Tuesday, 20 November 2018

हारे हुए लोग

अध्याय ५८

हे ईश्वर

सच के लिए लड़ना कितना मुश्किल है न? बार बार मुंह की खानी पड़ती है, अपमानित होना पड़ता है। लोगों के सामने बेशर्म बनकर उनसे अपनी दुस्साहसी आंखें मिलनी पड़ती हैं। एक सच प्यार है और एक ईमानदारी ।पर आज दोनों ही हारते दिख रहे आपकी दुनिया में। कोई नहीं है मेरा भगवान, आपके सिवा। क्यों कहूँ कि वो प्यार मेरा है जो फ़र्ज़ की बलिवेदी पर मेरे सपने कुर्बान कर चुका है। क्यों कहूं कि वो समाज मेरा है जो मुझे जीने और प्यार करने का हक़ देने को तैयार नहीं। क्यों कहूँ कि वो सहकर्मी और वरिष्ठ मेरे हैं जो मेरी दिन रात की मेहनत को अनदेखा करके किसी और को उसका श्रेय ही नहीं देते बल्कि मुझे कुछ इस कदर अपमानित करते हैं कि अपनी मेहनत से मुझे नफरत हो गई है। आजीविका तो भगवान मैं कैसे भी कमा लूंगी पर जो इज़्ज़त और सम्मान मेरा हक है, वो न मिले तो क्या करूँगी? मैं इतना अपमान सहन नहीं कर सकती। ये मेरी एकमात्र कमज़ोरी है।

आज यदि मैं अपने हक़ और सम्मान के लिए न लड़ सकूँ, खुद की दांव पर लगी हुई प्रतिष्ठा की रक्षा न कर सकूं,  तो कल कैसे किसी और के हक़ की रक्षा का दावा कर सकूंगी? मैं हारती जा रही हूं भगवान। मुझे आपकी दुनिया में रहना ही नहीं आया। मैंने तो सोचा था कि प्यार, सच्चाई, ईमानदारी और श्रद्धा के साथ मैं ज़िन्दगी की हर बाज़ी जीतूंगी। पर चापलूसी और कपट के मायाजाल ने हर बार मुझे हरा दिया। मेरी हर ईमानदार कोशिश इनकी साज़िशों से हार गई। अब और लड़ने की मेरी क्षमता नहीं है। तो क्या मान लूँ की आपकी दुनिया में प्यार, सच्चाई  श्रद्धा और ईमानदारी के लिए कोई जगह नहीं? क्या सोच लूँ कि मेरी जिंदगी में वो इंसान आयेगा ही नहीं जो समाज और परिवार के सामने मेरा हाथ थामने का साहस रखता  हो? सोच लूँ कि अब मेरा रास्ता वो अंधेरी सुरंग है जिसके किसी छोर पर रोशनी नहीं है। ये इंसान जिसे आपने भेजा था स्वार्थी और बेरहम लोगों से मेरी रक्षा करने के लिए, वो खुद इतना स्वार्थी क्यूँ हो गया है? क्यूँ बेरहमी के साथ मेरे सारे सपने, सारे अरमान पाँव के तले कुचलता जा रहा है? 

हँसते हैं सब मुझ पर और आप मौन हैं! मैं जब भी अपने दुख दर्द उनसे कहती हूँ, वो मुझे delusional कह कर चुप करा देते हैं। वर्तमान में जियो, भविष्य की परवाह मत करो! जो है उसी में खुश रहो, ज्यादा की उम्मीद मत करो। ज्यादा सवाल करने पर 'ढूंढ लो न कोई और' या फिर ये कि 'मैं कभी तुम्हारे इतना नजदीक आना नहीं चाहता था। ये सब तुमने अपनी इच्छा से किया।' सच है कि आत्मघात की इच्छा मुझे हुई जरूर पर मेरी गर्दन पर  छुरी चलाने वाले हाथ मेरे नहीं थे भगवान! मैंने हमेशा की तरह इंसानियत और वफादारी की उम्मीद की थी। जिससे उम्मीद की थी वो इस लायक भी था। पर सच भगवान, मैं भूल गई कि आपकी दुनिया में किसी की प्रेयसी बनने की जो योग्यता होती है वो आपको किसी की जीवनसंगिनी बनने से रोक भी देती है। एक निश्चित समय और बिल्ले के साथ पैदा होना मेरे अंदर के सारे गुणों पर भारी पड़ गया। मैं वो इंसान हूँ ही नहीं जिसके साथ कोई जिंदगी बिताना चाहे। मैं तो वो हूँ कि जब थक जाए तो थोड़ी देर आराम कर ले या बोर हो तो मनोरंजन। अपने बारे में न जाने कैसे कैसे विचार आने लगे हैं आजकल। अपनी हर अच्छाई को भूल कर एक बार फिर उसी बुराई में सर से पाँव तक डूब जाने को दिल करता है, जिसके लिए मैं बदनाम हूँ।

