Thursday, 10 September 2020

वेश्या हो तुम, पुरुष!!

हे ईश्वर

इतनी सारी कहानियाँ पढ़ीं मैंने जिसमें सुंदर, सशक्त, आत्मनिर्भर स्त्री का प्यार के नाम पर शोषण किया जाता है। शारीरिक संबंध स्थापित करके उसे नीचा दिखाया जाता है। उसकी संपत्ति, उसके सोच विचार, स्वतन्त्रता का हनन करके उस पर एकाधिकार जताया जाता है। पर ये सब करने वाला पुरुष चाहे उसका पति हो, प्रेमी या दोस्त... कभी स्त्री स्वतन्त्रता, कभी यौन स्वच्छंदता के नाम पर, स्त्री का जी भर कर फायदा उठाते और फिर उसे तड़पने के लिए छोड़ देते। स्त्री जो घर में शोषित और कुंठित होती है तो घर से बाहर कदम निकालती है। अपनी जगह बनाती है, अपना संघर्ष करती है। उसी संघर्ष से जब उसे कुछ प्राप्त हो जाता है या होने की संभावना होती है तो आ जाते हो लार टपकाते हुए। उसके प्राप्य में हिस्सा बंटाने। जब तक सफल नहीं है तब तक स्त्री के लिए तुम्हारे मन में सम्मान नहीं। जब वो सफल हो जाती है तब भी उसकी सफलता को, उसकी मेहनत को अवसरवादिता बताते हो। उसके संघर्ष का मज़ाक उड़ाते हो। तुम ही थे न जिसने बचपन में मुझे समझाया था ‘ससुराल में लात जूते खाओगी तो औकात समझ आएगी’ वो जो आज भी मेरे आत्मसम्मान को घमंड कहता है।  कहा करते थे ‘ज़िंदगी भर तुम कॉल सेंटर में सड़ोगी, तुम उसी के लायक हो’ तुम ही थे न जिसने कहा त ‘तुम तो शायद टाटा नैनो के आगे कभी सोच भी नहीं पाओगी’ या क्या इतना ही आसान है सरकारी नौकरी पाना। जितना पैसा इन सब फॉर्म भरने में बरबाद करती हो उतना तुम्हें बचा के रखना चाहिए। मेरे उज्ज्वल भविष्य से तुम्हें 1000-500 की बचत ज़्यादा ज़रूरी लगती थी। शायद मन ही मन सोचते थे मुझमें ऐसा कोई इम्तेहान पास करने की क्षमता ही नहीं है। 

आज मेरी जिंदगी को देखते हो तो रश्क करते हो न! जवाब तुम्हें मैंने नहीं, मेरे परमात्मा ने दिया। जब मैंने शादी और अपने कैरियर में से कैरियर को चुन लिया। मुझे लात जूते मार कर मेरी औकात दिखाने के सभी विकल्प उसी दिन जड़ से खत्म हो गए थे। जब मेरी ऊंची नौकरी के चलते तुमने एक दिन झल्ला के कह दिया था तुम पैसों के पीछे भागने वाली और दिखावेबाज़ हो। जब मेरी चमकती हुई खूबसूरत सी होंडा सिटी देख कर तुमने अफवाहें उड़ाई थीं ‘इतनी महंगी गाड़ी उससे संभल नहीं रही है, बेचना चाहती है’ ऐसा भी नहीं है कि मैंने तुम्हे अपनी सफलता में हिस्सेदार नहीं बनाना चाहा। अपने घर परिवार का तो मेरा भी सपना था कभी। पर तुम मेरे जीवन में चोर दरवाज़े से ही आते आए हो सदा। सामने से आने का तुम्हारे अंदर साहस नहीं है। थाम सकते हो समाज और परिवार के सामने मेरा हाथ? नहीं न! लेकिन फिर भी मेरे जीवन पर तुम्हें एकाधिकार चाहिए। मैंने शादी से इंकार कर दिया तो तुम आज भी मेरे लिए इंतज़ार करने का दावा करते हो। पर सच्चाई ये है कि तुम्हारी असलियत वैसे ही समझ आ जाती है। याद है मैं कहा करती थी ‘I don’t want to be the man in the relationship. मर्द मर्द के जैसा ही अच्छा लगता है, औरत नहीं’ मेरे स्त्रियोचित गुण सहेज कर रखना चाहती थी  मैं हमेशा। पर तुमने और तुम्हारे समाज ने मुझे मर्दानी बना दिया है। इसलिए तुम्हारा दाम देकर तुम्हारा उपभोग करना भी मेरा अधिकार है जो मैंने अर्जित किया है। पर मैं उसमें भी हमेशा छली जाती हूँ। प्रेम, समर्पण और एकनिष्ठा से तुम्हारे साथ अपना सब कुछ बांटती हूँ। तेरा और मेरा का फर्क नहीं करती कभी। पर तुम... तुम ऐसे नहीं हो। तुम्हें अधिकार चाहिए पर कर्तव्य तुमसे निभाए नहीं जाते। जब भी कभी कहूँ तो कहते हो तुम तो आत्मनिर्भर हो तुम्हें सहारे की क्या ज़रूरत। दूसरी स्त्रियों के प्रति अतिशय सुरक्षा का तुम्हारा भाव मुझे बड़ा ही आकर्षक लगा था। सोचा था जब अजनबी स्त्रियों के लिए तुम्हारे मन में संरक्षण की इतनी उत्कट भावना है, तो अपनी प्रेयसी के लिए तुम कितना करोगे। पर नहीं! मेरे साथ आकर रात के अंधेरे में तुमने मुझे अकेला छोड़ दिया है। मैं वो स्त्री ही नहीं जो सुरक्षा मांग या चाह सकती है, क्या यही सोचते हो तुम मेरे बारे में? 

हर स्त्री चाहे जितनी भी सशक्त हो, प्रेम चाहती है, संरक्षण की इच्छा रखती है। लेकिन तुम वेश्या हो पुरुष, अवसरवादी और धूर्त! तुम दाम लेकर ही सुख दे सकते हो, वो भी क्षणिक। चिरस्थाई तो सिर्फ मेरा अकेलापन ही है। ये कटु सत्य कभी बदलने वाला नहीं।

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