अध्याय ५४
हे ईश्वर
कहते हैं
एक बार आपने एक हाथी की करुण पुकार सुन कर मगर के पंजों
से उसको छुड़ा लिया था। फिर मैं कौन से ब्रह्मफांस में बार बार अटक जाती हूँ कि न तो मेरी पुकार
आप तक पहुँच पा रही है न ही मुझे मेरे इस गिरह से मुक्ति मिलती है। पिछले कुछ दिनों
से ऐसा लग रहा है कि मेरा इस बार का प्यार भी वक़्त के पंजों में और दुनिया की सख्त
निगाहों के तले सहम कर मुरझा गया है। समाज ने उसके साथ भी शायद वही सब किया होगा, वही सब उसे कहा होगा, उंच नीच की समझाईश दी होगी, मेरे निकृष्ट होने की तरफ इशारा किया होगा, चाल चलन
पर उँगलियाँ उठाईं होंगी। कहने का क्या फायदा
कि मुझे दर्द हो रहा है। आँसू सूख गए हैं शायद या मैं ही उन्हें पलकों में अटका कर
भूल गई इस बार। कैसी लड़की हूँ मैं भगवान? दिल थोड़ा सा दहल रहा
है कि कोई अगला इस लाइन में उसकी जगह लेने को न खड़ा हो!
मैं अपना सब कुछ हार कर भी जीता हुआ महसूस करती हूँ। मेरे संघर्ष मुझे
बड़े प्यारे हैं भगवान। मेरा स्वार्थ मेरे लिए सब कुछ है। बड़ा घमंड है मुझे कि मैं एक
आत्मनिर्भर लड़की हूँ और अपनी आजीविका के लिए खुद प्रयत्न करती हूँ। अपनी ही नहीं अपने
अपनों की भी हर ज़रूरत पूरी करती हूँ। वो अपने जो बार बार मेरा हाथ छुड़ा कर चल देते
हैं। वो जो मुझे तब याद करते हैं जब उन्हें नए खिलौनों की ज़रूरत पड़ जाती है। सच है
पैसे से कभी प्यार नहीं खरीदा जा सकता। न वफादारी का कोई मोल लगाना संभव है। पर मैंने
पैसों से कुछ वक़्त खरीदा है। वो वक़्त जो बेहद खूबसूरत था, है और हमेशा रहेगा। इसी प्यारे से वक़्त को फिर से कमाने के लिए मैं रोज़ कोशिशें
करती हूँ, मन्नतें मांगा करती हूँ, श्रद्धा
से सिर झुकाती हूँ, माथा टेकती हूँ। मुझे पता है आप मुझे वो वक़्त
ज़रूर लौटा देंगी। कई बार पूछा मैंने उनसे कि मुझे ले चलें मेरी माता रानी के पास। पर
वो न तो मुझे ले जाते हैं, न मुझे जाने देते हैं। अकेले उनकी
आज्ञा की उपेक्षा करके जाने का सीधा मतलब होगा कि मैं उनको अपनी जिंदगी से निकाल चुकी
हूँ, मान चुकी हूँ मन ही मन कि ये रिश्ता अब नहीं रहा। ऐसा मानने
को दिल तो नहीं करता पर देखा जाए तो बचा भी क्या है। वो सधे कदमों से समाज के बनाए
सीधे सादे रास्ते पर चले जा रहे हैं। यूं ही चलते चलते किसी अपने समाज की लड़की का हाथ
भी थाम ही लेंगे एक दिन।
उस डर से मुक्ति पाने का शायद सब से अच्छा तरीका यही है कि मैं खुद इस
प्रेम की जड़ों में अवज्ञा, उपेक्षा और अवमानना का मट्ठा उड़ेल दूँ। मान लेने दूँ
उनको कि मैं हूँ ही ‘गिरी हुई लड़की’, पुंश्चली
और निर्लज्ज। शायद यही सहज है, यही सरल है और उनके लिए ठीक भी
है। तो ईश्वर मेरे, आपको साक्षी मान कर कहती हूँ भले ही मेरे अंचल पर एक भी दाग नहीं
है, पर आज के बाद तुम्हारी दुनिया और अपने प्यार के सामने मैला
अंचल ही ओढ़ लूँगी।
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