हे
ईश्वर
मुझे
बहुत डर लग रहा है। वैसे तो ये डर मुझे न जाने कब से सता रहा था पर आज तो वो सच
होता नज़र आ रहा है। मुझे एहसास ही नहीं था कि सुबह गुस्से में कहे हुए मेरे ये
शब्द ऐसा रंग लाएँगे। अब समझ नहीं आ रहा है कि क्या करूँ? क्या सच में यही हमारे रिश्ते का अंतिम पड़ाव है?
क्या आज हमारा रिश्ता उस मोड़ पर आ गया है जहां से हमारे रास्ते अलग अलग हैं। मैंने
आपसे पूछा तो मेरी सारी आशंकाओं पर विराम लगा दिया। पर इस सब में एक बात मुझे साफ समझ
आई। ये शख्स किसी भी मोड़ पर मेरा हाथ छुड़ा कर यूं चला जाएगा जैसे हम कभी साथ थे ही
नहीं। खुद पर बेहद आश्चर्य हो रहा है आज। एक ऐसे इंसान के लिए मैं दुनिया से लड़ने चली
हूँ जो पहले से ही मुझे हार चुका है। क्यूँ भगवान?
इस
दुनिया में बहुत से ऐसे लोग होते हैं जो परिवार के लिए कोई भी त्याग कर सकते हैं। उस
त्याग में से एक हमारा रिश्ता भी है। कितनी जल्दी ये फैसला कर लिया था उसने कि सब अब
खत्म है। आज जब मैंने उससे बात करने की कोशिश की, मैंने भी संयम
खोकर कुछ कड़वी बातें कहीं। एक तरफ तो अपने आत्मसम्मान की रक्षा करके अच्छा लग रहा है, दूसरी तरफ उस शख्स को खो देने का डर सता रहा है। क्या करूँ? स्त्री सदियों से ऐसे ही दोराहों पर खड़ी रही है। अपना सम्मान या प्यार? प्यार खो दूँ और सम्मान बचा रहे तो भी हार तो मेरी ही है।
सच
है ईश्वर। अपने सम्मान के लिए मैंने सब कुछ तो खोया है, छोड़ दिया है। परिवार से दूर यहाँ अपनी जगह बनाने क्या इसीलिए आई थी? जिनके लिए सब कुछ ऐसे दे दिया जैसे वो कोई तिनका हो, उनकी नज़र में क्या इतनी ही कदर है मेरी और मेरे प्यार की? Expendable होना किसे अच्छा लगता है? लेकिन उसी शख्स से कोई भी दूरी बनाने का प्रयास मेरा कलेजा चीर देता है। इसलिए
तो हम साथ हैं। आज गुस्से में जब मुझसे वो हमारे बीच के फर्क की बात करता है, मन करता है उसे ज़ोर से झिंझोड़ दूँ। पूछूं चीख चीख कर कि ये फर्क उस वक़्त क्यू
तुम्हें नज़र नहीं आया जब मेरे साथ नज़दीकियाँ बढ़ाईं थीं। सिर्फ इस एक बात पर कि मैं
उनके अपमानजनक रवैये को झेल नहीं सकी, उन्होंने मुझसे किनारा
करने की ठान ली। खैर शायद यही आपकी इच्छा होगी।
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