Tuesday, 31 July 2018

आखिरी बाज़ी


अध्याय ५०

हे ईश्वर

बुराड़ी के एक परिवार की आत्महत्या के बाद बहुत से किस्से सुनने में आ रहे हैं. भूत प्रेत से लेकर कई तरह के अंधविश्वासों में जकड़ी ये एक ऐसी अनसुलझी गुत्थी है जिसका सही सही ब्यौरा शायद कोई दे नहीं पाएगा. क्यूँ करते हैं लोग आत्महत्या? क्या हो जाता है जो एक इन्सान को खुद अपनी जान लेने पर बाध्य कर देता है?

ज्यादातर देखा गया है कि दहेज़ पीड़ित औरतें, किसी हादसे के शिकार लोग या किसी वजह से  अपनों को खोने वाले लोग आत्महत्या कर लेते हैं. अवसादग्रस्त लोग भी अपने आप को ख़त्म करना ही बेहतर समझते हैं. लेकिन मौत का तमाशा बनाने का ये जो चलन है ये उन मौतों से भी ज्यादा खतरनाक हो गया है. आत्महत्या करने वाले को बचाने का प्रयास करने से ज्यादा लोगों को उनकी तस्वीरें निकलना ज्यादा अहम लगने लगा है.

खैर बात अपनी ही चल रही थी. इधर कुछ दिनों से मुझे भी ये ख्याल बहुत परेशान करते हैं. सोचती हूँ कैसा हो अगर एक दिन मैं अचानक अपनी जान लेने के लिए नदी में कूद पडूं या किसी भारी वाहन के आगे अपनी छोटी सी गाड़ी अड़ा दूँ. कैसा हो अगर किचेन में खाना बनाते हुए आग की लपटों में मैं ही झुलस जाऊं. या दिन रात चलते हुए पंखे को बंद करके उससे फंदा बना कर झूल जाऊं. दवाइयां भी तो हैं- चाहूँ तो क्या नींद की गोलियां कहीं नहीं मिल जाएँगी. या रोज़मर्रा की चीज़ें जैसे व्हाइटनर, सिन्दूर या कीटनाशक. एक दिन तो टीवी में सेब के बीज से ज़हर बनाने का तरीका भी देखा था.

बहुत से रस्ते हैं जो आपको तेज़ी से या धीमे धीमे मौत की तरफ ले जा सकते हैं. अब आप सोच रहे होंगे मैं क्यूँ इतनी परेशान हूँ. अच्छी जिंदगी है, नौकरी है, स्वतंत्रता है. बहुत कुछ है पर फिर भी कुछ कम लगता है. लोगों ने समझाने की बहुत कोशिश की है कि मेरे पास ऐसा बहुत कुछ है और आगे की जिंदगी बेहद अच्छी होगी. अगर माँ पापा को पता चला कि मैं ऐसा कुछ सोच रही हूँ तो लड़कों की तस्वीरों की लाइन लगा देंगे. कहेंगे कि तुम शादी कर लो. पर जिसके पास खुद के लिए ही शक्ति न हो वो किसी और को दे भी क्या सकता है.

तो क्या ये मेरी अंतिम रचना है? क्या इसके बाद फिर कभी इस तरह आप लोगों से मुखातिब नहीं हो सकूंगी? क्या यही है मेरा अंतिम पड़ाव जहाँ से आगे जाने की जगह मुझे यहीं रुक जाना बेहतर लग रहा है? क्या इस रचना और मेरे इस ब्लॉग से जुड़े सभी लोग यही सोचेंगे कि काश उसने थोड़ा और संयम रखा होता. या ये कि मैं कायर हूँ जो ऐसी पलायनवादी सोच रखती हूँ.

किसी गलतफहमी में मत रहिएगा. ऐसा करना कायरता नहीं बल्कि एक किस्म की बहादुरी ही है. मैं जब ऐसा सोचती हूँ तो मुझे मेरे छोटे से कुत्ते का ख्याल आ जाता है. कैसा लगेगा उसे अगर मैं शाम को घर न पहुंचूं. अगर घर का ताला एक निश्चित समय पर न खुले, कोई उसे शाम की खुराक देने वाला न हो. अगर घर पर ऐसा करूँ और वो मुझे उठाने की कोशिश करे और उसे कोई जवाब न मिले? कहते है पशुओं को तो  पहले से ही अंदाज़ा हो जाता है घर में होने वाली मौत का. तो क्या उसे अंदाज़ा है कि मैं एक दिन अचानक उसे अधर में छोड़ कर चली जाऊँगी. मेरे सामान का क्या होगा? शायद औने पौने दाम में बेच दिया जाएगा. मेरी सारी डायरियां जला दी जाएँगी ताकि मेरे किस्से कहानियां बाहर न जाने पायें. सबसे पहले कौन पहुंचेगा? पता नहीं. शायद मोहल्ले वाले..शायद मेरी कामवाली. ज्यादातर सबसे पहले कामवाली को ही पता चलता है. फिर पुलिस आती है. पुलिस अगर आई तो क्या मेरा बेबी उनको अन्दर आने देगा? क्या पुलिस को पता होगा कि दरवाज़ा खुला न छोडें वरना मेरा कुत्ता भाग जाएगा. क्या होगा?

