Tuesday, 3 July 2018

मैं हूँ ना


अध्याय ४३
हे ईश्वर
आज जब मैंने किसी की आँखों में ऑंखें डाल के देखा तो उसने नज़र झुका ली. मेरी सारी फिक्र को हंस कर उड़ा दिया. मुझे सम्मान देने का, महत्त्व देने का दिखावा भी किया. लोग ऐसे हैं कि मुंह में शक्कर घोलकर आपके सामने बात करते हैं और पीठ पीछे जहर उगलते हैं. ऐसे लोगों का उगला हुआ ज़हर आज जब उनके सामने आया तो लोग नज़र चुराने लगे, बगलें झाँकने लगे और सच्चाई को झुठलाने लगे. कितना डरते हैं न लोग उन लोगों से जो सच्चे होते हैं. किसी के बस का नहीं है हमारी नज़र के सामने स्वीकार करना कि उनके मन में किस किस्म का चोर है. खैर, कम से कम मैंने उन सब लोगों से एक बार ऑंखें तो मिलाईं. उन लोगों की आँखों में डर देखकर बहुत सुकून मिला.

पर भगवन, डर तो आज उनकी आँखों में भी था. भूखे शेर का निवाला बनने का डर. हर इन्सान की जिंदगी में एक ऐसा वक़्त आता है जब वो अपने विरोधियों ही नहीं, अपने करीबियों के भी खिलाफ खड़ा हो जाता है. ऐसा करना बदतमीज़ी नहीं, वक़्त का तकाजा है, नज़ाकत है. पर मुझे एक बात तो बताइए मेरे ईश्वर, मैं ही क्यूँ हर बार ऐसी जुर्रत करती हूँ? बताओ न! कब वो दिन आएगा कि मैं किसी को अपने लिए वही करते देखूंगी जो आज मैंने किया. सत्यम शिवम् सुन्दरम बोलने वाले आज फिर मेरे साथ इंसाफ नहीं कर पाए हैं क्यूंकि सत्य आज सुन्दर नहीं है.

क्या सच ये है कि किसी की कायरता ने एक बार फिर मेरी हिम्मत की आड़ ले ली? बताओ न! कुछ समझ नहीं आता मुझे भगवान. मुझे उनकी मजबूरी समझ आती है पर उनकी चुप्पी समझना मेरे बस की बात नहीं. वो भी एक ऐसा इन्सान जो किसी भी गलत बात पर चुप रहता ही नहीं. आ क्यूँ चुप रह गया जब उसके साथ कुछ गलत हुआ है. उसकी आँखों में जितना दुःख था न आज, मन करता है सारी दुनिया को आग लगा दूं. आज समझ में आता है कि लोग गुस्से में किसी की जान कैसे ले लेते हैं. मार डालती मैं भी एक आंसू जो उनका टपक जाता.

प्यार में पागल इन्सान ऐसे भी होते हैं क्या भगवान? क्या सचमुच सब कुछ अब ख़त्म हो जाएगा? या ख़त्म हो गया है? क्या हो गया है भगवान? बड़े कमज़ोर हो गये हैं हम आजकल. बर्दाश्त की हद ख़त्म हो गई है या हद मैंने थोड़ी और सीमित कर ली? क्या हुआ? क्या मैंने जिंदगी से ज़रूरत से ज्यादा उम्मीदें लगा रखी हैं? इतनी थोड़ी सी तो उम्मीद है भगवान कि मेरे साथ अब कुछ सही हो. प्लीज भगवान.

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