हे ईश्वर
मेरे जीवन के एकांत में
आपने आज अकेलापन भी घोल दिया। हमें बड़ा घमंड था अपने संयत और तटस्थ रहने का आपने
वो तोड़ दिया। आजकल हम फिसलते जा रहे हैं। बार बार जैसे ही लगता है हम अब संभल गए
हैं, पैरों के नीचे से जमीन यूं निकलती है जैसे कभी थी ही नहीं....
जो कुछ देर पहले हुआ वो
क्यूं हुआ, क्या ज़रूरत थी? जो सालों पहले हुआ वो भी क्यों हुआ, क्या जरूरत थी? उस इन्सान को मेरी ज़िंदगी में आप क्यो लाए? क्यू उसे इतना
ज़रूरी बना दिया कि उसके बिना खुद अपनी ज़रूरत भी नहीं लगती हमें। पता नहीं उस
इन्सान को क्या मिलता है ये सब करके?
आज जब हमने डूबने से बचना
चाहा तो एहसास हुआ कि सबने हमको थाम रखा है। हम तो पतवार हैं और नाव भी! हमें
डूबने का कोई हक ही नहीं है। बहुत ज़ोर से हाथ पांव मारने का मन हुआ, दिल हुआ कहें
किसी से कि आए और संभाले हमें!! वरना सब टूट जायेगा, बिखर जाएगा....लेकिन जब हाथ बढ़ाया तो एहसास हुआ
कि अपने थके हुए मन मस्तिष्क के साथ भी हमको किसी और को भी किनारे लेकर आना है।
मेरी हंसी के पीछे के आँसू किसी ने देखे नहीं और मेरी आवाज़ के कंपन में घुली हुई
मेरी घबराहट भी नहीं पकड़ी...
इसलिए सहारे के लिए बढ़े हुए
अपने हाथ को चुपचाप समेत लिया हमने। खामोशी ओढ़ ली और दर्द से टीसते हुए दिल को डपट
के चुप करवा दिया। आज अगर एक बार किसी के सहारे के लिए हाथ बढ़ा दिया तो किस मुंह
से कल सिर उठा के कहेंगे
'हम किसी सहारे के बिना ही जिए हैं इतने साल!'
न किसी को मेरी परवाह न
कहीं भी मेरा जिक्र होता है। बस जरूरतों की एक अंतहीन सी सूची है जो थमाए जा रहे
हैं। क्या किसी दिन कोई ऐसा होगा जिसे हम अपनी जरूरतों की लिस्ट देकर निश्चिंत हो
सकें। क्या कोई ऐसा कंधा होगा कभी जो मेरा सिर खुद से लगा ले। क्या एक सुकून की
रात होगी कहीं जब हम किसी के ऊपर सब कुछ छोड़ के निश्चिंत से सो सकेंगे,
शायद नहीं। मेरे या किसी भी कामकाजी लड़की के जीवन में न
ऐसे कंधे होते हैं न ऐसे सुकून
हमारे लिए तो बस सूचियाँ ही
बनी हैं शायद