Tuesday 29 October 2019

मुझसे नाराज़ हो तो...


हे ईश्वर

कल इस बात का सबूत मुझे मिल ही गया कि मैं एक अदना सी इंसान हूँ, इसी दुनिया में रहने वाली, रहना चाहने वाली। सामाजिकता से पूरी तरह कटे फटे इस जीवन में पहली बार मेरी इच्छा  हुई थी किसी समाज का हिस्सा बनने की। एक उत्सव में भागीदारी करने की। कुछ क्षण मेरे अग्रजों के सानिध्य में बिताने की। पर उसका परिणाम ऐसा होगा मैंने कहाँ सोचा था, चाहा भी तो नहीं था।

एक बार फिर सुनना पड़ा मुझे कोई और है’! है क्या ईश्वर? अचानक से मैं भी उनके तय किए इल्जामों से खुद को घिरा पाती हूँ। सज़ा भी खुद ही सुना चुके हैं वो। सिर्फ इसलिए कि मैंने एक छोटा सा निर्णय लिया और उनको बताने से चूक गई। मुझे यही लगा था कि अचानक कहीं जाने का निर्णय लेना एक नगण्य सी बात थी। वैसे भी मैं कब उनसे कुछ पूछती हूँ। पर तुम्हारे संसार में जो हक़ पुरुष को हासिल है वो स्त्री को नहीं। इसलिए तो सुन रही हूँ उनके कहे अनकहे इल्ज़ाम। देख रही हूँ उनका बदला हुआ व्यवहार। आज अचानक ही मेरी हर हरकत संशय के दायरे से बाहर नहीं। कार्यालय से आए अनगिनत फोन, मुझे मिलने आए व्यक्ति, मेरा घर जाने का निर्णय सब सबूत हैं मेरी चरित्रहीनता के।

क्यूँ ईश्वर, कुछ दिन जैसे सुख में बीते थे मैं कितनी अभिभूत हो गई थी। खुश रहती थी, हल्का महसूस करती थी। अब वो सब कहाँ है? क्यूँ चला गया है? सिर्फ एक निर्णय ने सब बर्बाद कर दिया, मिटा दिया।

बहुत बार कहते हैं वो मुझे – तुम पर विश्वास नहीं है मुझे। कोई न कोई तो होगा ही। किसी भी आते जाते से मेरा नाम जोड़ देना उनके लिए रोज़ की बात है। बार बार उनके कहे को बस ये कह कर टाल देती हूँ कि वक़्त बताएगा। पर वक़्त है कि खामोश है, आपकी तरह!

क्यूँ करने देते हैं उसे मेरे आत्मविश्वास की हत्या? क्यूँ बोलने देते हैं उसे इतने कड़वे बोल? अपनी इतनी खूबसूरत ज़िंदगी में ये चरित्रहीनता का काला दाग लेकर कैसे जियूँ मैं? बताइये न? जिस इंसान के लिए मैंने सैकड़ों बार आपके आगे माथा टेका है, उसी की खुशी और सफलता की दुआ मांगी है वो इस कदर हृदयहीन क्यूँ है? क्या कभी आप मुझे कोई जवाब देंगे ईश्वर?

वो सदी भी मौन थी जब सीता धरती में समा गईं थीं और आज भी सब मौन है जब इस सीता को समा सकने लायक धरती नसीब ही नहीं है!

