Monday, 31 December 2018

फिर वही...


अध्याय ६६ 

हे ईश्वर
एक और साल खत्म होने वाला है और मेरी किस्मत वहीं की वहीं है। सांस रोके, दम साधे अपनी मौत का इंतज़ार करता हुए मेरा प्यार एक बार फिर सोचता है अपनी गलतियों के बारे में। शायद सब कुछ नहीं बताना चाहिए था, शायद सच नहीं कहना चाहिए था, शायद अपने अतीत को छुपा लेना चाहिए था। मैं इतना तो जान गई हूँ भगवान कि गलती मेरे अतीत की ही है। मैं जब भी नई शुरुआत करना चाहती हूँ, ये रास्ते में खड़ा हो जाता है। मैं खुद भी पूरी तरह खुद को कहाँ माफ कर पाई हूँ। मुझे आज तक एक बात समझ नहीं आ सकी...मैंने सिर्फ प्यार किया भगवान। जिसे भी आप मेरे जीवन में लाए, उसे किया, पूरी शिद्दत और ईमानदारी से। वही ईमानदारी सामने वाले ने क्यूँ नहीं दिखाई? जैसे मैंने किसी को अपना लिया उसकी हर अदा और आदत के साथ, किसी ने उसी तरह मुझे क्यूँ नहीं अपनाया।

मैंने आपसे बहुत सारे सवाल किए हैं, पर जवाब एक भी नहीं है। मिला ही नहीं। जब भी कोई जीवन में आता है अपने कसमों वादों के साथ, मैं आपके आगे सिर झुका कर स्वीकार कर लेती हूँ। जैसे जैसे वक़्त बीतता है, उसके सारे वादे टूटते चले जाते हैं। वो प्यार कहीं गुम हो जाता है और उसकी जगह नियति की क्रूर हंसी ले लेती है। जिसने कल मेरी आँखों में कभी आँसू न आने देने का वादा किया था, आज मुझे ज़ार ज़ार रुला रहा है। जो आज कल मेरे साथ जिंदगी भर रहने का दावा करता था, आज मेरे साथ दो कदम नहीं चलना चाहता। इंसान की फितरत हवा से भी जल्दी रुख बदल लेती है, मैं बस देखती रह जाती हूँ। क्या है आपके मन में भगवान? बताइये तो सही!!

मैंने आज किसी से मदद मांगी और उसका नतीजा भी भुगत लिया। आज साल का आखिरी दिन है पर नियति तो जैसे ठान चुकी है कि इस रिश्ते को भी आज ही अंतिम सांसें गिनवा देगी। मैं नहीं चाहती ऐसा हो... क्या करूँ कि ये सब यहीं रुक जाए? कैसे समझाऊँ उसे कि मैंने मदद मांगी थी, तक़ाज़ा नहीं किया था! क्या करूँ कि उसकी आँखों में वही फिक्र और प्यार लौटे? क्या करूँ कि आज के दिन मेरी आँखों में आँसू न आए? क्या करूँ, भगवान???

Friday, 28 December 2018

वितृष्णा


अध्याय ६५ 

हे ईश्वर

मन बहुत अशांत है आज। लगता है कहीं भी सुकून नहीं मिलेगा। आजकल लगता है औरत होकर इतना आगे बढ़ना शायद मेरे लिए उचित नहीं था। मैं आत्मनिर्भर होकर भी इस कदर पराश्रित और परावलंबी हूँ। प्रतिदान भी देती हूँ और उसे ग्रहण करने के लिए किसी की अभ्यर्थना भी करती हूँ। ये कैसे याचक है भगवान, जो याचना भी अधिकारपूर्वक करते हैं और उलाहने भी देते हैं अस्वीकार करने पर। अतीत का एक पृष्ठ बार बार खुल कर आता है। मेरा एक मित्र हुआ करता था हालांकि उस स्वार्थी और लोभी पुरुष को मित्र कहना मित्रता के मुंह पर तमाचा है। उसने मुझसे जब भी मदद मांगी, मैंने की। हंस के कहता था, कभी नहीं चुकाऊंगा तेरा उधार। सच ही उसने जब विश्वासघात किया तो उसकी ओछी निकृष्ट हरकतों के जवाब में मैं बस असीमित सी अपनी चुप में सिमट गई। बेहद चोट पहुंचाई थी उसने मुझे भगवान। ऐसे सभी कथित मित्रों का ध्यान आज आ रहा है मुझे। मैंने मदद यही सोच कर की थी कि समय कुसमय कोई ज़रूरत पड़ने पर मुझे भी वही अवलंब मिलेगा। पर आवश्यकता पड़ने पर सारे के सारे न जाने क्यूँ कन्नी काट गए। ये सोचने से क्या लाभ कि मैं फिर कभी किसी का संबल नहीं बनूँगी। मैं जानती हूँ मैं फिर फिर वही गलतियाँ दुहराऊंगी क्यूंकि मुझे आप पर विश्वास है।

