसास होता कि उसने क्या किया? होगा
ज़रूर एहसास उसे. पर उसके इस एहसास करने से मेरी टीस कम होने वाली नहीं.
पता नहीं कब मैं इस
दर्द से बाहर आ पाउंगी. कब भूल पाउंगी..? कब सीने की जलन ख़त्म होगी, आंखों के
आंसूं सूखेंगे..पता नहीं.
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