हे ईश्वर
दुनिया में महामारी का
आतंक तो आज देखने को मिल रहा है और हजारों जानें भी जा रही हैं। पर इन सब जानों
में कुछ ऐसी जानें भी हैं जो अकारण ही स्वेच्छा से मौत को गले लगाए जा रही हैं। आज
फिर एक जान गई है भगवान, आज फिर किसी के घर का दिया बुझ गया। क्यूँ? हँसते बोलते, मुस्कुराते रोज़ मिलने वाले लोग अचानक
एक दिन ठंडे मुर्दा जिस्मों में बदल जाते हैं। पता चलता है तो विश्वास करना
मुश्किल हो जाता है कि कोई ऐसा भी कर सकता था। बाहर चमक दमक में जीने वाले अंदर से
कितने खोखले हो चुके हैं भगवान?
सहनशीलता,
जुझारूपन और जिजीविषा कहीं देखने को ही नहीं मिलती अब। इन आत्महत्याओं के कारण
खोजने जाओ तो बड़ी निराशा होती है भगवान। जान की कीमत इतनी कम है इस संसार में? कभी महंगा फोन तो कभी घंटों खेलने की आज़ादी। कभी कर्ज़ का बोझ तो कभी
प्रेम में निराशा या धोखाधड़ी। इंसान का इंसान पर तो विश्वास कभी का हट चुका था। अब
तो वो अपने आप पर भी भरोसा करना भूल चुका है। मुझे याद आता है कुछ समय पहले मैं भी
कितनी शिद्दत से मर जाना चाहती थी। पर आपने उबार लिया। आज वो स्थितियाँ नहीं हैं
उतनी विकट। सब ठीक हो रहा है और हो भी जाएगा। एक आखिरी चोट और जो मुझे सहनी है
उसके लिए खुद को तैयार कर रही हूँ मैं। कहा था उन्होंने भी ‘भगवान
मिल रहे हैं तुम्हें तो इंसान की क्या ज़रूरत?
सही है। अपनी कमजोरी
को छुपाने का बड़ा खूबसूरत बहाना खोजा उन्होंने। ईश्वर आप क्यूँ लेके आते हैं ऐसे
इंसान मेरे जीवन में? अब अगर वो
दूरी बना भी लें तो क्या मैं भूल सकती हूँ उनको? क्यूँ पुरुष को ऐसा लगता है कि कुछ दूर साथ चल कर अचानक हाथ छोड़ देना एक
स्वस्थ परंपरा है या सहज क्रम है जीवन का। जीवन का सहज क्रम तो वो होता कि हम एक
साथ हमारे सपने पूरे कर रहे होते। अपनी खुद की आँखों से देख रहे होते अपनी सारी
मेहनत साकार होते। वो सब तो छोड़ो, आज तो वो मुझे
किसी कोशिश का हिस्सा भी नहीं बनाना चाहते। वो इतने कब दूर हो गए मुझसे भगवान? मैं
कबसे उनके लिए इतनी पराई हो गई? जानती हूँ अगर वो जानते तो
यही कहते इसकी वजह भी तुम ही हो। हूँ तो!
जो इंसान हमेशा मेरा साथ
नहीं दे सकता, दुनिया के सामने, समाज के सामने मुझे
अपना नहीं सकता उसको अपने प्यार का एहसास दिला के क्या करूंगी मैं? सोचने दो उसे कि मैं उसे बुरा समझती हूँ, उसकी कदर और
इज्ज़त नहीं करती। उस पर शक़ करती हूँ। क्यूँ बताऊँ मैं उसे कि आज भी उसी के लिए
जीती हूँ मैं? क्यूँ बताऊँ कि उसको एक नज़र देखने के लिए
कितना तरसा करती हूँ? कितनी निराशा होती है मुझे जब वो मुझे
मिलने बुला कर नहीं आता और किसी और को भेज देता है। जिसे वो भेजता है वो भी हमारी
आँखों का तारा ही है पर ये भी क्यूँ बताऊँ मैं उसे? नहीं
बताना मुझे उसे कुछ भी। पर जब भी वो मुझे कुछ करने को कहता है मैं न नहीं करना
चाहती, न कभी करूंगी जब तक मेरा बस चले। एक बार एक बात मेरे
खिलाफ क्या चली गई, मुझे उसका एहसास दिलाने का कोई अवसर नहीं
छोडते हैं वो।
आँखों पर औरों की राय का
पर्दा चढ़ा के जब वो मुझसे सवाल जवाब करते
हैं, कुछ बोलने का मन नहीं करता। फिर भी आज उनको आड़े हाथों लिया
मैंने। मैं नहीं दिखाऊँगी उनको सही रास्ता तो कौन दिखाएगा भगवान? इसलिए वो मेरी सुने न सुने, मैं हमेशा उसको सही बात
ही बोलूँगी। दुनिया उस पर हंस सकती है पर उस दुनिया को उस पर हंसने का मौका दिया
तो खुद को कभी नहीं माफ करूंगी।
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