Wednesday, 9 October 2019

अग्निकुंड


हे ईश्वर
एक बार फिर से अंगारों पर चलने के लिए मुझे झोंक दिया गया है। एक बार फिर से वो वही सारी बातें करते हैं। तुम सुबह कहीं, शाम को कहीं होती हो। तुम्हारा कोई भरोसा नहीं। दूसरे लोग तुमसे कहीं अधिक कार्यकुशल हैं, सक्षम हैं। तुम सुबह से शाम तक सिर्फ लोगों की जी हजूरी में लगी रहती हो। वो अंगारे चबा रहे हैं और मैं खून थूकने लगी हूँ। जिया नहीं जाता मुझसे भगवान।
मैंने इसी नर्क से बचने के लिए अपनी जिंदगी खत्म करने का सोचा था। अब एक बार फिर वही सब ख्याल मुझे परेशान कर रहे हैं। एक इंसान इतना क्यूँ ज़रूरी है मेरे लिए। है भी तो ईश्वर वो इतना स्वार्थी क्यूँ है? एक स्वार्थ नहीं पूरा हुआ तो मैं इतनी निकृष्ट हो गई हूँ। उसने पहले तो मुझे आसमान में बिठाया और अब बड़ी बेरहमी से मुझे वहाँ से धकेल दिया है। बार बार टूटती हूँ, बिखरती हूँ।
मैंने उनका काम करने के लिए ही हाथ में लिया था, बर्बाद करने के लिए नहीं। लेकिन उन्हें कौन समझाए? वो ऐसे क्यूँ हैं भगवान? हार पर तो अपने हौसला बढ़ाते हैं, गिर कर फिर उठने को प्रेरित करते हैं! ये कैसे अपने हैं जो गिर जाने पर उठना ही मुश्किल कर देते हैं। एक तो मेरा हौसला पहले ही टूटा हुआ है, ऊपर से ये उसे और तोड़ रहे हैं। इतने पर भी मेरा मन है कि हार ही नहीं मान रहा।
जानती हूँ कि ये सब हमेशा नहीं रहेगा। शायद मेरा मन कठोर हो जाएगा। शायद सहने की हिम्मत आ जाएगी। शायद कुछ दिन बाद उनके ताने मुझ पर असर नहीं करेंगे। शायद मैं संभाल जाऊँगी। शायद ये, शायद वो! पर ऐसा कुछ नहीं हो रहा फिलहाल। इस वक़्त तो खून के घूंट पी कर सुनने ही पड़ेंगे उनके दिए सारे इल्ज़ाम। चरित्रहीन कहते हैं वो मुझे। सही तो है। जिस इंसान के सामने मेरा मन और जीवन एक खुली किताब है, उससे मुझे यही तो उम्मीद थी। इस एक इल्ज़ाम को तो साबित करने की भी ज़रूरत नहीं। बस कहना ही बहुत है। है न, ईश्वर?

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