कई बार नाराज़ होकर आज जो मेरा फ़ोन काट दिया करता है, मुझे कुछ हो गया तो क्या वो मेरे फ़ोन का इंतज़ार करेगा? क्या एक बार भी सोचेगा उन सारे दिनों के बारे में जो उसने मेरे साथ बिताए थे. या जिस तरह आज कहता है ‘किसी के मर जाने से जिंदगी नहीं ख़त्म हो जाती’ उसी ज़ज्बे के साथ फिर से अपना जीवन ऐसी शुरू कर देगा जैसे कुछ हुआ ही नहीं. क्या पुलिस उससे भी कोई सवाल करेगी? या मेरे नोट के कहने से उसको छोड़ देगी. क्या मेरे घरवाले जानना चाहेंगे मेरे मौत के पीछे का कारण. या बदनामी के डर से बंद करवा देंगे जांच पड़ताल. क्या मेरी पोस्टमोर्टेम रिपोर्ट ईमानदार होगी या ‘एक्सीडेंटल डेथ’ का ठप्पा लगा कर दबा दिया जाएगा ये हादसा भी. जिन लोगों ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मेरे इस निर्णय के लिए मुझे बाध्य किया है, क्या वो सब अपनी जिम्मेदारी स्वीकारेंगे या मुझे कमज़ोर कहकर पल्ला झाड़ लेंगे. क्या होगा मेरी गाड़ी का जो मैंने इतने प्यार से खरीदी है. क्या होगा उन सारे लोन का जो मैंने उठा रखे हैं. मेरे पास तो कोई ऐसी जमा पूंजी या संपत्ति भी नहीं जिसे देकर ये लोन चुकाया जा सके.

वो कहता है ‘शादी हो या न हो, मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूँगा.’ पर ‘किस रिश्ते से’ पूछने पर बगलें झाँकने लगता है. उसकी जुबान लड़खड़ा जाती है जब मैं पूछती हूँ कि अपने रीत रिवाज़ और संस्कार ताक पर रखकर क्यूँ इस बिगड़ी हुई लड़की से इतनी नजदीकियां बना लीं उसने. क्या मेरे टूटे हुए रिश्तों से प्रेरणा लेकर? मेरी जिंदगी में जो भी लोग आये वो परले दर्जे के कायर थे. मुझे स्वीकारने की हिम्मत नहीं थी तो मेरा ही आत्मविश्वास ढहा कर चले गए. पर क्या सच में उठ गया है खुद से मेरा विश्वास? क्या सच में नहीं है मेरे जैसे लोगों के लिए इस दुनिया में जगह? क्या सचमुच मैं उन लोगों का दिया इलज़ाम स्वीकारती हूँ? शायद नहीं. इसलिए तो प्यार पर अटल विश्वास है अब भी मुझे और शायद हमेशा रहेगा.

जो लोग आत्महत्या करते हैं वो ऐसे न जाने कितने अनसुलझे सवाल अपने पीछे छोड़ कर चले जाते हैं. पर मैं मरना नहीं चाहती. मैं तो जीना चाहती हूँ, खुलकर. खुश रहना चाहती हूँ, खिलखिलाना चाहती हूँ. ज़िन्दगी में आते जाते लोगों से बेपरवाह होकर बस अपने आप के साथ प्यार करना चाहती हूँ. आवारा कुत्तों और बेसहारा लोगों का सहारा बनना चाहती हूँ. बहुत सारे पैसे कमाना चाहती हूँ और समाज में सम्मान भी. क्या हुआ जो कोई मेरा साथ नहीं दे सकता. मैं वैसे भी सिर्फ और सिर्फ अपना ही हाथ थाम कर चलती हूँ हमेशा. हमेशा चल सकूंगी, विश्वास है मुझे.

Sunday, 29 July 2018

सावन का सोमवार


अध्याय ४९ 
मेरे ईश्वर

शिव – औघड़ दानी, सन्यासी, भोले बाबा! कितने सारे नाम दिए गए हैं भगवान को.मैंने भी आज व्रत रखा है. मां का कहना है जब तुम्हें शादी ही नहीं करनी तो व्रत क्यों रखा है तुमने ! सही है मां.. शादी के अलावा किसी लड़की की कोई हार्दिक इच्छा हो भी कैसे सकती है!

पर मेरी है...जानती हो क्या? मैं चाहती हूँ मेरा खुद का घर. एक घर जो छोटा सा ही सही पर मेरा हो. ऐसा घर जिसमें मैं कभी भी जाकर रह सकूँ. एक घर जिसमें मैं अपनी हर चीज़ रख सकूँ. ऐसा घर जो मेरी शरण हो. घर जिसमें जब कोई मुझे कहेगा ‘अपने घर चली जाओ’ तो जा सकूँ. मुंह पर मार दूँ लोगों के ये जुमला. ‘अपना घर’.