क्यूँ भगवान? आपका सर्वशक्तिमान पुरुष इतना कायर और परावलंबी क्यूँ है? कितनी ही माओं को बड़े गर्व से कहते सुना है कि उसने अपने लाडलों को बड़े अच्छे संस्कार दिए हैं। क्या यही उन सब के संस्कार हैं, मां कि छल, कपट, मिथ्या, घड़ियाली आंसू और हमेशा अपने संस्कारों और रीत रिवाजों की दुहाई देते रहें पर साथ ही साथ प्रेम के नाम पर छल भी करते रहें। ऐसे ही एक बार एक किसी को आड़े हाथों लिया था मैंने। बहुत बड़ी गलती की थी। हर तरफ से फटकार बरसी थी उस समय मुझ पर। उस वक़्त एहसास हुआ कि शादी के बारे में सोच कर भी मैंने कितनी बड़ी गलती की। मेरे भाग्य में सुहाग के चिन्ह नहीं हैं। कभी होंगे भी नहीं क्यूंकि मेरे जीवन में आने वाले हर पुरुष के पास मुझे देने ले लिए सिर्फ उलाहना ही है, और कुछ भी नहीं।

Tuesday, 25 December 2018

चरित्रहीन


 अध्याय ६४ 

मेरे भगवान!!

कल जो हुआ उसे बयान करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है । एक दोस्त से साझा की गई बातों का ये मतलब निकाला जाएगा ऐसा मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। अब समझ में आया है कि लड़की के चरित्र पर कीचड़ उछालना किस कदर आसान है। कुछ काम नहीं आता ऐसे वक़्त पर। आपकी शिक्षा दीक्षा, आपके संस्कार, आपकी वफादारी और आपका प्यार - सब भूल जाते हैं लोग जब उनके मन में शक का कीड़ा कुलबुलाता है। कहने से क्या फायदा कि मेरे मन में ऐसा कोई ख्याल नहीं और मैंने अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। मन तो इतना दहल गया था कि बचपन से आज तक के अपने हर दोस्त का मन ही मन आकलन कर लिया। राहत की सांस ली ये सोच कर कि तकरीबन सारे विवाहित हैं और उनमें से कोई भी अब संपर्क में नहीं है। जिसके लिए ये बात उन्होंने बोली वो भी तो न सिर्फ विवाहित बल्कि दो प्यारे बच्चों के पिता भी हैं। जब बिना कुछ किए मेरा ये हाल है तो उन लड़कियों का क्या होता होगा जो सचमुच दो नावों की सवारी किया करती हैं।

ख़ैर उन्होंने अपने शब्दों के लिए क्षमा मांग ली और मैंने उनको माफ भी कर दिया। पर मेरा मन अभी भी अशांत है। क्या मैं भी उन हजारों स्त्रियों की तरह अपना हर शौक भूल जाऊँगी, दोस्तों और समाज से किनारा कर लूँगी, पर- पुरुष को भैया कहना शुरू कर दूँगी और अपने मन की मन में दबाना सीख जाऊँगी? फिर मेरे सपने का क्या होगा? मंटो, शिवानी, अमृता प्रीतम जैसों की तरह महान तो नहीं पर छोटी सी  रचनाकार बनने की इच्छा है न मेरी! क्या वो सपना मैं मार दूँ?

