हे ईश्वर
मैं आज बुरी तरह हारा हुआ महसूस कर रही हूँ। आज पहली बार एहसास हो रहा
है कि मुझे इन्सानों की ज़रा भी पहचान नहीं है। मैं हर बार धोखा खाती हूँ और फिर भी
नहीं सीखती। एक बार ठोकर लग जाए तो इंसान अपने आप चलना सीख जाता है पर मैं तो न जाने
कैसी हूँ?? कब सीखूंगी।
जिनके सुख आराम के लिए, खुशियों के लिए, सपनों के लिए मैं प्रयास करती रहती हूँ उनकी नज़रों में मैं उनके दुख का कारण
हूँ। क्या इससे बड़ी चोट मुझे पहुँच सकती है कभी? सच कहूँ भगवान
मैंने कोशिश बहुत की। पर किसी के दिल में जगह बनाना शायद इस जनम में मुझसे नहीं हो
पाएगा। मैंने अपने जीवन में कभी ग्लानि या पछतावे को जगह नहीं दी। जो भी हुआ, जैसा भी हुआ अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर स्वीकार किया। गलती चाहे जिससे हुई मैं
हमेशा उसे अपने सर लेके सामने वाले को निश्चिंत कर देती हूँ।
पर एक बात बताओ न माँ? ऐसे लोग क्या कभी आईना
भी नहीं देखते? घर की ज़िम्मेदारी, परिवार
का सुख-दुख, घरवालों की खुशी इन सब का रास्ता मेरे ही सपनों की
लाश से होकर क्यूँ जाता है? अगर जाता है तो दूरी क्यूँ नहीं रखते।
रखते भी हैं तो देर से। जब मैं अपना समय, श्रम और प्रेम सब न्योछावर
कर चुकी होती हूँ। सब कुछ देके भी मेरे हिस्से आती है तो केवल नफरत।
बहुत से सवाल अपने मन में उठते हैं पर मैं किसी से भी पूछ नहीं सकती।
मैं पहले ही सवाल-जवाब के सारे दरवाज़े बंद कर चुकी हूँ। मेरी ही मौन स्वीकृति ने उनके
हर सही गलत व्यवहार को जायज़ बना दिया है। दोष दूँ भी तो किसे? और क्यूँ? क्या मेरे दोष देने या नफरत करने से कुछ बदल
जाएगा? कल जो मुझे दुनिया घुमाने के दावे करते थे आज वही दुनिया
के दूसरे छोर पर जाने को तैयार हो गए मेरे कारण। तो मैं भी एक वादा करती हूँ ईश्वर।
मैं बिखरूंगी नहीं। उनके सामने तो बिलकुल भी नहीं। मेरी जिंदगी और मेरे दिल का हर दरवाजा
उनके लिए खुला है। हाँ,हमेशा खुला रहेगा क्यूंकि इंसानियत और
प्रेम का पाठ पढ़ने के बाद दुनियादारी सीखना शायद थोड़ा मुश्किल है। है न?