अध्याय ५५
हे ईश्वर
आज जब अचानक से महीने के बीच में मिला बोनस उनसे
बांटने लगी तो ख्याल आया 'शायद बहुत वक़्त हो चला है मुझे अपने बारे में ठीक
से सोचे हुए।' मुझे तो याद भी नहीं कब आखिरी बार किसी ने मेरे
लिए चाय का बिल भरा था या मुझे घूमने ले जाने के लिए टिकट कटा दिए थे। ये भी नहीं
याद कि आखिरी बार कब कोई मेरे लिए कुछ लाया था या मेरी
कोई फरमाईश पूरी की थी। यहाँ तो मैं ही देखती रहती हूँ उनकी तरफ प्यासी निगाहों से
की उनकी कोई इच्छा हो और मुझे पूरा करने का मौका मिले।
मैंने तो सोचा था कि जो भी मेरा हमसफर होगा वो मेरा
हमकदम भी होगा। बराबरी का रिश्ता होगा, बराबर बराबर जिम्मेदारियाँ। पर यहाँ तो हर एक ज़िम्मेदारी
मैं ही ढोए जा रही हूँ। सब कहते हैं कि अपनों पर खर्च नहीं करोगी तो पैसों का तुम करोगी
क्या? बहुत कुछ! बहुत सी बातें दिमाग में आती हैं इस सवाल पर।
वो सारे सपने आँखों में झिलमिलाने लगते हैं जो मैंने अपने लक्ष्य प्राप्ति के बाद के
लिए बचा के रखे थे। पर कहाँ सपने, कहाँ मैं। कभी कभी दुधारू गाय
जैसी अपनी सोच पर तरस भी आता है। नात रिश्तेदार जैसे वो ग्वाला हों जो मेरे बछड़ों के
लिए संचित दूध पर अपना अधिकार जता बेच देते हैं बाज़ार में।
शायद अब मुझे भी अपने संचित धन को गुप्त धन में बदल
देना चाहिए। मेरे हर बोनस, हर फेस्टिवल
एडवांस और सैलरी इनक्रीमेंट पर गड़ी इन गिद्ध दृष्टियों से नज़र बचा कर कुछ अपने लिए
और आड़े वक़्त के लिए रख छोड़ना चाहिए। बुरी से बुरी स्थिति कि कल्पना करके खुद को उसके
लिए तैयार कर लेना चाहिए। आजकल जब आपका हक़ मरने के लिए लोग तैयार बैठे हैं, वहाँ आपके लिए अपनी कोई नैतिक ज़िम्मेदारी कोई क्यूँ निभाएगा? तो फिर मैं ही क्यूँ?
अनसुना कर देती हूँ कुछ दिन के लिए ‘ये चाहिए, वो चाहिए’ की हर पुकार।
सुन ही लेती हूँ मन के किसी कोने में सहमी मेरी ख़्वाहिशों की आवाज़।
No comments:
Post a Comment