एक अच्छी और बेहतर ज़िन्दगी मेरा सपना है मां. न सिर्फ अपने लिए बल्कि दुनिया की हर औरत के लिए. मैं बेहद खुशकिस्मत हूँ कि मेरा ये सपना सच हुआ है. मैं जिस घर में रहती हूँ उसका एक एक कोना मेरा है..मेरी किताबें हैं जो हर जगह बिखरी रहती हैं, मेरे ही कपड़े हैं जो दिन भर सहेजे जाते हैं. डायरी, गिटार, कार्ड्स और न जाने क्या क्या. मैं सचमुच बेहद खुशकिस्मत हूँ कि एक शांत और सुरक्षित जीवन है मेरा.

अभी कुछ दिन पहले मैं बेहद अशांत थी. अचानक ही बढ़ते हुए क़र्ज़ से परेशान होकर मैंने अपनी रातों की नींद हराम कर ली थी. पर एक दिन अचानक मैंने सोचा. मैंने अभी तो बस एक ही निर्णय लिया अपने आप. क्या हुआ अगर वो थोड़ा सा गलत था. उससे मेरी जिंदगी ख़त्म तो नहीं हो जाती. मेरा कोई काम रुक तो नहीं जाता. मेरी आर्थिक आज़ादी छिन तो नहीं गई. मेरी उम्र बेहद कम है, एक अच्छी खासी तनख्वाह है, सेहत है. आगे बढ़ने के बहुत से अवसर हैं. ये क़र्ज़ भी कितने दिन मेरा पीछा करेगा. एक न एक दिन तो इसे ख़त्म होना ही है.

ये सारे ख्याल आते ही बुरा वक़्त जैसे एक कोने में सिमट गया. मेरे होंठों पर मुस्कान लौटी, जीने की इच्छा फिर से जगी. मेरे जैसी बहुत सी लड़कियां होंगी, जिन्हें गलती करने के ख्याल सताते होंगे. इस डर से वो जीना भी भूल जाती होंगी. पर मैं नहीं भूल सकती. मैं आज़ाद तो हूँ, बेपरवाह नहीं. मेरी जिंदगी सिर्फ मेरी नहीं. बहुत से लोगों की नज़र है उस पर. मेरी झुकी हुई नज़र दुनिया की हर आज़ाद औरत का सर भी झुका देगी. इसलिए जाओ, मैं हार मानने वाली नहीं.

इसी बीच में आ गया ये सावन का सोमवार. मेरे भोले बाबा का दिन. ईश्वर तो अन्तर्यामी होते हैं, तो अपनी इच्छा मुंह से क्यूँ कहूँ. समझते तो हैं, पूरा भी कर देंगे एक दिन.

उस दिन का इंतजार करूंगी!


Friday, 27 July 2018

एक सोया हुआ शहर


अध्याय ४८ 
बी चंद्रकला – बुलंदशहर के प्रशासनिक अमले की मुखिया एवं एक गरिमामय व्यक्तित्व. थोड़ी सख्त मिजाज़ पर अत्यंत ईमानदार एवं जुझारू. अक्सर सोशल मीडिया पर इनके चर्चे होते ही रहते हैं. अब एक बार फिर वो चर्चा में हैं. एक अंजान पुरुष का बिना अनुमति के सेल्फी लेने का प्रयास जेल की सलाखों पर जाकर रुका. इस पर टिपण्णी के लिए उन्हें जब एक पत्रकार ने फ़ोन किया तो इस पूरे प्रकरण ने एक अलग ही मोड़ ले लिया. पत्रकार महोदय का दावा है कि उन्हें उनके घर पर अंजान लोग भेजने की धमकी दी गई.

पर इस कॉल को सुनने पर आपको ऐसा बिलकुल नहीं लगेगा. बल्कि उनके द्वारा  उठाया गया ये सवाल ‘आपके काम की जगह पर यदि कोई अंजान आदमी आपको बिना पूछे आपकी तस्वीर लेने लगे तो आप क्या करेंगे?’ पूरी तरह वाजिब लगता है. क्या जब हमारी अपनी माँ, बहन या बेटी के साथ अन्याय हो तब ही वो गलत होगा? पुरुष या महिला की बात छोड़ दीजिये – किसी भी इन्सान की अनुमति के बिना उसकी तस्वीर खींचना गलत ही है.

पर ये समाज है कि किसी महिला की ऊँची आवाज़ उसे रास नहीं आती. उनके ऊपर ये इलज़ाम लगते ही उनके उग्र व्यव्हार के बारे में छोटे छोटे बड़ी सफाई से काट छांट कर पेश किए हुए वीडियो क्लिप्स भी उभर कर आए. एक तो आजकल आधुनिक संपादन तकनीकों से आप वीडियो या ऑडियो को कोई भी रंग देकर पेश कर सकते हैं. पर यदि इन क्लिप्स के साथ छेड़ छाड़ न भी हुई हो तो भी ये पुष्टि के तौर पर एक प्रभावशाली एवं साहसी व्यक्तित्व को जानबूझ कर उग्र दर्शाने का खोखला प्रयास मात्र है.

