Thursday 1 November 2018

भगोड़े



अध्याय ५७

हे ईश्वर
क्या चीज बनाई है आपने इंसान। पर आपकी दुनिया में अब बसते कहाँ हैं वो? अब तो मर्द-औरत, हिन्दू-मुस्लिम, उंच जात-नीच जात...और भी ऐसी कई प्रजातियों ने उनकी जगह ले ली। कल मैं जिसको मिली थी वो इन सब में पता नहीं किस प्रजाति का था। सबके सामने बात तक नहीं कर सकते और अकेले में प्यार के लंबे लंबे दावे! मैं इस सब से अब थक सी गई हूँ। इसलिए कल मैंने उससे कहा मुझे 6 महीने के लिए अकेला छोड़ दो। वो हमेशा कहा करता था मुझे कि मुझे कुछ दिन अकेला छोड़ दो और मैं छोड़ भी देती थी। आज मैंने उससे ये मांग लिया। डर लग रहा है पर कुछ हिम्मत तो करनी होगी। जिस इंसान की सबके सामने मुझे स्वीकार करने की हिम्मत नहीं, उसके लिए मैं क्यूँ दिन रात परेशान रहा करती हूँ। मैंने भी सोच लिया है की मुझे थोड़ा तो कठोर होना ही होगा। लेकिन मेरी सारी कठोरता धरी की धरी रह जाती है। वो ज़रा सा मुझसे दूर होता है और मैं मोम की तरह पिघल जाती हूँ। 

वो एक ज़िम्मेदार, समझदार और दुनियादार इंसान है। फिर भी मैं उसकी इतनी फिक्र क्यूँ करती हूँ? क्या होगा अगर मैं न रहूँ उसके साथ? वैसे भी ये साथ है भी कितने दिनों का! यही सब सोचती हूँ और ये भी कि इतनी स्वार्थी दुनिया में अगर उसके पास उसकी फिक्र करने वाला कोई न रहे तो क्या होगा? मेरे ईश्वर, आपको तो सारी चीज़ें पता रहती हैं फिर भी क्यूँ बनाते हो ऐसे रिश्ते? एकतरफा न होकर भी एकतरफा प्यार, आधे अधूरे रिश्ते? एक ही ट्रेन में सामने की सीट पर बैठे अजनबी मगर अपने लोग। फिर ये इल्ज़ाम कि आखिर किया ही क्या है तुमने? करती ही क्या हो? सच है। एक आत्मनिर्भर और आत्मविश्वासी स्त्री को खत्म करने का और क्या तरीका हो सकता है? उसकी उपलब्धियां, उसके संघर्ष उसके सारे सच सिर्फ इसलिए नगण्य हैं क्यूंकि वह एक स्त्री है। उसकी नाराजगी पागलपन है, उसका गुस्सा उन्माद है और उसका दुख कोई इतनी भी बड़ी बात नहीं। उसके लिए बड़े सीमित विकल्प होते हैं। बच्चा गोद लेना, समाज सेवा में खुद को झोंक देना या फिर दूर देश कहीं एक ऐसी जगह रहना जहां उसे कोई न जानता हो।

आपने मुझे न कायर बनाया न दुनियादार। इसलिए ये दुस्साहसी लड़की तो सारे रस्मों रिवाज धता बता कर समाज की आँखों में अवज्ञा की मिर्च झोंक कर बस चलती जा रही है। कोई फर्क ही नहीं पड़ता कितने भी संघर्ष हों, रुकावटें हों दुख तकलीफ हो। मैंने कभी परवाह ही नहीं की। बस मेरे अपनों की नज़रों में जो तिरस्कार नज़र आता है वही है मेरे पैर की बेड़ी। वो भी कभी कभी कटी हुई सी नज़र आती है और कभी कभी ऐसे जकड़ लेती है मुझे कि संस तक लेना दुश्वार हो जाता है। मैं न पूरी तरह आज़ाद हूँ न बंधी हुई। त्रिशंकु सी होती जा रही हूँ। क्या करूँ? आप ही कोई रास्ता दिखाओ।

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