Wednesday, 3 March 2021

टुकड़े टुकड़े ज़िंदगी

 

हे भगवान

आपको इतनी बार बुलाया है पर मेरी आवाज़ जैसे आपको सुनाई ही नहीं देती। याद है एक बार मैंने कहा था आपको हर किसी की के लिए कोई न कोई तो होता ही है। रास्ता दिखाने के लिए। साथ चलने के लिए, साथ देने के लिए। मैं क्यूँ अकेली हूँ फिर? आपने किसे बनाया है मेरे लिए? कौन है जो हमेशा मेरा साथ देगा? हाथ पकड़ कर रखेगा मेरा सारी ज़िंदगी?’ बहुत बार आपको बुलाने के बाद एक दिन आप सपने में आयीं थीं मेरे। घर था, दोस्त थे सब लोग थे... सबसे छुड़ा कर आप लेकर गईं थीं न अपने साथ। मैंने आपसे फिर से पूछा, बार बार पूछा फिर भी मुझे जवाब नहीं मिला। सारे रास्ते॥ और उस पहाड़ पर आपके घर पर भी.... आप बस बहुत खूबसूरती और खामोशी से मुस्कुराती रहीं, कुछ बोली भीं नहीं और मेरा सपना भी टूट गया। बाद में मुझे समझ आया, सारे रास्ते आप ही साथ थीं, आपने ही तो पकड़ा था मेरा हाथ। फिर और मुझे क्या चाहिए था?

उसके मैंने ज़िंदगी में कभी भी ये सवाल आपसे कभी नहीं पूछा।  कभी भी नहीं। लोग आते थे, जाते थे। रास्ते में कुछ दूर साथ चलते थे और फिर चले जाते थे। मैंने फिर कभी नहीं पूछा कोई आया तो क्यूँ? गया तो क्यूँ? और कब तक रहेगा। जब भी फिर कभी ये सवाल मुझे परेशान करता है बस वो सपना याद कर लेती हूँ। समझ जाती हूँ कि कोई रहे या न रहे आप हमेशा रहेंगी मेरे साथ।

फिर भी लोग समझते नहीं हैं। न मुझे किसी के आने की उम्मीद है न वापस जाने का दुख। मेरी जिंदगी खुद एक सफर है। पता नहीं कब इस दर से भी भटकना पड़े सब कुछ समेट कर। ठहरना तो जैसे मेरा नसीब ही नहीं। जिसने खुद मेरे साथ चलने से इंकार कर दिया वो खुद किस मुंह से मेरा रास्ता रोकता है, बताओ न?

लेकिन माँ कल जो हुआ मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगा। जिसे नहीं रहना वो न रहे। पर कम से कम मुझे अपनी ज़िंदगी जीने दे, अपने फैसले खुद लेने दे। मैं आपके अलावा किसी की भी ज़िम्मेदारी नहीं हूँ माँ!

2 comments:

  1. सीधे दिल से निकली बात । जो तन लागे सो तन जाने ।

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  2. धन्यवाद आपका।

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