ये एक कटु सत्य है कि कोई भी उच्च पद पर आसीन महिला यदि अपने बारे में हो रही गलीज़ और निकृष्ट चर्चाएँ सुन ले तो हर तीसरे व्यक्ति के जेल जाने की नौबत बड़ी आसानी से आ जाएगी. पर कुत्तों के भौंकने से हाथी कब से सड़क पर चलना बंद करने लगे!

हम आज की महिलाएं हैं, काबिल हैं, कामयाब हैं, साहसी हैं और मुखर भी हैं.चिकने घड़े से प्रेरणा लेकर अब हम तैयार हैं आपके साथ दो दो हाथ करने को. सिर्फ मुंहफट ही नहीं आप अपनी सुविधा के लिए हमें चाहे जो नाम दे लीजिये. अपने काम का और अपने जीने का तौर तरीका बदलने वाले नहीं. माफ़ी भी नहीं मांगेंगे, कदम भी पीछे नहीं हटायेंगे. चलेंगे और आपको भी हमारे साथ चलना ही पड़ेगा. आदेश देंगे और आपको मानना ही पड़ेगा. नहीं तो नतीजे भुगतने के लिए आप स्वयं तैयार रहिए.


अधूरी अलविदा


अध्याय ४७ 
हे ईश्वर

क्या कहूँ? किन शब्दों में कहूँ? किसे कहूँ? कैसे कहूँ? बहुत से सवाल हैं जो मन में गूंजते रहते हैं. मेरे रचयिता, मेरी हर कहानी के किरदार ही बदलते रहते हैं, कहानी वही रह जाती है.पर इसमें भी न भगवान, गलती मेरी है. पहले ही मान लिया था मैंने कि ये गलती सिर्फ और सिर्फ मेरी है. मैंने पुरुष की जात से इंसानियत, हमदर्दी, समझदारी, परिपक्वता, ईमानदारी और भी न जाने कितनी सारी बड़ी बड़ी उम्मीदें लगा के रखी थीं. मैंने सोच भी कैसे लिया कि समाज के नाम पर खदेड़े हुए श्वान से भी तेज़ी से भागने वाली ये प्रजाति डट कर मेरी तरह उसका सामना कर पाएगी.

फिर क्यूँ आपने इन्हें हक दिया कि मेरी शांत सी ज़िन्दगी में उथल पुथल मचा सकें! मेरे ईश्वर आज एक ही दिन में दो बार ऐसा हुआ कि मुझे किसी की बेहद ज़रूरत पड़ी और मैंने खुद को अकेला ही पाया. उनसे कहने पर हमेशा वाला ‘मैं इतना ही बुरा हूँ तो छोड़ क्यूँ नहीं देती मुझे’ का सस्ता सा राग अलाप दिया. कई बार उन्होंने कहा है कि इस तरह अपनी सारी भावनाएं कभी न उड़ेला करो. पर सच कहूँ, ये भी पुरुष की कायरता का ही एक रूप है. वो कभी सोचना ही नहीं चाहता कि उसने किसे और कितनी चोट पहुंचाई है.

सच कहूँ तो मन करता है अब कुछ छोड़ कर आगे बढ़ जाऊं. न जाने कौन सी चीज़ है जो बार बार कदम रोक लेती है. जिस रिश्ते में मैं किसी को ख़ुशी नहीं दे पा रही, उस रिश्ते में उसे रहने को कैसे कहूँ? किस हक से उम्मीद करूँ? क्या कह कर उसका रास्ता रोकूँ? हर बार जब हम दोनों अपने मतभेदों के बारे में बात करने की कोशिश करते हैं, उनके लगाए ‘ये सब तुम्हारा किया धरा है’ के इलज़ाम मेरे कानों के परदे फाड़ने लगते हैं. मैं कितना भी दर्द से चीख पडूं, वो मेरे अतीत के घाव कुरेदने में ज़रा भी रहम नहीं करते. आकर्षण किसी के भी मन में पहले पनपा हो, दोषी तो मैं ही हूँ.
अतीत को छोड़ कर आगे बढ़ जाना बेहद आसान होता अगर इस बार या किसी बार किसी के निर्णय बदल जाते. अगर एक बार मैं अकेली न होती. अगर एक बार किसी ने कहे हुए को निभाने का साहस दिखाया होता. अगर एक बार किसी ने साफ़ साफ़ ये कहा होता कि मैं केवल तुम्हारा इस्तेमाल करने में दिलचस्पी रखता हूँ, तुम्हारा ख्याल रखना मेरी ज़िम्मेदारी नहीं है. पर लोग तो लोग हैं! प्यार करता हूँ, परवाह करता हूँ, अपनाना चाहता हूँ... कितने सारे झूठ. हे भगवन, मर्द जात को सच बोलना सिखा दो न. ताकि मेरी तरह किसी को प्यार के नाम पर इस तरह के छलावे न मिलें.






