हे ईश्वर
किसी पौधे को बाहर की
धूप, हवा और पानी से ज्यादा उसकी अपनी जड़ें मजबूत करने की ज़रूरत होती है। अगर
वो मजबूत हों तो फिर बाहर का कुछ भी उसे हिला नहीं सकता। अगर कुछ समय के लिए वो
कटे, छँटे या टूटे भी तो फिर उठ खड़ा होने की ताकत हमें हमारी
जड़ें ही देती हैं। हम टूटते भी पहले अंदर से ही हैं। फिर ही कहीं बाहर के थपेड़े हम
पर असर कर सकते हैं।
ईश्वर आपने मेरी जड़ें
बेहद मजबूत बनाई हैं। इसलिए तो बाहर के मौसम मुझे हिला देते हैं, पर मिटा
नहीं सकते। मैंने अपनी जिंदगी में रिश्तों से हमेशा मात ही खाई है, शह का अभी कोई अवसर नहीं आया। अपने रिश्तों को संभालने के लिए लिए गए
मेरे सारे निर्णय आज सवालों के घेरे में हैं, पर मैं जानती
हूँ कि एक दिन सब समझ जाएंगे, सबको मिल जाएंगे अपने जवाब।
मैं अविवाहित क्यूँ रहना
चाहती हूँ, उसका कोई एक कारण तो नहीं है। लेकिन अक्सर मुझे अपने इस निर्णय के लिए
कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है। कैसे समझाऊँ और किसको समझाऊँ? मेरे अंदर इतनी ताकत नहीं है कि एक नए परिवार और परिवेश में ढल सकूँ।
उम्र के इस दूसरे पड़ाव में अपनी आदतों और रहन सहन में कोई भी बदलाव मेरे लिए घातक
सिद्ध हो सकता है। मुझे डर लगता है भगवान किसी को अपने जीवन में इतनी सारी जगह
देने से।
इतना प्रयास करके, इतनी
ईमानदारी बरत के भी मेरे इतने जतन से सहेजे हुए रिश्तों का ये हाल है! तो फिर नए
रिश्ते न जाने किस कठघरे में मुझे खड़ा करेंगे? क्या क्या
कैफ़ियतें मांगेंगे, बीते हुए सालों का न जाने कैसे आकलन
करेंगे? ये सब न होता अगर मैं भी तुम्हारी दुनिया की तरह
झूठी और मक्कार होती!
पर मैं वैसी नहीं हूँ।
एक बार मैंने आपसे कहा था कि जीवन एक अधखुली या बंद किताब होना चाहिए। पर मेरा
जीवन तो ऐसा नहीं है। इस किताब का कौन सा पृष्ठ न जाने कब खुल जाए, कौन कह
सकता है?
पर एक बात तो है। मुझे
आगे बढ़ने में वक़्त ज़रूर लगता है पर मैं कभी आगे बढ़ कर पीछे हटने में विश्वास नहीं
रखती। फिर भी आपका समाज मुझे आज भी मेरे अतीत से ही जोड़ कर देखता है। ऐसे समाज में, ऐसे
परिवेश में मैं एक नई शुरुआत की उम्मीद भी कैसे कर सकती हूँ?
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