Wednesday, 6 February 2019

आखिरी बाज़ी II

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हे ईश्वर

अगर तुम मुझसे प्यार करती हो तो... इस तो के आगे नियम, शर्तों और मांगों का एक बेहद लंबा जाल है। कभी तोहफे, कभी मांगें और कभी जिदें सब इसी एक सूत्र के सहारे पूरे होते हैं। क्यूँ झुक जाते हैं हम ऐसी बातों के आगे? एक तरफ तो हम प्यार को एक निस्वार्थ भाव और समर्पण मानते हैं और दूसरी तरफ उसी समर्पण का सौदा करने से नहीं चूकते। वो कौन लोग हैं जो किसी का प्यार नहीं, श्रद्धा भी नहीं, केवल सौदा चाहते हैं।

आज किसी ने मुझे भी ऐसे ही मजबूर किया तो मैं भी सोचने पर मजबूर हो गई। कितने ऐसे लोग होंगे जो प्यार को तोहफों, शर्तों और नियम-कायदों से बांधते होंगे। क्या दुनिया में कोई ऐसा रिश्ता नहीं जो स्वार्थ से परे हो? क्या हम कभी किसी रिश्ते के हमेशा अपने साथ होने की तसल्ली को महसूस नहीं कर पाएंगे? क्या सारी जिंदगी हमें इस असुरक्षा के भाव को ही अपनाना होगा? एक पल वो कहते हैं मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ फिर अगले ही पल उनके धमकी भरे अंदाज़ से मन सहम जाता है।

मैं उनको खोने से डरती तो हूँ पर साथ ही साथ अपनी कमजोरी पर शर्मिंदा भी हूँ। क्यूँ मेरा मन एक बार विद्रोह नहीं करता? क्यूँ मैं भी उनकी तरह तन कर, अकड़ कर नहीं बोल पाती तुम चाहो तो साथ रहो, चाहो तो जाओ। मुझे फर्क नहीं पड़ता। उनकी शुरू की हुई इस रेस को मैंने जीत तो लिया फिर भी हार का एहसास हुआ। मैंने अपने आप को हार कर आज की ये तसल्ली पाई है। ऊपर से ये तसल्ली भी न जाने कितने दिन की मेहमान है। शायद कभी कोई ऐसी फरमाईश या आज़माईश हो और मैं हार जाऊँ, तो? तो जिंदगी भर मुझे ये हार अपने कंधे पर ढोनी होगी।

आज अगर मैं कह भी दूँ कि हमें अलग हो जाना चाहिए तो उनकी छोटी सी तसल्ली भरी हाँ मेरा दिल तोड़ देगी। मैं जानती हूँ पलट कर वो नहीं आएंगे, मुझे उन्हें मनाना होगा। मैं झुकती हूँ अपने रिश्ते के लिए, उनके लिए अपने प्यार के लिए, उनकी नज़र में मेरे लिए झलकती फिक्र के लिए। क्या वो जानते हैं? जिस दिन ये प्यार, ये फिक्र, ये नज़र किसी और की हो जाएगी, उस दिन शायद मैं भी कह सकूँगी “जाते हो तो जाओ, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता”

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