Monday, 16 July 2018

दूसरा पहलू


अध्याय ४६ 
हे ईश्वर
आज मैंने नारीवाद का एक दूसरा ही पहलू देखा. मैंने सोचा था कि जब मेरे घर में कोई बहु बन कर कदम रखेगी तो उसे सर आँखों पर बिठा कर रखूंगी. उसके हर अरमान पूरे करुँगी, उसके कहने से पहले ही उसकी हर इच्छा उसके हाथों में रख़ दूंगी. उसे बहु नहीं बेटी बना कर रखूंगी. पर ये सारा कुछ धरा का धरा रह गया. हमारे घर जो अवतरित हुई वो लक्ष्मी बन के रहना ही नहीं चाहती. उसके दिल में और घर में हम बहनों के लिए जगह ही नहीं. दुःख होता है जब वो हम पर विश्वास नहीं करती. अपने दुःख दर्द नहीं बाँटती, अपनी ख्वाहिशें जाहिर नहीं करती, लाड़ दुलार नहीं करती.

वो तो बस इतना कहती है कि वो हमारे साथ अब नहीं रहना चाहती. शादी को छः महीने भी नहीं हुए. इतना वक़्त तो एक दूसरे को जानने समझने में ही निकल जाता है. इन्होंने ये वक़्त एक दूसरे से लड़ने झगड़ने और तरह तरह के इलज़ाम लगाने में बिता दिया.

अपरिपक्व मस्तिष्क के साथ बहुत तरह के खेल खेले जा सकते हैं. इसी तरह का खेल उनके रिश्तेदार खेल रहे हैं. हमारे दहेज विरोधी घर में हमने बिना किसी मांग के एक प्यारी सी लड़की को घर लाया. शायद उनके रिश्तेदारों को बिना प्रयास के, बिना किसी मांग और लोभ लालच को पूरा किए अपनी बेटी हमारे घर में देना रास नहीं आ रहा. इसलिए उसके घर संसार में आग लगाने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं.

सुबह एक निर्धारित समय पर उठना, घर को साफ़ सुथरा रखना, आने वाले मेहमानों को चाय पानी पेश करना, सुबह का नाश्ता और शाम की चाय बनाना, कपड़े धोना – ऐसे ही रोज़मर्रा के छोटे छोटे काम... ये सब करने को कहना अचानक ही अत्याचार की श्रेणी में गिना जाने लगा है. उनका ये भी इलज़ाम है कि हम सब भिखारी हैं. सच है भिखारी तो हैं! हमने उनके घर से आए गहने कपड़ों का हिसाब जो नहीं पूछा. उल्टा उनकी स्त्री धन की मात्र लगभग उतनी रखी जो हमें विरासत में मिलने वाले धन संपत्ति के बराबर हो.  

हमने अपनी ख़ुशी से बिना किसी पूर्वाग्रह के अपनी शादी के लिए रख छोड़े हुए सारे गहने बेहद खुले मन से इनके लिए दे दिए. इस क़ुरबानी का भी कोई मोल नहीं. हमारी इतनी सी इच्छा कि वो पानी में शक्कर सी हमारे साथ घुल मिल जाए. क्या ये इच्छा इतनी गलत है? अब समझ आया है कि क्यूँ शादी के बाद सवा साल तक बाहर जाने पर प्रतिबन्ध लगाया जाता है. ये तो एक बहाना होता है कि लड़की अपने नये घर संसार में रच बस जाए. अपने परिवार की तरह अपने नये परिवार का हिस्सा बन जाए.

हमारे घर में हम अपने आत्मनिर्भर होने पर बेहद गर्व करते हैं. इसलिए शायद हमने उन्हें गृहस्थी के सारे साजो सामान दिए. पर अब मन बहुत सहमा हुआ है कि कहीं वो अलग रहने की मांग न कर दे. उनकी नौकरी करने कि इच्छा भी स्वीकार्य है हमें बस मन इतना चाहता है कि छोटी सी नौकरी में धक्के खाने के बजाए वो कुछ ऐसा करे जिसमें सुकून से रह सके.

खैर, अब आगे क्या होगा ये तो वक़्त ही बताएगा. पर मेरे जैसे नारीवादियों को अब इसके लिए भी तैयार रहना होगा कि लड़की के शरीर पर पड़े मार के निशान झूठे भी हो सकते हैं और दहेज़ के लिए सताए जाने के इल्जामों की जाँच भी उतनी ही आवश्यक है. वरना जिस तरह का कष्ट आज हमारे परिवार को हो रहा वैसा कष्ट कोई और परिवार भी झेलेगा.