प्रभा खेतान की अन्या से अनन्या की याद आ गई। दूसरी औरत असल में क्या होती है इसका जितना सटीक और मार्मिक चित्रण उन्होंने किया शायद मैंने कहीं और कभी नहीं पढ़ा। अपनी स्थिति की मन ही मन उनसे तुलना करने से खुद को नहीं रोक पाई मैं। किस तरह अपना समय, श्रम, पैसा, प्यार और सर्वस्व देकर भी एक पुरुष का विश्वास नहीं जीत सकी थीं वो। ईश्वर, औरत हमेशा क्यूँ हार जाती है? कभी सीता हार गईं थीं और आज मैं... मुझे जीतना है ईश्वर। अपने हर गुण, अवगुण और सहज आचरण के साथ उनका विश्वास जीतना है। मेरी मदद करो न, प्लीज।

Saturday, 22 December 2018

अर्द्ध पुरूष

अध्याय 63 
हे ईश्वर
कहने को आपकी दुनिया में आदमी सर्वशक्तिमान है। पर मेरी दुनिया में आपने चुन चुन कर सबसे दीन हीन, कमजोर और निरीह प्राणी भेजे हैं। समाज कहता है कि औरत वो बेल है जो आदमी रूपी वृक्ष के बिना फल फूल नहीं सकती। पर आप साक्षी हैं....पति, पिता भाई जिस भी रूप में पुरुष मेरे जीवन में हैं, सब आधे अधूरे ही हैं। कुछ भी करने में खुद को असमर्थ पाते हैं, बेचारगी जताते हैं। कितना अजीब हिसाब किताब है मेरी दुनिया का ईश्वर, आपकी दुनिया से बिलकुल उलट। कहाँ है वो पुरुष जो रक्षा करता है? यहाँ तो मेरी छवि बिगाड़ने के लिए मेरे जनक का एक जहरबुझा वाक्य ही बहुत है। मुझे वो सारे कापुरूष बहुत याद आते हैं आजकल जिनको पीछे छोड़ कर मैं बहुत पहले ही आगे बढ़ चुकी हूँ। मेरी जिंदगी और मैं ऐसी क्यूँ हूँ? फिर लोग कहते हैं, तुम चाहती हो कि कोई तुम्हारे साथ न हो। क्यूँ चाहूंगी ईश्वर? ऐसा क्या सुखद बदलाव आ जाता है मेरे जीवन में किसी के होने से? मेरी आत्मा और शरीर निचोड़ कर भी बदले में मुझसे घृणा ही तो करता है आपका भेजा हुआ हर पुरुष।मेरी कमियाँ गिनाते समय किस कदर सुकून उभर आता है उसकी आँखों में। फिर भी मेरा विश्वास नहीं टूटा। मैंने तब भी पकड़े रखी अपनी ‘मुझमें अच्छाई बाकी है’ की हठ। वैसे सच कहूँ...!!
मुझे तो ऐसा लगता है आपने पुरुष बनाने ही बंद कर दिए अब। जितने हैं सब अर्द्धपुरुष। याद आता है कैसे मैं किसी को उसके घर सुरक्षित पहुंचा कर ही घर जाती थी। कैसे रात के चौथे पहर में घर आने पर भी सड़क पार रहने वाला मेरी रक्षा के लिए कुछ सीढ़ियाँ भी नहीं उतर पाता था। किस तरह किसी खास मौके पर या तो खुद ही सारा सरंज़ाम करती थी ये फिर बस सब्र कर लिया करती थी। मैंने बस इतनी सी उम्मीद की थी किसी से कि मेरा इतना इंतज़ार किया था तो कद्र भी कर लेता थोड़ी। पर नहीं, ऐसा हुआ नहीं। आपकी दुनिया ने मुझे जितना निराश किया उतनी ही खुद को खुश रखने की मेरी आदत बन गई। आज मेरी ज़िंदगी में कोई भी रहे या जाए, मैं बिखर तो जाती हूँ पर खुद को समेट भी लेती हूं। मेरी हार मुझे फिर चलने का हौसला दे देती है। दर्द में जीना मेरी आदत सी बन गई है। मुझे डर लगता है आने वाले कल से क्योंकि वो मेरी सारी खुशियां और अरमान कुचल कर किसी और को देने वाला है। उस दिन का इंतज़ार भी है और उसी दिन की दस्तक से दहशत भी होती है। इंतज़ार है ताकि मैं एक बार फिर ठोकर खाकर गिरूं और ज़ख्म भरने का इंतज़ार करूँ। एक बात बताइए न..ऐसा क्यों नहीं होता कि मेरा विश्वास पूरी तरह उठ जाए। हर बार एक ही सपना और एक सी निराशा। कभी ऐसा क्यों नहीं होता कि पूरी हो जाए मेरी उम्मीद। पर वो भी अब एक दूर की कौड़ी लगती है। शायद यही मेरी नियति है कि मेरी ज़िंदगी में आने वाले मेरा विश्वास तोड़ते जाएं और मैं  विश्वास करती जाऊं। यही आपकी इच्छा है क्या??

