Thursday, 23 August 2018

वो मिडिल क्लास का प्यार

अध्याय ५५
हे ईश्वर 

आज जब अचानक से महीने के बीच में मिला बोनस उनसे बांटने लगी तो ख्याल आया 'शायद बहुत वक़्त हो चला है मुझे अपने बारे में ठीक से सोचे हुए।' मुझे तो याद भी नहीं कब आखिरी बार किसी ने मेरे लिए चाय का बिल भरा था या मुझे घूमने ले जाने के लिए टिकट कटा दिए थे। ये भी नहीं याद कि आखिरी बार कब कोई मेरे लिए कुछ लाया था या मेरी कोई फरमाईश पूरी की थी। यहाँ तो मैं ही देखती रहती हूँ उनकी तरफ प्यासी निगाहों से की उनकी कोई इच्छा हो और मुझे पूरा करने का मौका मिले। 

मैंने तो सोचा था कि जो भी मेरा हमसफर होगा वो मेरा हमकदम भी होगा। बराबरी का रिश्ता होगा, बराबर बराबर जिम्मेदारियाँ। पर यहाँ तो हर एक ज़िम्मेदारी मैं ही ढोए जा रही हूँ। सब कहते हैं कि अपनों पर खर्च नहीं करोगी तो पैसों का तुम करोगी क्या? बहुत कुछ! बहुत सी बातें दिमाग में आती हैं इस सवाल पर। वो सारे सपने आँखों में झिलमिलाने लगते हैं जो मैंने अपने लक्ष्य प्राप्ति के बाद के लिए बचा के रखे थे। पर कहाँ सपने, कहाँ मैं। कभी कभी दुधारू गाय जैसी अपनी सोच पर तरस भी आता है। नात रिश्तेदार जैसे वो ग्वाला हों जो मेरे बछड़ों के लिए संचित दूध पर अपना अधिकार जता बेच देते हैं बाज़ार में।

शायद अब मुझे भी अपने संचित धन को गुप्त धन में बदल देना चाहिए। मेरे हर बोनस, हर फेस्टिवल एडवांस और सैलरी इनक्रीमेंट पर गड़ी इन गिद्ध दृष्टियों से नज़र बचा कर कुछ अपने लिए और आड़े वक़्त के लिए रख छोड़ना चाहिए। बुरी से बुरी स्थिति कि कल्पना करके खुद को उसके लिए तैयार कर लेना चाहिए। आजकल जब आपका हक़ मरने के लिए लोग तैयार बैठे हैं, वहाँ आपके लिए अपनी कोई नैतिक ज़िम्मेदारी कोई क्यूँ निभाएगा? तो फिर मैं ही क्यूँ?  

अनसुना कर देती हूँ कुछ दिन के लिए ये चाहिए, वो चाहिए की हर पुकार। सुन ही लेती हूँ मन के किसी कोने में सहमी मेरी ख़्वाहिशों की आवाज़।

वो एक अजीब लड़की


अध्याय ५४
हे ईश्वर

कहते हैं एक बार आपने एक हाथी की करुण पुकार सुन कर मगर के पंजों से उसको छुड़ा लिया था। फिर मैं कौन से ब्रह्मफांस में बार बार अटक जाती हूँ कि न तो मेरी पुकार आप तक पहुँच पा रही है न ही मुझे मेरे इस गिरह से मुक्ति मिलती है। पिछले कुछ दिनों से ऐसा लग रहा है कि मेरा इस बार का प्यार भी वक़्त के पंजों में और दुनिया की सख्त निगाहों के तले सहम कर मुरझा गया है। समाज ने उसके साथ भी शायद वही सब किया होगा, वही सब उसे कहा होगा, उंच नीच की समझाईश दी होगी, मेरे निकृष्ट होने की तरफ इशारा किया होगा, चाल चलन पर उँगलियाँ उठाईं होंगी।  कहने का क्या फायदा कि मुझे दर्द हो रहा है। आँसू सूख गए हैं शायद या मैं ही उन्हें पलकों में अटका कर भूल गई इस बार। कैसी लड़की हूँ मैं भगवान? दिल थोड़ा सा दहल रहा है कि कोई अगला इस लाइन में उसकी जगह लेने को न खड़ा हो!

