हे ईश्वर
कोरोना एक बार फिर पूरे देश में पाँव पसार चुका है और इस बार पहले से भी खतरनाक रूप लेकर। इस बार तो किसी को भी नहीं बख्श रहा है। क्या बूढ़े क्या जवान सब इसके चपेट में आते जा रहे हैं। पूरे देश में डर और संशय का माहौल है और मैं यहाँ... अपने घर से इतनी दूर! मैं अपने घर से दूर क्यूँ हूँ? इसका क्या जवाब दूँ? घर पर सब एक साथ हैं और मैं यहाँ हूँ। मेरा भी मन कर रहा है वहाँ होने का... पर हर इच्छा पूरी होने के लिए नहीं बनी होती। मुझे भी घर जाने को ज़रूर मिलेगा पर ऐसे सर झुका कर हार कर मैं नहीं जाऊँगी। बिलकुल भी नहीं... जब तक मेरी स्थिति परिस्थिति सब ठीक नहीं हो जाती तब तक इस तरह एकाकी रहना ही मेरे लिए सही है और श्रेयस्कर भी।
कभी कभी सोचती हूँ सब कुछ इतना कैसे बिगड़ गया? हालात इतने कैसे खराब हो गए? मैं ऐसे कैसे इतने महीनों से इस स्थिति में ऐसी फंसी कि आज तक इस दलदल से निकल नहीं पा रही हूँ। क्या मैं सच में गलत हूँ? क्या मैं सच में ढीठ हूँ? क्या मैंने सच में एक बेज़ा ज़िद पकड़ रखी है? क्या मैंने सच में कुछ गलत किया था? क्या सचमुच मेरे इरादों में कोई खोट था?
एक बार को मन होता है सर झुका कर मान लूँ इन प्रभावशाली लोगों का आदेश। लेकिन फिर अपनी सुरक्षा और आत्म सम्मान की कीमत पर कोई समझौता करने को मन नहीं मानता। मैं कितना डर गई हूँ भगवान। भविष्य को लेकर कितनी सशंकित होती जा रही हूँ। वो भविष्य जो कभी पानी की तरह साफ हुआ करता था। आज ऐसा गंदला पानी हो चुका है कि कुछ नज़र ही नहीं आ रहा। एक बात बताइये न आप? अगर किसी के पास प्रभाव है तो क्या ये ज़रूरी है कि अपने पद और प्रभाव को वो लोगों को नीचा दिखाने के लिए इस्तेमाल करे? कोई भी प्रभावशाली व्यक्ति क्यूँ हमेशा बस शासन करना चाहता है, संरक्षण नहीं? कब ऐसा होगा कि कोई अपने घमंड और दुराग्रह को किनारे कर के अपने फैसले लेगा? कब ऐसा होगा कि एक आत्मनिर्भर, सशक्त स्त्री को नीचा दिखाने के बजाय कोई उसे सराहेगा?
भगवान मुझे एक सही राह दिखा दो न, मुझे अब कुछ समझ नहीं आ रहा!