Sunday 20 October 2019

तुम अच्छी नहीं दिखती


हे ईश्वर
मेरे आत्मविश्वास का किला वैसे भी रेत का ही बना था। आपको उसे ढहाने के लिए इतने बड़े पहाड़ की क्या ज़रूरत थी? किसी की तारीफ का एक छोटा सा झोंका ही काफी था। एक वो दिन था जब उसने मुझे अपशब्द कहे थे और मैं दो दिन तक घर से कदम बाहर निकालने का साहस नहीं कर पाई थी। एक आज का दिन है उसने ऐसा कुछ कहा कि मैं बिना किसी डर के जब चाहूँ, जैसे चाहूँ निकल सकती हूँ। या शायद एक बार फिर खुद को घर की चारदीवारी में ही क़ैद कर लेना होगा, इस बार हमेशा के लिए।
ईश्वर उसने कहा कि मेरे जैसी लड़कियों के साथ कुछ भी बुरा होने की संभावना नगण्य है क्यूंकि मैं अच्छी नहीं दिखती। मैं अच्छी नहीं दिखती! अचानक से मेरी सादगी पर बेतरह गुस्सा आने लगा मुझे। आईना हंसने सा लगा मुझ पर। कहा था न कि इस दुनिया में दिखावा ही सब कुछ है। क्यूँ अपने आचरण, चरित्र, सोच और ज्ञान पर मेहनत किए चली जा रही है। कुछ अपने चेहरे का भी तो सोच! क्या फायदा तेरी इन 300 किताबों का? गीत संगीत में तेरी रुचि का। कागज़ काले करने के तेरे इस गुण का? क्या फायदा भीड़ को संबोधित कर सकते की तेरी क्षमता का। एक चमकीले चेहरे और तड़क भड़क वाले परिधानों के सामने ये सब कुछ भी नहीं है।
अचानक से मन कर रहा है मैं अपने सारे अच्छे कपड़े जला दूँ, अपने काजल और लाली सब उठा के कचरे में फेंक दूँ। अपने सारे शालीन कपड़ों की जगह मैं भी चिथड़े लपेट कर सड़कों पर घूमा करूँ। कम से कम तब तो मैं उसको अच्छी दिखूंगी शायद?
कैसी कैसी बातें करती हूँ न मैं भी? पता नहीं क्यूँ? कह दिया तो कह दिया उसने। मैं क्यूँ इतना सोच रही हूँ! पर नहीं मेरा मन है कि शांत ही नहीं हो रहा। सोचे जा रहा है कि अगर कभी मेरे साथ कुछ भी गलत हुआ तो क्या वो मानेगा? या तब भी यही कह देगा कि इसके साथ तो ऐसा हो ही नहीं सकता क्यूंकि ये तो अच्छी नहीं दिखती।
अच्छा ही हुआ कि मैंने कभी चाय की ट्रे वाला सीन नहीं किया है। वरना अनगिनत बार यही सुनना पड़ता कि मैं अच्छी नहीं दिखती।

Sunday 13 October 2019

झूठे इल्ज़ाम मेरी जान....II


तो आपको लगता है कि मेरा किसी के साथ कोई ऐसा वैसा रिश्ता है। आप इस भुलावे में रहना चाहते हैं तो बेशक रहिए। मैं आपको नहीं रोकूँगी। कहने को और बचा भी क्या है वैसे? मेरा चरित्र आपकी कसौटी का मुहताज नहीं है वैसे भी। हर बार यही कहती हूँ न मैं आपको, “मैं आपके साथ हूँ या नहीं, मैं आपके लिए वफादार हूँ या नहीं, मैंने आपको कोई धोखा दिया या नहीं, मेरे जीवन में कोई और है या नहीं...” इन सब सवालों का जवाब आपको वक़्त ही देगा। वक़्त ही सिखाएगा आपको हमारी कद्र करना। उस वक़्त के इंतज़ार में और उसी वक़्त के भरोसे ही काट रही हूँ मैं अपने दिन।
फिर भी जब भी आप मेरी तरफ उंगली उठाते हैं मन विद्रोह सा करने लगता है। मेरे आपके प्रति इतने सच्चे और ईमानदार होने के बावजूद आप मुझ पर विश्वास नहीं करते। ये बात मुझे अंदर ही अंदर खोखला कर रही है। क्यूँ हो रहा है ईश्वर मेरे साथ ऐसा? मैंने जब भी किसी पर विश्वास किया है हमेशा ठोकर ही खाई है। किसी ने मुझे कभी संभाला नहीं। सब गिराते ही चले गए। अब एक बार फिर मेरा कोई अपना ही मुझे धकेल रहा है। उसी नरक की तरफ जहां से निकले मुझे अभी दिन ही कितने हुए हैं?
मेरा मन इतना क्यूँ मरा हुआ है भगवान? मैं कुछ करती क्यूँ नहीं। जिया नहीं जा रहा है चीख चीख कर कहती हूँ मैं। क्यूँ मर नहीं जाती? क्या इतना भी साहस नहीं बचा मुझमें? और क्या देखना चाहती हूँ? और कितना अपमानित होना चाहती हूँ? और कितना अपमान सहने पर कह सकूँगी धरती माँ, मुझे स्थान दो! मैं माता सीता थोड़े न हूँ जो धरती की गोद मिले। मुझे तो माँ की गोद भी फिलहाल नसीब नहीं। बहुत दूर आ गई हूँ मैं अपने हर रिश्ते से।
अपने आप के भी पास नहीं रह पा रही हूँ मैं अब। क्या करूँ? आज फिर उसने गंदे और गलीज शब्दों में उस दूसरी औरत की तारीफ की। अपने आप पर शर्म सी आने लगी है मुझे। पटाखा, बारूद और माल जैसे शब्द तो केवल सड़क छाप मवालियों के मुंह से सुने थे आज तक। इस परिष्कृत रुचि वाले इंसान के मुंह से निकले तो विश्वास नहीं हुआ कि उसके जैसा इंसान ऐसी गलीज़ भाषा बोल भी सकता है। ऐसी निकृष्ट सोच रख भी सकता है।
क्या सचमुच यही मेरी नियति है ईश्वर? नरक और फिर एक और नरक का अंतहीन सिलसिला! कब और कैसे मिलेगी मुझे मुक्ति। बोलो न?