मैं अपना सब कुछ हार कर भी जीता हुआ महसूस करती हूँ। मेरे संघर्ष मुझे बड़े प्यारे हैं भगवान। मेरा स्वार्थ मेरे लिए सब कुछ है। बड़ा घमंड है मुझे कि मैं एक आत्मनिर्भर लड़की हूँ और अपनी आजीविका के लिए खुद प्रयत्न करती हूँ। अपनी ही नहीं अपने अपनों की भी हर ज़रूरत पूरी करती हूँ। वो अपने जो बार बार मेरा हाथ छुड़ा कर चल देते हैं। वो जो मुझे तब याद करते हैं जब उन्हें नए खिलौनों की ज़रूरत पड़ जाती है। सच है पैसे से कभी प्यार नहीं खरीदा जा सकता। न वफादारी का कोई मोल लगाना संभव है। पर मैंने पैसों से कुछ वक़्त खरीदा है। वो वक़्त जो बेहद खूबसूरत था, है और हमेशा रहेगा। इसी प्यारे से वक़्त को फिर से कमाने के लिए मैं रोज़ कोशिशें करती हूँ, मन्नतें मांगा करती हूँ, श्रद्धा से सिर झुकाती हूँ, माथा टेकती हूँ। मुझे पता है आप मुझे वो वक़्त ज़रूर लौटा देंगी। कई बार पूछा मैंने उनसे कि मुझे ले चलें मेरी माता रानी के पास। पर वो न तो मुझे ले जाते हैं, न मुझे जाने देते हैं। अकेले उनकी आज्ञा की उपेक्षा करके जाने का सीधा मतलब होगा कि मैं उनको अपनी जिंदगी से निकाल चुकी हूँ, मान चुकी हूँ मन ही मन कि ये रिश्ता अब नहीं रहा। ऐसा मानने को दिल तो नहीं करता पर देखा जाए तो बचा भी क्या है। वो सधे कदमों से समाज के बनाए सीधे सादे रास्ते पर चले जा रहे हैं। यूं ही चलते चलते किसी अपने समाज की लड़की का हाथ भी थाम ही लेंगे एक दिन।

उस डर से मुक्ति पाने का शायद सब से अच्छा तरीका यही है कि मैं खुद इस प्रेम की जड़ों में अवज्ञा, उपेक्षा और अवमानना का मट्ठा उड़ेल दूँ। मान लेने दूँ उनको कि मैं हूँ ही गिरी हुई लड़की’, पुंश्चली और निर्लज्ज। शायद यही सहज है, यही सरल है और उनके लिए ठीक भी है। तो ईश्वर मेरे, आपको साक्षी मान कर कहती हूँ भले ही मेरे अंचल पर एक भी दाग नहीं है, पर आज के बाद तुम्हारी दुनिया और अपने प्यार के सामने मैला अंचल ही ओढ़ लूँगी।

Thursday, 16 August 2018

मेरा दोष...

अध्याय ५३ 
हे ईश्वर

दो दिन से उनकी आवाज़ नहीं सुनी। देखा तो था उस दिन पर उसके बाद जाने क्या हुआ! वो इतना नाराज़ हो गए कि मुझे छोड़ कर जाने की बातें करने लगे। बेजा इल्जामों के बोझ तले दबा दिया उन्होने मेरा सारा प्यार। अब मेरे ऊपर लगे लेबलों की सूची में 'दिखावपसंद' भी जुड़ जाएगा। बड़ा यकीन है मन को मेरे खुद पर और अपने इस प्यार पर। फिर भी॥किस्मत भी तो कोई चीज़ होती है। वहमी से मन को बार बार ख्याल आ रहा है - उस दिन व्रत के दिन नहीं कहना चाहिए था कि भूख लगी है। पर दुनिया भर के दीन दुखियों की चीख पुकार के बीच क्या भगवान को याद होगा कि मैंने ऐसी कोई बात कही थी? कहाँ मैं जो बच्चों की तरह उनसे फर्माइशें कर रही थी और कहाँ आज का ये दिन कि आवाज़ तक नहीं सुनी मैंने उनकी। 