Saturday, 14 July 2018

खाज वाली कु*या

अध्याय ४५

हे ईश्वर

इस रचना के लिए मैं आपसे और अपने सभी अपनों से माफ़ी मांगना चाहती हूँ क्यूंकि कई बार मेरी रचनाएँ उन्हें डराती हैं और काफी आहत भी करती हैं. कई बार उन्होंने मुझसे चुप रहने या अपनी रचनाओं को थोड़ा सजाने सँवारने का भी कहा है पर हो नहीं पाया. भगवान, जिस तरह बुरे से बुरे इन्सान को इस दुनिया में रहने का हक है उसी तरह मेरी कड़वी से कड़वी बात को आप तक पहुंचने का पूरा हक है. इसलिए क्षमा तो चाहती हूँ पर झुक नहीं सकूंगी. भले ही इस बात से कोई भी मुझ पर कैसा भी इलज़ाम लगा दे, मैं सब इलज़ाम झेल सकती हूँ. पर मेरी रचना मेरी वो संतान है जिसकी शरारतों पर मैं खुद भले ही उसे दो थप्पड़ लगा दूँ, पर बाहर वालों को उस पर बोलने का कोई हक नहीं दूंगी.  

कुछ दिन पहले गुस्से में मेरे पिताश्री ने मुझे कहा ‘खाज वाली कु*या बन जाओगी तुम अगर सबसे झगड़ा करोगी.’ पितृसत्तात्मक समाज में रहने के और काम करने के साइड इफेक्ट्स ये भी होते हैं कि आपकी आवाज़ दबाई जाती है. आपके लिए गये निर्णय पर सवाल उठाये जाते हैं. आपके आने जाने के समय पर नज़र रखी जाती है. जब आप इन सब पर सवाल उठाते हैं या विरोध करते हैं तो लोग आप पर आक्षेप लगाने लगते हैं. हर किसी के सात खून माफ़ हैं पर मेरे लिए हर रस्ता बंद है. इस बात पर जब मैंने उंगली उठाई तो मुझे इस विशेषण से नवाज़ दिया गया.

सच तो कहा उन्होंने, मैं हूँ ही खाज वाली कु*या. मैं ही क्यूँ हर वो लड़की जिसका आत्मविश्वास उसका सबसे बड़ा हथियार होता है खाज वाली कु*या ही तो है. हर वो लड़की जो समाज की उठी हुई उँगलियों के बावजूद चाँद की तरफ ही देखती हैं, किसी की ऊँगली की गलती नहीं निकालती. हर वो लड़की जिस पर एसिड अटैक होने के बाद भी वो बाहर निकलती है, नौकरी तलाशती है और खुद का व्यवसाय भी शुरू करती है. हर वो लड़की खाज वाली कु*या होती है जो पति के छोड़े जाने के बाद दूसरा घर बसा लेती है या अपना घर बना लेती है. हर वो लड़की जो खूबसूरत सिर्फ अपने लिए दिखना चाहती है किसी और के लिए नहीं.

मैं खाज वाली कु*या ही सही, अच्छा है कि मैं किसी की पाली हुई कु*या नहीं हूँ. कम से कम मुझे कोई दुरदुरा तो नहीं सकेगा. 