Wednesday 9 October 2019

अग्निकुंड


हे ईश्वर
एक बार फिर से अंगारों पर चलने के लिए मुझे झोंक दिया गया है। एक बार फिर से वो वही सारी बातें करते हैं। तुम सुबह कहीं, शाम को कहीं होती हो। तुम्हारा कोई भरोसा नहीं। दूसरे लोग तुमसे कहीं अधिक कार्यकुशल हैं, सक्षम हैं। तुम सुबह से शाम तक सिर्फ लोगों की जी हजूरी में लगी रहती हो। वो अंगारे चबा रहे हैं और मैं खून थूकने लगी हूँ। जिया नहीं जाता मुझसे भगवान।
मैंने इसी नर्क से बचने के लिए अपनी जिंदगी खत्म करने का सोचा था। अब एक बार फिर वही सब ख्याल मुझे परेशान कर रहे हैं। एक इंसान इतना क्यूँ ज़रूरी है मेरे लिए। है भी तो ईश्वर वो इतना स्वार्थी क्यूँ है? एक स्वार्थ नहीं पूरा हुआ तो मैं इतनी निकृष्ट हो गई हूँ। उसने पहले तो मुझे आसमान में बिठाया और अब बड़ी बेरहमी से मुझे वहाँ से धकेल दिया है। बार बार टूटती हूँ, बिखरती हूँ।
मैंने उनका काम करने के लिए ही हाथ में लिया था, बर्बाद करने के लिए नहीं। लेकिन उन्हें कौन समझाए? वो ऐसे क्यूँ हैं भगवान? हार पर तो अपने हौसला बढ़ाते हैं, गिर कर फिर उठने को प्रेरित करते हैं! ये कैसे अपने हैं जो गिर जाने पर उठना ही मुश्किल कर देते हैं। एक तो मेरा हौसला पहले ही टूटा हुआ है, ऊपर से ये उसे और तोड़ रहे हैं। इतने पर भी मेरा मन है कि हार ही नहीं मान रहा।
जानती हूँ कि ये सब हमेशा नहीं रहेगा। शायद मेरा मन कठोर हो जाएगा। शायद सहने की हिम्मत आ जाएगी। शायद कुछ दिन बाद उनके ताने मुझ पर असर नहीं करेंगे। शायद मैं संभाल जाऊँगी। शायद ये, शायद वो! पर ऐसा कुछ नहीं हो रहा फिलहाल। इस वक़्त तो खून के घूंट पी कर सुनने ही पड़ेंगे उनके दिए सारे इल्ज़ाम। चरित्रहीन कहते हैं वो मुझे। सही तो है। जिस इंसान के सामने मेरा मन और जीवन एक खुली किताब है, उससे मुझे यही तो उम्मीद थी। इस एक इल्ज़ाम को तो साबित करने की भी ज़रूरत नहीं। बस कहना ही बहुत है। है न, ईश्वर?

Friday 4 October 2019

किनारे मिलते नहीं


मेरे ईश्वर
आज का जैसा दिन आप मेरी जिंदगी में कभी मत लाना। मैं जो हमेशा सर उठा कर चलती हूँ उसका बस इतना ही कारण है कि मैंने कभी किसी का बुरा नहीं सोचा। वही मैं हूँ जो आज किसी का दिल दुखा कर आई हूँ। वो भी इस बुरी तरह। जितनी रातें मैंने जागते हुए बिताई हैं आज शायद वो भी बिताएगी। शायद आज वो भी उतना ही बेबस महसूस करेगी जितना मैं करती हूँ। शायद आज उसे भी अपने रंग रूप, साज शृंगार से उतनी ही अरुचि हो जाएगी जितनी मुझे है। शायद ऐसा हो भगवान या शायद नहीं। मैं नहीं जानती! मैं ये भी नहीं जानती कि जो मैंने किया वो सही था या गलत।

आज मैं बहुत थक गई हूँ भगवान। एक बार फिर लगा दी मेरे लोगों ने मुझ पर वही तुम भी उसके ही जैसी हो। तुम भी किसी दुहाजू के पीछे पड़ जाओगी एक दिन की कालिख। मैं कैसे समझाऊँ इन लोगों को! मेरी अपनी सोच है और अपना विवेक भी। मैं किसी और की परछाई नहीं एक स्वतंत्र व्यक्तित्व हूँ। इसलिए जो किसी और ने किया वो मैं भी करूंगी ऐसा कोई निश्चित नहीं है। मेरे मन में किसी के लिए दुर्बलता हो सही, पर अपनी सीमाएं मैं भली भांति जानती हूँ। कैसे समझाऊं इन्हें कि लोग अलग अलग होते हैं और उनके निर्णय भी। मेरी स्थिति- परिस्थिति कुछ भी हो मेरा संकल्प अटल है। मैं कभी कोई ऐसा काम नहीं करूंगी कि अपने आप से नज़र न मिला सकूँ।
जानती हूँ कि मुझे कितनी दूर जाना है और किसके साथ? ईश्वर मेरी ये हद पार करती ईमानदारी ही मेरे दुख का कारण बनी हुई है।