लगा था भटक जाऊँगी अगर अपना हाथ छुड़ा लिया उसने। पर मैं तो पहले से कहीं ज़्यादा ज़िम्मेदार हो गई हूँ। देखो न कल घर जाने की कोई जल्दी नहीं थी। आराम से लंच छोड़ कर सारा दिन काम किया और खाना खाए बिना ही सो गई। चीख चिल्ला कर घर और ऑफिस सिर पर उठाने वाली मैं - मुंह से एक आवाज़ तक नहीं निकाल रही। बहुत दुख होता है लेकिन सच में। जब आपके अतीत की परतें खोलने वाला ही एक दिन आपका वही अतीत उठा कर आपके मुंह पर मार देता है। ये बात शायद मैं पहले भी कह चुकी हूँ पर सच! लोग बदलते रहते हैं पर उनके झूठे बे बुनियाद इल्ज़ाम वहीं के वहीं। 

'तुम चाहती हो लोग हमारे बारे में वही बातें करें जो तुम्हारे और उसके बारे में उड़ा करती थीं' कटघरे में खड़े होना किसे अच्छा लगता है? वो भी अपने किए हुए जुर्म से जब आप अंजान हो। और मेरा तो अपराध अक्षम्य है ही। मैं लड़की हूँ और वो भी आत्मनिर्भर और अकेली। तीन तीन भयंकर अपराध! उस पर मैं कभी अपने तौर तरीकों के लिए माफी भी नहीं मांगती। न ही ये देखती हूँ कि मेरे ऊपर गड़ी नज़रों में किस कदर हिंसात्मक भाव हैं। लेकिन भगवान एक बात बताइये न...आप मेरी जिंदगी से 'कमज़ोर कड़ी कौन' खेलना कब छोड़ेंगे?  मुझे इस बात का दुख नहीं है कि किसी का साथ छूट गया या छूट जाता है। बस इस बात का दुख है कि उसने पहले क्यूँ नहीं कहा कि वो मुझसे इतनी नफरत करता है।

अब आपके सवाल का जवाब... नहीं, मैं नहीं चाहती कि चार लोग हमारे बारे में बातें करें। मैं बस इतना चाहती हूँ कि आपको मुझसे बात करने में या चार लोगों के सामने ये स्वीकार करने में हिचक न हो। मुझसे जान पहचान किसी के लिए शर्म का कारण बने ऐसा नहीं सोचना चाहती मैं। पर ऐसा होता है और बार बार होता है। इसे सिर्फ ईश्वर ही रोक सकते हैं। इसलिए ईश्वर आप ही अब कृपा कीजिये, प्लीज। 

Tuesday, 14 August 2018

ये कैसा संरक्षण .!

अध्याय ५२ 
हे ईश्वर

संरक्षण गृह का मतलब शायद गलत लिखा है डिक्शनरियों में। मैं तो सोचती थी संरक्षण गृह वो जगह है जहां समाज की सताई हुई बेबस औरतों और बच्चियों को शरण मिलती है। एक ऐसी जगह जहां वो चैन की सांस ले सकें। पर भगवान मुझे नहीं पता था कि इनकी चारदीवारों में न जाने कितने बेबस मासूमों की चीखें दबी हुई हैं। नहीं जानती थी कि रात का अंधेरा इनके लिए हैवानियत का नंगा नाच लेकर आता है। ये लड़कियां भी कैसी बेवकूफ हैं! जहां आज भी लड़की को पैदा होने से पहले ही मार दिया जाता हो वहां उनको ऐसा क्यों लगा कि उनको मुफ्त में ही जीने का अधिकार मिल जाएगा। आजकल तो उम्र पूछने का चलन ही नहीं! दुधमुंही कन्या भी चलती है और पकी उम्र की वृद्ध महिला भी।