Sunday, 8 July 2018

कहना ही क्या


अध्याय ४४ 

हे ईश्वर
क्या कहूँ? मुझे लगा था मैंने इतनी सी उम्र में बहुत कुछ देख लिया. पर आज मेरी आँखों ने जो देखा उसके बाद नहीं जानती क्या कहूँ? ३ साल की मासूम ने किसी का क्या बिगाड़ा था जो उसे इतनी भयानक सज़ा मिली. न जाने क्या सोच कर उसकी मां ने उसे एक बोरे के अन्दर डालकर किसी पन्चिंग बैग की तरह इस्तेमाल किया. क्या यादें होंगी इस मासूम सी बच्ची की बचपन की? क्या कहा करेगी सबको कि बचपन में उसे किस कदर सर आँखों पर बिठाया गया (!)
फिर नज़र पड़ी एक ऐसी लड़की पर जो कोर्ट में अपने प्यार को शादी तक पहुँचाने के लिए संघर्ष करती नज़र आई. उसके साथ भी बदसलूकी करके धर्म के ठेकेदार अपनी रोटियां सेंकते नज़र आये. प्यार के लिए, मानवता के लिए और किसी भी कोमल भाव के लिए आपकी दुनिया में जगह ही नहीं बची.
लोग क्यूँ इतनी नफरत के साथ रहते हैं. एक छोटे से कुत्ते की मासूम शरारतों के वीडियो पर भी लोग ये कहते हैं कि उसको सही प्रशिक्षण नहीं दिया गया है. हम कितने मशीनी हो गए हैं? क्यूँ ऐसा हो गया है आपका समाज. पर ईश्वर आपका समाज तो पहले से ऐसा था. याद है, प्रेमी जोड़ों की खून में डूबी लाशें और परिवार की प्रतिष्ठा के नाम पर दफन की गई सारी चीखें. ऐसा समाज किसी भी स्वस्थ सम्बन्ध को प्रश्रय दे भी कैसे सकता है?
मैंने भी कीचड़ पर पत्थर मार कर अपने ऊपर उड़ते छींटे स्वीकार कर लिए भगवान. निर्लज्ज जो हूँ. कम से कम चैन की नींद तो आयेगी अब मुझे. कभी कभी सोचती हूँ मैंने अपने ऊपर इतनी बंदिशें लगाईं भी क्यूँ? मेरे दोस्त कहते हैं ‘Keep your options open.’ पर मुझे लगता है ये वाक्य एक सस्ता बहाना है किसी भी राह चलते को मेरे साथ कुछ वक़्त बिताने देने के लिए. अपना जीवनसाथी तलाशने के लिए मुझे ऐसे किसी सस्ते बहाने की ज़रूरत नहीं है. जो मेरा है वो खुद मुझे ढूंढ लेगा.
भगवान बहुत समय लगेगा तुम्हारे समाज को मेरे जैसे इंसानों को खुले दिल से स्वीकारने के लिए. तब तक के लिए मैं अकेली ही सही. मेरी जिंदगी में कोई आ सकता था, आया भी. पर उनके अन्दर आपके समाज को आईना दिखाने की हिम्मत नहीं है. मेरे ईश्वर, मेरे दोस्त नहीं जानते जब कभी मेरे खुले व्यवहार की कैफियत मुझे मेरे अपनों को देनी पड़ती है तब मुझे कितनी तकलीफ से गुजरना पड़ता है. उस वक़्त बड़ी बेमानी सी लगती है ये ‘खुल कर जियो’ की सीख मुझे.
जिन लोगों ने मुझे ये सीख दी है वो खुद भी गली मुहल्लों में दबी जुबान में मेरे बारे में कानाफूसी करते नज़र आते हैं. रात के अँधेरे में चोरी छुपे मेरे घर के पिछले दरवाज़े पर दस्तक देना बहुत आसान है, इंतज़ार तो उसका है जो दिन के उजाले में सबके सामने मेरे घर आए या मुझे ही बुला ले. पर तुम्हारे दोगले समाज को ऐसा होते देख अच्छा नहीं लगता इसलिए हर बार कायरों की टोली ही मेरा नसीब बन जाती है. तुम्हारी धरती भी न भगवान, सच में वीरों से खाली हो चुकी है.
उनको मेरी बेबाकी से बड़ा डर लगता है, पर ये बेबाकी नहीं तो मैं भी कुछ नहीं. इसलिए पहली बार उनकी बात न मानकर अपनी बात रखती हूँ, इतना तो हक है न मेरा.

Tuesday, 3 July 2018

मैं हूँ ना


अध्याय ४३
हे ईश्वर
आज जब मैंने किसी की आँखों में ऑंखें डाल के देखा तो उसने नज़र झुका ली. मेरी सारी फिक्र को हंस कर उड़ा दिया. मुझे सम्मान देने का, महत्त्व देने का दिखावा भी किया. लोग ऐसे हैं कि मुंह में शक्कर घोलकर आपके सामने बात करते हैं और पीठ पीछे जहर उगलते हैं. ऐसे लोगों का उगला हुआ ज़हर आज जब उनके सामने आया तो लोग नज़र चुराने लगे, बगलें झाँकने लगे और सच्चाई को झुठलाने लगे. कितना डरते हैं न लोग उन लोगों से जो सच्चे होते हैं. किसी के बस का नहीं है हमारी नज़र के सामने स्वीकार करना कि उनके मन में किस किस्म का चोर है. खैर, कम से कम मैंने उन सब लोगों से एक बार ऑंखें तो मिलाईं. उन लोगों की आँखों में डर देखकर बहुत सुकून मिला.

पर भगवन, डर तो आज उनकी आँखों में भी था. भूखे शेर का निवाला बनने का डर. हर इन्सान की जिंदगी में एक ऐसा वक़्त आता है जब वो अपने विरोधियों ही नहीं, अपने करीबियों के भी खिलाफ खड़ा हो जाता है. ऐसा करना बदतमीज़ी नहीं, वक़्त का तकाजा है, नज़ाकत है. पर मुझे एक बात तो बताइए मेरे ईश्वर, मैं ही क्यूँ हर बार ऐसी जुर्रत करती हूँ? बताओ न! कब वो दिन आएगा कि मैं किसी को अपने लिए वही करते देखूंगी जो आज मैंने किया. सत्यम शिवम् सुन्दरम बोलने वाले आज फिर मेरे साथ इंसाफ नहीं कर पाए हैं क्यूंकि सत्य आज सुन्दर नहीं है.

