Wednesday, 18 April 2018

हर बेटी फूलन होती

अध्याय १३

हे ईश्वर

आपके देश के अखबार पटे पड़े हैं... एक पिता, पड़ोसी. अभिभावक या राह चलता कोई. कोई अंतर नहीं रह गया. ६ महीने, ६ साल या सत्रह...कोई फर्क नहीं पड़ता. साड़ी, सलवार सूट या डायपर...कुछ भी चलेगा. विवाहित या अविवाहित...जानना भी नहीं चाहते. जिस देश में, जिस राज्य में माता रानी का नाम लेकर लोग दर्शन करने जाते हैं, उसी राज्य में ऐसे लोग भी रहते हैं. एक समुदाय को डराने के लिए उनको यही तरीका समझ आया. वो घर जला सकते थे, मवेशी ले जा सकते थे, कुछ भी कर सकते थे. पर न जाने किस बीमार मानसिकता ने उन्हें समझाया कि एक छोटी सी बच्ची पर अपनी मर्दानगी दिखाना ही सबसे अच्छा तरीका है. अमानवीयता का ये नंगा नाच सिर्फ एक राज्य या एक बेटी की बात नहीं. ६ महीने की बच्चियां हों या ६० साल की माएं...अब तो कोई सुरक्षित नहीं है.

अब तक तो हम सब रात के अँधेरे से ही डरते थे, अकेलेपन और अजनबियों से ही सावधान रहते थे...पर अब तो जान पहचान वालों को भी संभल कर मिलना होगा. पैदा होते ही बच्ची को सात तालों में रखना होगा. उसे माँ बोलने से पहले ना बोलना सिखाना होगा. कैसे बतायंगे हम उसे कि उसके साथ क्या क्या हो सकता है! जो मासूम बच्चा अपनी तोतली बोली और प्यारी सी मुस्कान से किसी पत्थर का भी दिल पिघला सकता है, उसे ही देख कर किसी के मन में शैतानियत जागी तो कैसे..? किस तरह के कपडे रहे होंगे वो, न जाने कैसे हाव भाव? अब कहाँ हैं वो लोग जो हमारे कपड़ों को दोष देते थे. घड़ी की सुइयों से नापते थे हमारे चाल चलन को. हमारे सिगरेट और शराब पीने की तरफ उँगलियाँ उठाते थे. क्यूँ चुप हो गये वो?

सत्ताधारी लोग जिन्हें हमारा रक्षक होना चाहिए, वो ही भक्षक बने बैठे हैं. कभी ख़त्म नहीं होती उनकी भूख. भंवरी से लेकर मधुमिता और अब छोटी छोटी बच्चियां जिन्होंने ठीक से समझा भी न होगा अपने स्त्रीपन को. कुछ लोग कहते हैं जिन पर इलज़ाम लगा है वो दोषी नहीं हैं. कुछ अभियुक्तों और पीड़ितों के जाति धर्म को लेकर बवाल मचाने में लगे हैं तो कुछ को लगता है कि किसी की माँ बहन को गलियां देकर वो अपना फ़र्ज़ पूरा कर रहे हैं. ये सारे लोग ये भूल गये हैं कि अत्याचारी का कोई धर्म नहीं होता और जिस दर्द से वो बच्चियां और उनके अभिभावक गुज़रे हैं उसकी टीस कभी कम नहीं होगी.

 हम कहते हैं कि हर बेटी को फूलन और लक्ष्मी बाई होना चाहिए. आवाज़ उठानी चाहिए, हथियार चलाना चाहिए. पर हम ये क्यूँ भूल जाते हैं कि ऐसा करने के लिए भी तैयारी और परिपक्वता की ज़रुरत है. यहाँ तो हम उन्हें होश सँभालने तक की भी मुहलत नहीं दे रहे. क्या हो गया है हमारे समाज को, हमारी व्यवस्था को, हमारे लोगों को और उनकी सोच को. पहले तो हम कहा करते थे ‘क्या आपके घर में माँ बहन नहीं है?’ पर जिस समाज के लोग अपनी ही बहन बेटियों की इज्ज़त तार तार कर चुके हैं, उन्हें अब कहें भी तो क्या?

हे ईश्वर ये सारे किस्से तो उन बलात्कारों के हैं जो शरीर पर किये गये. लेकिन किसी के मन और आत्मा को छलनी करने वाले बलात्कार का क्या? उन ज़ुबानों का क्या जिनकी धार से किसी की भी इज्ज़त के आंचल को मैला किया जा सकता है. उन लोगों का क्या जो किसी भी औरत पर सिर्फ इसलिए उँगलियाँ उठाते हैं क्यूंकि वो औरत है. देर रात तक दफ्तरों से घर लौटने वाली, अपना घर बसाने की जगह खुद बनाने वाली, अपने सपनों के साथ समझौता न करने वाली और न जाने कितनी सारी स्त्रियाँ जिनका एकमात्र अपराध ये है कि वो स्त्रियाँ हैं. बस एक शब्द लगता है उनकी सारी मेहनत, सारी उपलब्धियों पर पानी फेरने में. पर हम भी हार नहीं मानेंगे. अपने सपनों से समझौता नहीं करेंगे. इस समाज और इसकी रवायतों के आगे सर नहीं झुकायेंगे. करने दो तुम्हारे समाज को जो करना है. अगर किसी के मासूम हाथों में हथियार उठाने की ताक़त न हो, तो हम खुद उसके लिए हथियार उठाएंगे.

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