पर मैं भी न! ये क्या लेकर बैठ गई। मुझे भी तो वादा किया है किसी ने कि वो मेरा ख्याल रखेगा, मेरा साथ देगा। क्या हुआ उसके वादे का? आज फिर एक बार जब उसने मुझ पर झूठे इल्ज़ाम लगाए, दिल एक बार फिर से धड़कना भूल गया। आँखें फिर से गीली हो गईं और मन एक बार फिर दहल गया। कुछ नया तो नहीं पर अचानक हुआ। मेरी तो आदत ही छूट गई थी ताने सुनने की, इल्ज़ाम झेलने की। अच्छा ही किया उसने जो इतनी बेदर्दी से हाथ छुड़ा लिया अपना। उसके प्यार की आदत सी होती जा रही थी, उसकी परवाह के बिना दिल ही नहीं लगता था। उसके चेहरे से नज़र ही नहीं हटती थी।अच्छा किया उसने जो मेरा विश्वास तोड़ दिया। कुछ ज़्यादा ही यकीन होने लगा था अपने आप पर। कुछ ज़्यादा ही मुस्कराने लगे थे हम। आज जब उसने कहा मुझे कुछ नहीं रखना तो लगा ये तो एक दिन होना ही था मेरे साथ। जो दूसरों से अलग होते हैं वो चोट भी अलग ही किस्म की देते हैं। तब नहीं जब आप सावधान हों पर उस समय जब आप पूरी तरह निश्चिंत हो जाते हैं और उन पर विश्वास करने की गलती कर देते हैं।

एक दिन मैंने उनसे कहा था कि मैं आप पर खुद से ज़्यादा यकीन करती हूं। क्या इसी यकीन के चलते आपने मेरे साथ ऐसा किया? या अचानक से अपने इस निर्णय पर पछताने लगे थे कि मेरे जैसी बिगड़ी हुई लड़की का हाथ थामा आपने। शायद आस पास वालों के ताने असर कर गए। शायद किसी ने फिर से मेरी मदद करने के लिए आपको टोक दिया होगा। या फिर एक बार घरवालों का डर आपको सताने लगा होगा। हो सकता है आपकी नैतिकता ने आपको इस गिरी हुई लड़की से जुड़ने से मना कर दिया हो। कितने सारे सवाल हैं ना। जवाब कोई नहीं।

तमाशे तो चाहे जितने कर सकती हूं पर उससे होगा क्या! तुम सोच चुके हो अपना रास्ता तो मेरी शुभकामना। जाओ अब किसी और बेबस इंसान को प्यार का झूठा यक़ीन दिला देना। ये झूठा दिलासा भी कि वो एक अच्छी लड़की है और जीवन में बहुत कुछ उसे मिलना चाहिए। प्यार भी, भरोसा भी, किसी का साथ भी। जब वो इस बात पर शिद्दत से यक़ीन करने लगे, केवल उस वक़्त ही खींचना उसके पैरों के नीचे से ज़मीन। वरना पूरा मज़ा खराब हो जाएगा।

पता नहीं आने वाला दिन क्या लेकर आएगा। इसी दिन को न देखने के लिए ही तो हमने अपनी ज़िंदगी खत्म करने का ईरादा किया था। पर उनके वादे की तरह मेरा ईरादा भी कच्चा था। शायद इसलिए मिल रही है ये सज़ा मुझे। अच्छा है।

Wednesday, 1 August 2018

उम्र का तकाज़ा या उम्र का बोझ

अध्याय ५१
ये रचना मैंने अपने ब्लॉग के अर्धशतक के लिए रख छोड़ी थी पर उस वक़्त मन भटक गया. खैर ५१ का शगुन ही सही:

आज ब्लॉग की पिच पर मैंने अर्धशतक बनाया है. इसके लिए कोई ख़ास रचना तलाश ही रही थी कि एक सोशल मीडिया पोस्ट पर नज़र पड़ी और मसला खुदबखुद हल हो गया. माधुरी दीक्षित जी की एक आकर्षक तस्वीर के नीचे किसी निहायत ही अहमक शख्स के गुस्ताखी भरे जुमले और उनके जवाबों की एक श्रृंखला पर नज़र पड़ी.






