अध्याय ४४
हे ईश्वर
क्या कहूँ? मुझे लगा था मैंने इतनी
सी उम्र में बहुत कुछ देख लिया. पर आज मेरी आँखों ने जो देखा उसके
बाद नहीं जानती क्या कहूँ? ३ साल की मासूम ने किसी का क्या बिगाड़ा था जो उसे इतनी
भयानक सज़ा मिली. न जाने क्या सोच कर उसकी मां ने उसे एक बोरे के अन्दर डालकर किसी
पन्चिंग बैग की तरह इस्तेमाल किया. क्या यादें होंगी इस मासूम सी बच्ची की बचपन
की? क्या कहा करेगी सबको कि बचपन में उसे किस कदर सर आँखों पर बिठाया गया (!)
फिर नज़र पड़ी एक ऐसी लड़की पर जो
कोर्ट में अपने प्यार को शादी तक पहुँचाने के लिए संघर्ष करती नज़र आई. उसके साथ भी
बदसलूकी करके धर्म के ठेकेदार अपनी रोटियां सेंकते नज़र आये. प्यार के लिए, मानवता
के लिए और किसी भी कोमल भाव के लिए आपकी दुनिया में जगह ही नहीं बची.
लोग क्यूँ इतनी नफरत के साथ रहते
हैं. एक छोटे से कुत्ते की मासूम शरारतों के वीडियो पर भी लोग ये कहते हैं कि उसको
सही प्रशिक्षण नहीं दिया गया है. हम कितने मशीनी हो गए हैं? क्यूँ ऐसा हो गया है
आपका समाज. पर ईश्वर आपका समाज तो पहले से ऐसा था. याद है, प्रेमी जोड़ों की खून
में डूबी लाशें और परिवार की प्रतिष्ठा के नाम पर दफन की गई सारी चीखें.
ऐसा समाज किसी भी स्वस्थ सम्बन्ध को प्रश्रय दे भी कैसे सकता है?
मैंने भी कीचड़ पर पत्थर मार कर अपने
ऊपर उड़ते छींटे स्वीकार कर लिए भगवान. निर्लज्ज जो हूँ. कम से कम चैन की नींद तो
आयेगी अब मुझे. कभी कभी सोचती हूँ मैंने अपने ऊपर इतनी बंदिशें लगाईं भी क्यूँ?
मेरे दोस्त कहते हैं ‘Keep your options open.’ पर मुझे लगता है ये वाक्य एक सस्ता
बहाना है किसी भी राह चलते को मेरे साथ कुछ वक़्त बिताने देने के लिए. अपना
जीवनसाथी तलाशने के लिए मुझे ऐसे किसी सस्ते बहाने की ज़रूरत नहीं है. जो मेरा है वो
खुद मुझे ढूंढ लेगा.
भगवान बहुत समय लगेगा तुम्हारे समाज
को मेरे जैसे इंसानों को खुले दिल से स्वीकारने के लिए. तब तक के लिए मैं अकेली ही
सही. मेरी जिंदगी में कोई आ सकता था, आया भी. पर उनके अन्दर आपके समाज को आईना
दिखाने की हिम्मत नहीं है. मेरे ईश्वर, मेरे दोस्त नहीं जानते जब कभी मेरे खुले
व्यवहार की कैफियत मुझे मेरे अपनों को देनी पड़ती है तब मुझे कितनी तकलीफ से गुजरना
पड़ता है. उस वक़्त बड़ी बेमानी सी लगती है ये ‘खुल कर जियो’ की सीख मुझे.
जिन लोगों ने मुझे ये सीख दी है वो
खुद भी गली मुहल्लों में दबी जुबान में मेरे बारे में कानाफूसी करते नज़र आते हैं. रात
के अँधेरे में चोरी छुपे मेरे घर के पिछले दरवाज़े पर दस्तक देना बहुत आसान है,
इंतज़ार तो उसका है जो दिन के उजाले में सबके सामने मेरे घर आए या मुझे ही बुला ले.
पर तुम्हारे दोगले समाज को ऐसा होते देख अच्छा नहीं लगता इसलिए हर बार कायरों की
टोली ही मेरा नसीब बन जाती है. तुम्हारी धरती भी न भगवान, सच में वीरों से खाली हो
चुकी है.
उनको मेरी बेबाकी से बड़ा डर लगता
है, पर ये बेबाकी नहीं तो मैं भी कुछ नहीं. इसलिए पहली बार उनकी बात न मानकर अपनी
बात रखती हूँ, इतना तो हक है न मेरा.
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