हे ईश्वर
‘सबको सबकुछ नहीं मिलता’ ये बात कह कह कर न जाने कितने लोग खुद को समझा लेते
हैं। किसी चीज़ के लिए अदम्य इच्छा होने पर भी उसे यह कह कर छोड़ देते हैं कि किस्मत
में होगी तो मिल जाएगी। विवाह, जन्म और मरण को किस्मत का लिखा बताते हैं। ऐसे सारे लोगों को आप
रिश्ते बनाने का हक़ ही क्यूँ देते हैं। क्यूँ नहीं बंद रखते आप इन सबको इनके अपने बनाए
खोल में? ये तब
ही बाहर निकाले जाएँ जब इनका समय आ जाए।
समाज के सामने हार माननी ही है तो फिर ऐसे रिश्ते बनाने
का इन लोगों को क्या अधिकार है जिसे समाज स्वीकार नहीं करता। फिर ये कहते हैं ‘मेरी तरफ से तुम आज़ाद हो! ऐसा लगता है जैसे कोई कह रहा
हो ‘अब नया ठिकाना ढूंढ लो। पर
चिंता मत करना। वो भी मेरे जैसा कायर ही होगा’। कायरता ही तो है। आप किसी के हमदर्द भी बनना चाहते हैं। उसके सुख, दुख और हर एक बात साझा भी करते हैं। उसका हौसला भी
बढ़ाते हैं। उसके कमजोर क्षण में उसे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। जब वो आपकी
तरफ हाथ बढ़ाता है आप थाम भी लेते हैं। फिर धीरे धीरे बदलाव दिखने लगते हैं। आप उसे
ही समझाने लगते हो कि बुराई उसमें ही है। कमी उसके ही अंदर थी, गलती उसी की है।
अपने अकेलेपन से जूझ रहा कोई भी इंसान वैसे भी हारा
हुआ ही होता है। पर आपका ऐसा कहना उसकी हार के दर्द को कई गुना बढ़ा देता है। क्यूँ
करते हैं तुम्हारे लोग ऐसा भगवान? उनको भी तो इंतज़ार करना चाहिए उसका जिसे उनके लिए समाज ने चुना
हो। उसी के हमदर्द बनो, उसी का
सुख दुख साझा करो। उसी का हाथ थाम कर चलो।
किसी को सपने दिखा कर उससे उसके सपने छीन लेना तुम्हारी
दुनिया का चलन है। फिर मैं ऐसी क्यूँ नहीं हूँ भगवान? बताओ न?
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