क्या सच ये है कि किसी की कायरता ने एक बार फिर मेरी हिम्मत की आड़ ले ली? बताओ न! कुछ समझ नहीं आता मुझे भगवान. मुझे उनकी मजबूरी समझ आती है पर उनकी चुप्पी समझना मेरे बस की बात नहीं. वो भी एक ऐसा इन्सान जो किसी भी गलत बात पर चुप रहता ही नहीं. आ क्यूँ चुप रह गया जब उसके साथ कुछ गलत हुआ है. उसकी आँखों में जितना दुःख था न आज, मन करता है सारी दुनिया को आग लगा दूं. आज समझ में आता है कि लोग गुस्से में किसी की जान कैसे ले लेते हैं. मार डालती मैं भी एक आंसू जो उनका टपक जाता.

प्यार में पागल इन्सान ऐसे भी होते हैं क्या भगवान? क्या सचमुच सब कुछ अब ख़त्म हो जाएगा? या ख़त्म हो गया है? क्या हो गया है भगवान? बड़े कमज़ोर हो गये हैं हम आजकल. बर्दाश्त की हद ख़त्म हो गई है या हद मैंने थोड़ी और सीमित कर ली? क्या हुआ? क्या मैंने जिंदगी से ज़रूरत से ज्यादा उम्मीदें लगा रखी हैं? इतनी थोड़ी सी तो उम्मीद है भगवान कि मेरे साथ अब कुछ सही हो. प्लीज भगवान.

Sunday, 1 July 2018

शास्त्र और शस्त्र


अध्याय ४२ 
हे ईश्वर
सुनो द्रौपदी शस्त्र उठा लो
अब गोविन्द न आएंगे
स्वच्छ भारत अभियान में हम लोग बढ़ चढ़ कर अपना योगदान दे रहे हैं. अथक प्रयास करके गाँव गाँव तक बिजली, पानी ला रहे हैं, दवाएं बाँट रहे हैं, पेड़ लगा रहे हैं, पीने का पानी जुटा रहे हैं. बहुत गर्व होता है जब मैं देखती हूँ कि विकास की इस दौड़ में हम अपने सभी लोगों को साथ ले कर चलने का प्रयास कर रहे हैं. हमारे पास जो कुछ भी है वो खुले दिल से बाँटने की कोशिश कर रहे हैं.
इस सब के बीच एक और स्वच्छ भारत अभियान है जो हमें चलाना है. हमें अपने घर के साथ साथ अपने मन भी तो साफ़ सुथरे करने हैं. यहाँ लड़कियों का सड़क चलना तक दुश्वार है और हम नई नई सड़कें बना रहे हैं. इन्टरनेट पटा पड़ा है नोच खसोट के दहला देने वाले दृश्यों से. आज मन बहुत दुखा हुआ है. इन्टरनेट पर फिर से भयानक कहानियां सुनने को मिलीं. एक पूरा परिवार जिसमें ११ लोग थे, पता नहीं किस कारण उन लोगों ने खुद को ख़त्म कर लिया या फिर उनको किसी ने मार दिया. ७ साल की दिव्या और १७ साल की संस्कृति की चीखें भी गूंजी. सो नहीं सकी हूँ दो रातों से. मन खट्टा हो गया. अपने ऊपर बेतरह शर्म आ गयी भगवान जब मन में आया ‘शुक्र है ऐसा मेरे साथ नहीं हुआ.’

पर क्या सच में ऐसा कुछ मेरे साथ नहीं हुआ? ये जो ‘बिगड़ी हुई लड़की’ का तमगा आपके समाज ने मुझे दे दिया है, वो क्या है? क्या है ये देर रात को आने वाले अनचाहे फ़ोन? क्या है जो किसी भी इन्सान को मेरे अकेले होने और अनब्याहे होने पर वक्र दृष्टि डालने की अनुमति देता है. मेरा अनब्याहा होना मेरी अपनी इच्छा है, कोई मजबूरी नहीं.और अपने तरीके से जीने की कैफियत मैं किस किस को दूँ और क्यूँ? क्या क्या बताऊँ आपको ईश्वर? आप तो सर्वज्ञापी और सर्वज्ञानी हैं.

कल मेरी जिंदगी का एक बहुत बड़ा दिन है. कल मुझे किसी से साफ़ साफ बात करनी है. आँखों में ऑंखें डाल के अपने हमलावर की आँखों में देखना है. बताना है उसे कि वो मुझे डरा नहीं पाया है. मैं हारी नहीं हूँ, मैं टूटी भी नहीं हूँ. मैं डरती तो बिलकुल भी नहीं हूँ. मेरी मदद करो, ईश्वर. मुझे अब अपना गोविन्द खुद बनना है. अब अपनी रक्षा के लिए शस्त्र मुझे खुद उठाने हैं. मेरी निर्भीकता ही मेरा सबसे बड़ा शस्त्र है, ईश्वर. मुझे हिम्मत दो सब कुछ ठीक करने की.

अकेले हैं तो क्या गम है

  तुमसे प्यार करना और किसी नट की तरह बांस के बीच बंधी रस्सी पर सधे हुए कदमों से चलना एक ही बात है। जिस तरह नट को पता नहीं होता कब उसके पैर क...