हे ईश्वर
‘रिश्ता
आया है!’ इतने बरसों बाद किसी ने मुझ तक पहुँचने की हिम्मत
की है। मेरा हाथ मांगा है, मुझसे मेरी मर्ज़ी पूछी है। कैसे कहूँ
कैसा लग रहा है। उनको बताया तो उन्होंने सीधा कह दिया ‘जो मर्ज़ी
करो!’ ‘कर लो न शादी!’ फिर नाराज़ भी हो गए, बुराइयाँ भी गिनवा दीं मेरी सारी
की सारी और धोखेबाज़ी का इल्ज़ाम भी लगा ही दिया। पर सारी की सारी गलती क्या मेरी है
भगवान? बोलो? मुझे क्या पता था जिन लोगों
की तरफ मैंने दोस्ती का हाथ बढ़ाया वो मुझमें कुछ और ही खोज रहे थे।
मैं क्या करूँ? याद है एक
बार घर में काली तुलसी का पेड़ उग आया था और माँ ने कहा था ‘काली
तुलसी को घर में नहीं लगाते। वो तो खुद से उगती है लेकिन घर की दहलीज़ के बाहर। उसके
लिए कोई शालिग्राम नहीं, उसका कोई घर नहीं। वो तो जहां जड़ें जमाती
है वही उसका घर हो जाता है। जहां उग आती है खुद ब खुद। घर में कभी उग भी जाए तो लोग
उसे उखाड़ के बाहर कर देते हैं। मैं भी तो वही हूँ। काली तुलसी...
घर के बाहर, दहलीज़ से
दूर। खुद से खुद की जड़ें जमाए हुए। वो अलग बात है कि आजकल हमारी जड़ों में मट्ठा कुछ
जादे पड़ गया है। मुर्झाऊंगी या झेल जाऊँगी ये तो बस आपको पता है न भगवान। उस सब के
बीच में ये एक घर, जो मुझे बुला रहा है अपनाने के लिए।
जिसे मैंने पूरे मन से अपना
घर माना उसके दरवाजे तो मेरे लिए कभी न खुलेंगे। वो खुद कहते हैं मेरे घर के लिए तुम
सही नहीं हो। मेरे क्या किसी भी घर के लिए तुम सही नहीं हो। जो कुछ भी पिछले कुछ महीनों
में हुआ उसके लिए भी मेरे कर्मों को दोष देते हैं वो। पता नहीं भगवान मैंने सच में
कोई ऐसा करम किया भी था या बस मेरा बुरा वक़्त किसी को बोलने का मौका दे रहा है।
ईश्वर, बुरा वक़्त
सब का आता है जैसे मेरा आया है। गुज़र तो जाएगा और सब शायद कल ठीक भी हो जाए। इसी बीच
जितने भी दिन थे, कितने प्यार से बिताए उन्होंने। जैसे दिया बुझने
के ठीक पहले लौ अपने पूरे ज़ोर पर होती है। क्या सच में ये दिया बुझने वाला है ईश्वर? क्या सच में जाना है मुझको ये सब छोड़ कर ऐसे ही?
काश कि किसी ने ऐसा सोचा
ही नहीं होता, न चाहा होता। काश कि मेरी तरफ कदम बढ़ाने से पहले मिल जाए उसे कोई
और मुझसे बेहतर। मेरी हर इच्छा जब मर चुकी थी जब मैंने सोच ही लिया था पक्के मन से
अकेले ही काट देनी है अपनी जिंदगी मैंने... तब आकर कोई कहता है आओ मेरे साथ चलो। क्या
इतना आसान है ये करना, भगवान? बताइये?
आजकल कहते हैं वो चली जाओ।
क्या सच में चली जाऊँ? बताइये मुझे! काश कि सब मुझे छोड़ कर आगे बढ़ जाएँ और मैं बस यूं
ही रह जाऊँ। जिसने भी मुझसे उम्मीद लगा रखी है मुझे उसकी उम्मीद से डर लगता है। अतीत
कभी भी वर्तमान के सामने आकर खड़ा हो गया तो जवाब देना मुश्किल हो जाएगा ईश्वर। काश
जो बीत गया वो पूरी तरह बीत जाता। फिर शायद मैं भी आगे बढ़ सकती। पर मैं हमेशा से वहीं
खड़ी हूँ और ताजिंदगी शायद यहीं रहूँगी। मेरा मन अभी भी नहीं मानता है। बरसों से तो
ज़िद ठाने बैठा है, इतनी जल्दी क्या मानेगा? जो भी कल हो नहीं पता मगर अपनी उलझनों के चलते किसी और को नहीं उलझा सकते
हम। ये सब उलझनें और दुश्वारियां हमारी अपनी हैं, किसी से नहीं
बाँट सकते। अपनी उलझन में किसी और की सीधी सादी ज़िंदगी भी उलझा ली तो कभी माफ नहीं
कर पाएंगे खुद को। हमसे ऐसा पाप मत करवाइए ईश्वर। मोड़ दीजिए हर उस कदम को जो मेरी तरफ
बढ़ते देखा है आपने। हम शायद सच में ऐसे किसी घर के लायक नहीं हैं जो हमने खुद न बनाया
हो।
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