एक और नारीवादी फिल्म आई
और शोरशराबा शुरू हो गया। कुछ नया नहीं है से लेकर ऐसा थोड़ी न होता है। अति नाटकीयता
और अविश्वसनीयता के इल्ज़ाम भी लगे। पर जब मैंने ये फिल्म देखी तो सबसे पहले मुझे सिर्फ
दहशत महसूस हुई। डर लगने लगा था। इंसान के भेस में न जाने कैसे कैसे जानवर घूम रहे
हैं इस दुनिया में। वैसे भी जिस तरह की घटनाएँ हमारे आस पास हो रही हैं, ऐसी किसी
संभावना से इंकार भी तो नहीं किया जा सकता।
बहुत दिन बाद सतही और बिना
सर पैर की कहानियों से अलग एक ताजी हवा के झोंके जैसी एक कहानी देखी। पर इस हवा के
झोंके में एक सड़ांध भी है – पुरुष की बीमार और दमनकारी मानसिकता की सड़ांध!
हम जानते हैं शायद हर अच्छी
कहानी की तरह ये कहानी भी ज़्यादा न देखी जाए। आखिर हमें तो केवल मनोरंजन चाहिए, हम बेसुध
होना चाहते हैं। सोना चाहते हैं, फूहड़ हंसी से अपने अंदर की चीत्कार
को दबा के रखना चाहते हैं। पर हमें ऐसा करना नहीं चाहिए। जब तक ये असहज सच्चाईयाँ हमारी
आँखों में मिर्च नहीं झोंकेंगी, हम जागेंगे नहीं। हमें महसूस
करना होगा हमारी जलाई गई बहन बेटियों के सीने की जलन को, तभी
शायद पूरे देश में फैली हुई ये आग बुझेगी।
पर्दे पर दिखाई गई वहशत कुछ
नई नहीं लगी। ऐसा हो रहा है, पूरी दुनिया में। पर किरदार के मुंह से निकले
लफ्ज सुनकर मैंने कुछ लोगों को हँसते भी देखा। किसी मुसीबत में पड़ी हुई स्त्री की मदद
करने के बजाय फोन में उन वीभत्स घटनाओं को कैद करने वाले समाज से मैं और क्या उम्मीद
करूँ?
बहुत लंबा रास्ता तय करना
है लेकिन अभी। अभी तो केवल हम इन सब सच्चाइयों को पर्दे पर दिखाने का साहस ही जुटा
पाए हैं। जिस दिन इन्हें देखकर किसी का दिल दहल जाए, किसी वहशी दरिंदे का मन पिघल
जाए, किसी कातिल के हाथ कांप उठें और किसी मासूम की जान और इज्ज़त
बच जाए उस दिन हम अपनी मंज़िल तय कर चुके होंगे।
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