अध्याय ४६
हे ईश्वर
आज मैंने नारीवाद का एक दूसरा ही
पहलू देखा. मैंने सोचा था कि जब मेरे घर में कोई बहु बन कर कदम रखेगी तो उसे सर
आँखों पर बिठा कर रखूंगी. उसके हर अरमान पूरे करुँगी, उसके कहने से पहले ही उसकी
हर इच्छा उसके हाथों में रख़ दूंगी. उसे बहु नहीं बेटी बना कर रखूंगी. पर ये सारा
कुछ धरा का धरा रह गया. हमारे घर जो अवतरित हुई वो लक्ष्मी बन के रहना ही नहीं
चाहती. उसके दिल में और घर में हम बहनों के लिए जगह ही नहीं. दुःख होता है जब वो
हम पर विश्वास नहीं करती. अपने दुःख दर्द नहीं बाँटती, अपनी ख्वाहिशें जाहिर नहीं करती,
लाड़ दुलार नहीं करती.
वो तो बस इतना कहती है कि वो हमारे
साथ अब नहीं रहना चाहती. शादी को छः महीने भी नहीं हुए. इतना वक़्त तो एक दूसरे को
जानने समझने में ही निकल जाता है. इन्होंने ये वक़्त एक दूसरे से लड़ने झगड़ने और तरह
तरह के इलज़ाम लगाने में बिता दिया.
अपरिपक्व मस्तिष्क के साथ बहुत तरह के
खेल खेले जा सकते हैं. इसी तरह का खेल उनके रिश्तेदार खेल रहे हैं. हमारे दहेज
विरोधी घर में हमने बिना किसी मांग के एक प्यारी सी लड़की को घर लाया. शायद उनके
रिश्तेदारों को बिना प्रयास के, बिना किसी मांग और लोभ लालच को पूरा किए अपनी बेटी
हमारे घर में देना रास नहीं आ रहा. इसलिए उसके घर संसार में आग लगाने का हर संभव
प्रयास कर रहे हैं.
सुबह एक निर्धारित समय पर उठना, घर
को साफ़ सुथरा रखना, आने वाले मेहमानों को चाय पानी पेश करना, सुबह का नाश्ता और
शाम की चाय बनाना, कपड़े धोना – ऐसे ही रोज़मर्रा के छोटे छोटे काम... ये सब करने को
कहना अचानक ही अत्याचार की श्रेणी में गिना जाने लगा है. उनका ये भी इलज़ाम है कि
हम सब भिखारी हैं. सच है भिखारी तो हैं! हमने उनके घर से आए गहने कपड़ों का हिसाब
जो नहीं पूछा. उल्टा उनकी स्त्री धन की मात्र लगभग उतनी रखी जो हमें विरासत में
मिलने वाले धन संपत्ति के बराबर हो.
हमने अपनी ख़ुशी से बिना किसी पूर्वाग्रह
के अपनी शादी के लिए रख छोड़े हुए सारे गहने बेहद खुले मन से इनके लिए दे दिए. इस
क़ुरबानी का भी कोई मोल नहीं. हमारी इतनी सी इच्छा कि वो पानी में शक्कर सी हमारे
साथ घुल मिल जाए. क्या ये इच्छा इतनी गलत है? अब समझ आया है कि क्यूँ शादी के बाद
सवा साल तक बाहर जाने पर प्रतिबन्ध लगाया जाता है. ये तो एक बहाना होता है कि लड़की
अपने नये घर संसार में रच बस जाए. अपने परिवार की तरह अपने नये परिवार का हिस्सा
बन जाए.
हमारे घर में हम अपने आत्मनिर्भर
होने पर बेहद गर्व करते हैं. इसलिए शायद हमने उन्हें गृहस्थी के सारे साजो सामान
दिए. पर अब मन बहुत सहमा हुआ है कि कहीं वो अलग रहने की मांग न कर दे. उनकी नौकरी
करने कि इच्छा भी स्वीकार्य है हमें बस मन इतना चाहता है कि छोटी सी नौकरी में
धक्के खाने के बजाए वो कुछ ऐसा करे जिसमें सुकून से रह सके.
खैर, अब आगे क्या होगा ये तो वक़्त
ही बताएगा. पर मेरे जैसे नारीवादियों को अब इसके लिए भी तैयार रहना होगा कि लड़की
के शरीर पर पड़े मार के निशान झूठे भी हो सकते हैं और दहेज़ के लिए सताए जाने के
इल्जामों की जाँच भी उतनी ही आवश्यक है. वरना जिस तरह का कष्ट आज हमारे परिवार को
हो रहा वैसा कष्ट कोई और परिवार भी झेलेगा.
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