Wednesday, 19 December 2018

कोई और है....


अध्याय ६२ 
हे ईश्वर 

किसी का हाथ अब मेरे हाथों में है या नहींक्या उसका साथ छूट गया हैक्या खो दिया है हमने हमारा प्यारक्या अब मेरा उस पर कोई अधिकार नहींक्या वो बदल गया या बदल जाएगाक्या सच में लोग जो कहते हैं वही सच हैमैं अपनी जिंदगी बर्बाद किए जा रही हूँ खुद अपने हाथों से। जो भी छूती हूँबिखर जाता है। जो रिश्ता बनाती हूँ टूट जाता है। कोई मेरे साथ रहना नहीं चाहता या मैं खुद ही लोगों को मजबूर कर देती हूँ खुद से दूर जाने पर। कौन देगा इसका जवाब

मैंने आज फिर उन पर झूठेबेबुनियाद और बेहद कड़वे इल्ज़ाम लगाए। शायद अब वो मुझसे नफरत करते होंगे। मैं ऐसा क्यूँ चाहती हूँ भगवान कि जिसे भी मैं प्यार करती हूँ वो मुझसे कोसों दूर चला जाए और वहीं रहे। पर दूर जाने का फैसला मेरा तो नहीं था। अपने परिवार की पसंद पर मुहर लगाने का निर्णय उनका था। अगर मुझमें इस तरह उनको किसी और का होता देखने की शक्ति नहीं है तो क्या करूँमैं पहले ही बेहद दर्द में हूँ अब अगर ये सब अपनी आँखों से देखूँगी तो सांस तक लेना दूभर हो जाएगा। पहले भी हुआ था ऐसा दर्द मुझेउस बात को दिन ही कितने हुए हैं

फिर भी आज मैं उसी जगह आके फिर क्यूँ खड़ी हो गई? खुद से किए सारे वादे भूल गई थी मैं उनके प्यार के लिए। क्या क्या तो सोचा था। अब मैं खुद को वो प्यार दूँगी जो किसी ने मुझे कभी नहीं दिया। अपने आप के साथ रहूँगी, अपनी खुशी खुद में ढूंढ लूँगी और अपने लिए उसी प्यार और ध्यान की उम्मीद करूंगी जैसे मैं दूसरों का रखती हूँ। वही मैं किसी के लिए अपनी जिंदगी तक खत्म करने का सोचने लगी हूँ। मैं कब से इतनी कमजोर हो गई? जहां उसने मुझे रिश्ता और आदत में से कोई एक चुनने को कहा था, वहाँ मैंने अपना रिश्ता चुन लिया। आदत छोड़ क्यूँ दी? जब एक दिन वो मुझे मेरी इसी आदत के साथ छोड़ देने का इरादा करके आया था।

