Monday, 14 January 2019

इसी लायक हो...

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अध्याय ६७

...हे ईश्वर

कैसे और किन शब्दों में आपका धन्यवाद करूँ? आपने मुझे अपने पास बुलाकर नया जीवन सा दे दिया। पर ईश्वर, मैं न जाने कितनी सोच में पड़ती जा रही हूँ। कुछ समझ में नहीं आता कि उसका असली चेहरा है क्या? पिछले कई दिनों से मन बहुत दुविधा में है। मैं क्या करूँ ईश्वर? आपसे जवाब मांगने के लिए ही तो आई थी। आपने हाँ कह दिया। पर अब जब उसकी तरफ देखती हूँ वो चेहरा न जाने क्यूँ अजनबी सा लगता है। या तो फिर उस चेहरे में बदल जाता है जिसे मैं बहुत पीछे छोड़ आई हूँ। वो एक चेहरा या कई चेहरे जिनकी उँगलियाँ हमेशा मेरी तरफ उठी रहती हैं। मेरी कलम हिचक रही है वो सब कुछ कहने में। न जाने मेरे जैसे कितने लोग होंगे जो अपने रिश्तों को अपने आत्मसम्मान से ज़्यादा महत्व देते होंगे। न जाने कितने होंगे जो सोचते होंगे कि अब वो अपने लिए जिएंगे, खुद से प्यार करेंगे। पर हमेशा घुटने टेक देते होंगे जब प्यार या परिवार की बेरुखी से सामना होता होगा। 

मैंने भी तो टेके हैं हर बार। जब भी वो कहते हैं ढूंढ लो कोई और जो तुम्हारी बराबरी का हो। मेरी हैसियत उतनी नहीं... मुझे बहुत दुख होता है। प्यार करने की ऐसी सज़ा किसको मिलती होगी भगवान? यदि उनके मन में यही सब कुछ था तो क्यूँ हाथ बढ़ा दिया ऐसी लड़की की तरफ? क्या नहीं जानते थे वो मेरे बारे में? फिर भी वो मेरे साथ आए क्यूँ? ये सारे लोग जिन्हें घर की इज्ज़त प्यारी होती है क्यूँ किसी और की इज्ज़त का ख्याल नहीं करते? ये लोग जिन पर जिम्मेदारियों का बोझ होता है उन्हें एक रिश्ते में गैर ज़िम्मेदारी से पेश आने पर कोई दुख क्यूँ नहीं होता? जब किसी के लिए उनके दिल और जिंदगी में जगह नहीं होती तो क्यूँ किसी को आने देते हैं अपने साथ?

मैं किसी के घर की इज़्ज़त नहीं भगवान। हो भी कैसे सकती हूँ? जिस लड़की को वेश्या कहते उसके परिवार की ज़ुबान नहीं लड़खड़ाती वो किस मुंह से समाज में अपने लिए स्थान मांगे? लाज आने लगी है मुझे अब। फिर भी बेशर्मी से सर उठा कर चलती हूँ। लोगों की और अपने परिवार की आँखों में आँखें डाल के बात करती हूँ। अपने लिए हर सुख सुविधा हासिल करती हूँ और खुद को आराम देने में ज़रा भी नहीं हिचकती। थोड़ा ही सही भगवान... आत्मविश्वास तो है। प्यार मैं सब से अब भी उतना ही करती हूँ पर अपना अपमान करने का अधिकार अब किसी को नहीं दूँगी। कभी नहीं।



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