एक खूबसूरत और गरिमामय व्यक्तित्व का सज संवर कर रहना किसी को इतना बुरा लगा! तो मेरे जैसी ३० पार कर चुकी महिलाएं क्या करें? जान बूझ कर अपना व्यक्तित्व बिगाड़ लें या फीके रंगों के कपड़े पहन कर घर के किसी कोने में  खुद को समेट लें? कौन तय करता है ये मानक कि एक निश्चित उम्र के बाद एक स्वतंत्र और आत्मविश्वासी स्त्री को कैसे रहना है? क्यूँ? ऐसा करने वाले के शब्दों को विराम देने की बड़ी कोशिशें की गईं पर सब बेकार. हर बात का उनके पास एक ही अतार्किक, घटिया और ओछा जवाब था.

सोचती हूँ ऐसे ही लोग होते होंगे जो किसी की स्कर्ट की लम्बाई को उसके चरित्र का मानक मानते होंगे. सड़कों पर चल रहे जोड़ों को धमकाते होंगे या किसी अकेली लड़की का सड़क चलना मुश्किल बनाते होंगे. या मेरे जैसी किसी लड़की के पीठ पीछे उसके बारे में अनर्गल प्रलाप किया करते होंगे. पर ऐसे लोगों के लिए शायद चुप्पी कोई जवाब नहीं है. *Troll Police की बड़ी याद आती है मुझे. वो हक्की बक्की शक्लें, लड़खड़ाती जुबान और आँखों में डर देख कर दिल को बहुत सुकून मिलता था.
कितना आसान लगता है उनको एक नकली चेहरे के पीछे छुप कर किसी के बारे में अपमानजनक बातें कहना. कितना मुश्किल था दिन की रोशनी में उसी इन्सान से ऑंखें मिलाना. कुछ तो अपने घमंड में चूर इतरा कर चल भी दिए. कुछ ने गलती का एहसास किया और माफ़ी मांगी.

एक बात पर उन सब में एक जैसी ही थी. वो सारे लोग एक नकली चेहरे के पीछे छुप कर जो चाहे बोलें पर उनके अन्दर उसी बात को सबके सामने कहने की हिम्मत नहीं थी. इसी तरह के लोग हैं जिन्हें हम चाँद दिखाना चाहते हैं और वो हमारी ऊँगली की गलतियाँ निकालने में लगे रहते हैं. चाँद की तरफ तो कोई देखता ही नहीं.

कुछ ऐसी ही कहानी मेरी भी है. मेरा खूबसूरत व्यक्तित्व वो चाँद है जिसकी तरफ मैं सबका ध्यान खींचना चाहती हूँ. चाहती हूँ कि मुझे मेरे चेहरे और कद काठी से ज्यादा लोग मेरे व्यक्तित्व और आत्मविश्वास के लिए पहचानें पर लोग हैं कि मेरी बढती उम्र और मेरे अविवाहित रहने की तरफ देखने में ही लगे रहते हैं. पर फिर भी मुझे पूरा यकीन है कि किताबों और रचनाओं की इस दुनिया में मेरी पहचान मुझे ज़रूर मिलेगी. पढने लिखने वाले वो सुरुचिपूर्ण लोग होते हैं जिनकी नज़र हमेशा माधुरी जी जैसे चाँद की तरफ ही रहती है, उनकी उम्र जैसी नादान सी ऊँगली की तरफ नहीं. 

अकेले हैं तो क्या गम है

  तुमसे प्यार करना और किसी नट की तरह बांस के बीच बंधी रस्सी पर सधे हुए कदमों से चलना एक ही बात है। जिस तरह नट को पता नहीं होता कब उसके पैर क...