उनका कहना है मेरी आदतों के साथ मैं कोई समझौता नहीं कर सकती। पर उसने भी तो मुझे बदल कर ही प्यार किया। मैं जैसी हूँ मुझे वैसे ही स्वीकार किसने किया ही है आज तक? फिर मैं क्यूँ किसी की चेहरे की मुस्कान के लिए अपनी सारी खुशियाँ वार देती हूँ? किसी की आँखों के आँसू पोंछने के लिए मैंने अपनी रातों की नींद हराम कर ली है। मन डूब सा जाता है जब मैं घर पर बात कर रही होती हूँ और वो कहते हैं किसी यार का फोन होगा। अजीब लगता है जब कहीं भी आने जाने की और देर तक बाहर रहने कि कैफियत देती हूँ। जब दफ्तर के सारे जलसे छोड़ कर मैं सिर्फ इसलिए घर आ जाती हूँ क्यूंकि मेरा देर रात बाहर रहना उनकी फिक्र की वजह है। मुझे उनकी फिक्र पर प्यार आता है, पर उनके शक पर गुस्सा। मैं उनके साथ एक रिश्ते में हूँ, अपनी खुशी से। फिर भी जब वो कहते हैं मेरी तरफ से आज़ाद हो तुम तो किसी बंधन में रहने को मन तरस के रह जाता है। इस आज़ादी से लाख दर्जे अच्छी तो उनके नियम कायदों की बेड़ियाँ हैं। उनमें कम से कम मेरे लिए उनका प्यार और फिक्र तो झलकती है। वो स्वतन्त्रता दूसरी ही होती है जिसमें लोग किसी को खुला छोड़ देते हैं कि वापस आए तो उनका है। ये तो कुछ और है। एक थोपी गई उड़ान कि अब तुम्हारे लिए मेरे पास कुछ बाकी नहीं बचा...मैं क्या करूँ?

ये इंसान जिसे मैं इतना प्यार करती हूँ। खुद अकेला होकर भी उसे मेरे अकेलेपन का एहसास ही नहीं। किसी ने एक बार उसके प्यार का अपमान किया था जिसकी टीस आज भी है। फिर कैसे वो भी उसी तरह का दर्द मुझे देने पर उतर आया है। उसका कहना है कि तुम खुद काफी हो खुद को नष्ट करने के लिए। सच तो है... ऐसे ही तो मायापंछी (phoenix) में खुद को नहीं देखती न मैं! खुद को जला केपूरी तरह खत्म करके ही मुझे चैन आता है। अब वक़्त आ गया है एक बार फिर से खुद को खत्म करने का। अब मैं रख के करूंगी भी क्या

कुछ वैसे ही जैसे कोई गुनाह का रास्ता छोड़ कर नेकी के रास्ते पर चलना चाहे लेकिन समाज उसे बार बार उसी दलदल में धकेल दे। मुझे भी अब लगने लगा है कि ये दलदल ही मेरा घर हैमुझे इसे छोड़ कर जाना ही नहीं चाहिए। 

Monday, 17 December 2018

परित्यक्ता


अध्याय ६१

हे माँ

एक छोड़ी हुई औरत का भविष्य कितना अंधकारमय होता है न! मुझे न जाने क्यूँ आज इस बात का एहसास हुआ। मेरी एक ज़िद आज मुझ पर बेहद भारी पड़ गई। वो इतने नाराज़ हो गए। वो हमेशा नाराज़ क्यूँ हो जाते हैं भगवान

क्या मैं वैसी ही हूँ जैसा लोग कहते हैं? या मैं अपनी जगह सही हूँ? कुछ समझ नहीं आता। क्या कल सब कुछ ठीक हो जाएगा? या कल भी उनका वही लहज़ा और वही बातें होंगी। मन बहुत विचलित सा है। ईश्वर प्यार जब आता है तो हमें एहसास क्यूँ नहीं होता कि इस प्यार और ध्यान की उम्र सीमित है। ये जो एक्स्पायरी डेट वाला प्यार आप बार बार मेरी जिंदगी में भेज देते हो, ऐसा प्यार मुझे बेहद तकलीफ पहुंचाता है। ये दो दिन मैंने जैसे बिताए आप तो जानते होंगे। कभी कभी मन करता है मैं वही करूँ जो मेरा दिल कहता है। पर ऐसा करना आसान नहीं है।

पता नहीं मैं क्यूँ विश्वास कर लेती हूँ हर बार। वो दूसरों से अलग है पर उसकी बातें वहीं हैं जो उन लोगों ने की थीं। गुस्से में कुछ भी बोलने वाले को पता भी है कि वो बोल क्या रहे हैं!! मेरी शादी, वो सारे लोग जो उनसे पहले आए थे, मेरी ज़िद और मेरा निरंकुश व्यवहार, कुछ भी तो नहीं छोड़ा। मज़े  की बात तो ये है कि उनके शब्द और उनके लहजे में वही सारी बातें थीं जो किसी और ने भी कहीं और इसी लहजे में कहीं। किस बूते वो कहते हैं कि वो दूसरों से अलग हैं!!