आज न जाने कितनी बार उन्होने कहा “तुम बेकार की बातें सोचती हो। खाली बैठी रहती हो इसलिए” मैं और खाली? सच? मुझे तो सांस लेने तक की फुर्सत नहीं। आज फिर लगा दी उन्होने तुम शादी कर लो की रट। सबको लगता है शादी ही मेरे अकेलेपन का अंतिम सहारा है। पर मेरा मन नहीं मानता। अगर वो भी मुझे नहीं समझ पाया तो मेरी आज़ादी बिना वजह ही कुर्बान हो जाएगी।

कैसे कहूँ और किससे कहूँ? बोलो भगवान? इतनी बड़ी सी आपकी दुनिया में इतनी छोटी सी बात कोई नहीं समझ सकता। जो शादियाँ लड़के वालों के लिए ब्लैंक चेक और लड़कीवालों के लिए ऋण का बोझ बनी हुई हैं ऐसी शादियों और ऐसे रिश्ते से मेरा विश्वास न जाने कब से उठ चुका है। जो मेरी नज़र में शादी है लोग उसे न जाने कितने ही नाम दे लें पर फिर भी कभी नहीं पहचान पाएंगे। मेरे जैसे लोग जो आज भी एकनिष्ठ प्रेम में विश्वास करते हैं उनको आपकी इस लेफ्ट और राइट स्वाइप वाली दुनिया में समझने वाला कोई नहीं, कोई भी नहीं।

Wednesday 2 October 2019

नरक का द्वार


मेरी माँ
क्या सच में उन्होने वैसा ही किया है जैसा वो कहते हैं? क्या सचमुच वो हर वर्जना, हर मर्यादा पर पाँव रख सकते हैं अपनी ज़िद में अंधे होकर? क्या उनके लिए उनका अहंकार इतना बड़ा हो गया है? या सच में उस औरत ने इन पर कोई मोहिनी डाल दी है? क्या सच है भगवान? क्या मुझे कभी पता चलेगा? बताइये?

अगर ये सच है तो क्यूँ मुझे छोड़ कर आगे नहीं बढ़ सकते वो? यदि झूठ है तो ऐसा सफ़ेद झूठ बोलते उन्हें क्यूँ शर्म नहीं आई? आपने क्यूँ कहने दिया उनको ये सब? वो कहते हैं तुम्हारे बोले हुए अपशब्द ही तुम पर फलित होते हैं। सबको दिखती है मेरी कड़वी ज़ुबान पर उस कड़वी ज़ुबान के पीछे कितना दुखा हुआ मेरा दिल है। वो किसी को क्यूँ नहीं नज़र आता? सब कुछ दिया है आपने मुझे और मैं कोई नाशुक्री तो हूँ नहीं माँ। आपको शुक्रिया अदा करने और अपने घमंड से निजात पाने ही तो रखती हूँ हर साल ये व्रत। आपके नवरात्र मेरे जीवन के सबसे प्यारे दिन होते हैं। फिर उन्हीं दिनों के बीच में ये शूल क्यूँ?

मेरे ईश्वर मैं आपसे बस एक बात जानना चाहती हूँ। मेरे पूर्वजन्म में ऐसे कौन से पाप थे जिनका इतना भीषण दंड है? क्यूँ नहीं बंद होता मेरे बुरे कर्मों का बही खाता? क्यूँ नहीं पूरी होती मेरे लिए तय की हुई आपकी सारी की सारी सज़ा? क्या अपराध किया है मैंने भगवान जो सब कुछ होकर भी मेरा मन इतना अशांत रहता है?

क्या करूँ कि मुझे सुकून महसूस हो? सब कुछ करके देख लिया मैंने ईश्वर। आपसे प्रार्थना की, परोपकार किया, अपने जीवन और आचरण में ईमानदारी बरती और अपनी रोज़ी रोटी से हमेशा इंसाफ करने की कोशिश की। फिर भी मेरी कोशिशें न जाने क्यूँ कम पड़ जाती हैं। हर बार एक नया शूल, एक नई टीस, कोई नया विश्वासघात! क्यूँ? मैंने किसका दिल इतना दुखा दिया ईश्वर? जवाब दो न? नहीं तो अब तो माफ कर दो न मुझे!

किस किनारे.....?

  हे ईश्वर मेरे जीवन के एकांत में आपने आज अकेलापन भी घोल दिया। हमें बड़ा घमंड था अपने संयत और तटस्थ रहने का आपने वो तोड़ दिया। आजकल हम फिस...