हे ईश्वर
तो ये थी उस रात की
हक़ीक़त। उनका कहना है कि वो तो मेरे पास अचानक पहुँच कर मुझे चौंकाना चाहते थे।
मुझे मिलने के लिए आने ही वाले थे और आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि वो मुझे मिले बिना
आ गए हों। ऐसा कैसे हो जाता है भगवान कि हमेशा वो मेरे लिए कुछ अच्छा करने ही वाले
होते हैं कि मेरी ही किसी बात पर नाराज़ होकर अपना इरादा बदल लेते हैं। ऐसा है तो
मेरा इरादा कभी क्यूँ नहीं बदलता? कुछ भी हो जाए मैं क्यूँ हमेशा वही करती
हूँ जो वो चाहते हैं? क्यूँ भगवान?
मैं ही क्यूँ हर बार
दोषी हूँ?? क्या उनकी कभी कोई गलती नहीं होती? बड़ी आसानी से उन्होने
ये साबित कर दिया कि मेरी जिंदगी कुछ और हो सकती थी। उन्हें मुझसे प्यार हो सकता था, मेरी कदर हो सकती थी, मेरी परवाह जता सकते थे। सब कुछ
हो सकता था पर सिर्फ इसलिए नहीं हुआ क्यूंकि मेरी किसी बात ने उनका इरादा बदल दिया।
कुछ भी कहने पर वो मुझे मेरी कमियाँ किसी पहाड़े की तरह गिना देते हैं। पर आजकल मुझे
अपनी कोई भी गलती उतनी भी बड़ी नहीं लगती। आजकल अपना कोई भी गुनाह अक्षम्य नहीं लगता।
मैं कमजोर हूँ, मेरा विश्वास
कच्चा है ये सच है। पर किसी ने भी कभी एक पल के लिए ये नहीं सोचा कि मेरा विश्वास इतना
कच्चा क्यूँ है? मेरे साथ जो कुछ भी हुआ था उसके बाद कोई गुंजाइश
नहीं बची कि मैं किसी पर विश्वास कर सकूँ। शायद मेरे अंदर वो कोमलता ही नहीं बची जो
किसी रिश्ते को बचाए रखने के लिए ज़रूरी है। क्या नहीं देखा है मैंने? हर एक टूटते हुए रिश्ते के साथ मेरे अंदर का विश्वास भी मर गया।
अजीब लगता है जब दूसरों की
हर इच्छा अनिच्छा बिना कहे समझने वाला इंसान मेरी पसंद नापसंद से इतना अंजान बन जाता
है। मेरी बात आते ही उसकी संवेदनशीलता बुझ जाती है। क्यूँ? मैंने बेहद
प्यार, ध्यान, समय, श्रम और धैर्य इस रिश्ते को दिया। पर हमेशा मेरी कोई कमी मेरे सारे प्रयास
पर भारी पड़ जाती है।
मेरे परिवार वाले भी अब बेहद
नाराज़ रहने लगे हैं। मैं अकेली पड़ती जा रही हूँ। या शायद मैं हमेशा से अकेली थी। मैं
ही इस बात को देख नहीं पाती। हर बार यही चूक मुझसे हो जाती है। सबका ख्याल रखते रखते
मैं अपने बारे में सोचना ही भूल गई हूँ। ईश्वर, मुझे एक बार अपने आप से प्यार
करना सिखा दो।