मैं क्या करूँ भगवान? तुम्हारी दुनिया मुझे जीने नहीं देती और किसी का अटूट विश्वास मुझे मरने नहीं देता। 


Thursday, 1 November 2018

भगोड़े



अध्याय ५७

हे ईश्वर
क्या चीज बनाई है आपने इंसान। पर आपकी दुनिया में अब बसते कहाँ हैं वो? अब तो मर्द-औरत, हिन्दू-मुस्लिम, उंच जात-नीच जात...और भी ऐसी कई प्रजातियों ने उनकी जगह ले ली। कल मैं जिसको मिली थी वो इन सब में पता नहीं किस प्रजाति का था। सबके सामने बात तक नहीं कर सकते और अकेले में प्यार के लंबे लंबे दावे! मैं इस सब से अब थक सी गई हूँ। इसलिए कल मैंने उससे कहा मुझे 6 महीने के लिए अकेला छोड़ दो। वो हमेशा कहा करता था मुझे कि मुझे कुछ दिन अकेला छोड़ दो और मैं छोड़ भी देती थी। आज मैंने उससे ये मांग लिया। डर लग रहा है पर कुछ हिम्मत तो करनी होगी। जिस इंसान की सबके सामने मुझे स्वीकार करने की हिम्मत नहीं, उसके लिए मैं क्यूँ दिन रात परेशान रहा करती हूँ। मैंने भी सोच लिया है की मुझे थोड़ा तो कठोर होना ही होगा। लेकिन मेरी सारी कठोरता धरी की धरी रह जाती है। वो ज़रा सा मुझसे दूर होता है और मैं मोम की तरह पिघल जाती हूँ। 

वो एक ज़िम्मेदार, समझदार और दुनियादार इंसान है। फिर भी मैं उसकी इतनी फिक्र क्यूँ करती हूँ? क्या होगा अगर मैं न रहूँ उसके साथ? वैसे भी ये साथ है भी कितने दिनों का! यही सब सोचती हूँ और ये भी कि इतनी स्वार्थी दुनिया में अगर उसके पास उसकी फिक्र करने वाला कोई न रहे तो क्या होगा? मेरे ईश्वर, आपको तो सारी चीज़ें पता रहती हैं फिर भी क्यूँ बनाते हो ऐसे रिश्ते? एकतरफा न होकर भी एकतरफा प्यार, आधे अधूरे रिश्ते? एक ही ट्रेन में सामने की सीट पर बैठे अजनबी मगर अपने लोग। फिर ये इल्ज़ाम कि आखिर किया ही क्या है तुमने? करती ही क्या हो? सच है। एक आत्मनिर्भर और आत्मविश्वासी स्त्री को खत्म करने का और क्या तरीका हो सकता है? उसकी उपलब्धियां, उसके संघर्ष उसके सारे सच सिर्फ इसलिए नगण्य हैं क्यूंकि वह एक स्त्री है। उसकी नाराजगी पागलपन है, उसका गुस्सा उन्माद है और उसका दुख कोई इतनी भी बड़ी बात नहीं। उसके लिए बड़े सीमित विकल्प होते हैं। बच्चा गोद लेना, समाज सेवा में खुद को झोंक देना या फिर दूर देश कहीं एक ऐसी जगह रहना जहां उसे कोई न जानता हो।

आपने मुझे न कायर बनाया न दुनियादार। इसलिए ये दुस्साहसी लड़की तो सारे रस्मों रिवाज धता बता कर समाज की आँखों में अवज्ञा की मिर्च झोंक कर बस चलती जा रही है। कोई फर्क ही नहीं पड़ता कितने भी संघर्ष हों, रुकावटें हों दुख तकलीफ हो। मैंने कभी परवाह ही नहीं की। बस मेरे अपनों की नज़रों में जो तिरस्कार नज़र आता है वही है मेरे पैर की बेड़ी। वो भी कभी कभी कटी हुई सी नज़र आती है और कभी कभी ऐसे जकड़ लेती है मुझे कि संस तक लेना दुश्वार हो जाता है। मैं न पूरी तरह आज़ाद हूँ न बंधी हुई। त्रिशंकु सी होती जा रही हूँ। क्या करूँ? आप ही कोई रास्ता दिखाओ।

अकेले हैं तो क्या गम है

  तुमसे प्यार करना और किसी नट की तरह बांस के बीच बंधी रस्सी पर सधे हुए कदमों से चलना एक ही बात है। जिस तरह नट को पता नहीं होता कब उसके पैर क...