सब कुछ ऐसे ही तो शुरू होता है। प्यार से बात करना, ख्याल रखना, छोटी से छोटी बातें याद रखना और फिर... एक दिन वो सब भूल कर लोग मुझे दर्द पहुँचाने में लग जाते हैं। मेरा मन अजीब सा हो रहा है। मन करता है कि सब कुछ छोड़ कर मैं कहीं चली जाऊँ। पर अपने आप से भाग कर जाऊँगी भी कहाँ? गलती मेरी ही तो है। मुझे ही बहुत भरोसा है, खुद पर। बस इतना और...कि मेरा ये विश्वास बनाए रखिएगा। बाकी सब तो मैं देख लूँगी!

Friday, 14 December 2018

अधूरी अलविदा II

अध्याय ६० 
हे ईश्वर

माफी मांगती हूँ आपसे आज! मैंने आपकी दुनिया से प्यार, दोस्ती, ईमानदारी जैसी न जाने कितनी बड़ी बड़ी उम्मीदें लगा रखी थीं। आज मेरी वो सारी उम्मीदें टूटती नज़र आ रही हैं। सच कहूँ तो मैं भी बहुत टूट गई हूँ। लेकिन मैं आपकी इस दुनिया को खुद पर हंसने का मौका कभी नहीं दूँगी। मैं किसी के सामने कभी नहीं बिखरूंगी। 

मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि जिस इंसान को मैंने इतना प्यार दिया वो मुझसे इतनी नफरत कर सकता है। उसने न सिर्फ मुझे चोट पहुंचाई बल्कि आज मेरे साथ इतना अपमानजनक व्यवहार करके मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। मैं क्यूँ इस इंसान के साथ हूँ? क्या मजबूरी या कमजोरी है मेरी? एक आत्मनिर्भर, सशक्त और आत्मविश्वासी इंसान होकर भी मैं किसलिए ये अपमान सह रही हूँ? क्या प्यार का मतलब हर तरह का अपमान बिना किसी शिकायत के सुन लेना होता है? क्या प्यार और आत्मसम्मान में से प्यार को चुन कर मैंने कोई गलती की है? क्या सच में मुझे इस इंसान से भी दूर जाना पड़ेगा? क्या इसके लिए भी बंद हो गए हैं मेरे मन के दरवाजे? क्या जिंदगी में कभी मुझे पीछे पलट कर देखने का मन नहीं करेगा? कल उसने गलती की थी और आज माफी मांग ली। उसकी माफी में शिद्दत और अपनापन दोनों था। पर जब मैंने सोचने के लिए वक़्त मांगा वो अपने उसी रौ में आकर बोल पड़ा ' जैसी तुम्हारी इच्छा।' क्या है मेरी इच्छा भगवान? आज तक किसने रखा है मेरी इच्छा का मान!

अजीब है न ये बात ईश्वर! लोगों की नज़रों में मैंने अपना पूरा जीवन अपनी इच्छानुसार जिया है पर जहां से मैं देखती हूँ मुझे मेरे जीवन पर किसी और की इच्छा और अधिकार ही नज़र आता है। जब मैं अपने जीवन में विवाह के बारे में गंभीर थी उस वक़्त मेरा कैरियर अहम लग रहा था। आज जब मैं अपने कैरियर में नई उचाइयाँ छूना चाहती हूँ, अपना समय और ध्यान इसकी तरफ लगाना चाहती हूँ तब लोगों को मेरे अंधकारमय भविष्य की चिंता हो रही है। मेरे लिए वो सब कुछ चाहते हैं प्यार भी, परिवार भी, पद प्रतिष्ठा और मान सम्मान भी। 

अपने मन की मन में रखने वालों को पता भी है वो किस कदर सामने वाले को गुमराह करते रहते हैं। मैं उनके साथ रहना चाहती हूँ पर समाज और परिवार की सहमति वो मुझे दिला नहीं सकते न दिलाने की हिम्मत रखते हैं। देखा जाए तो इस रिश्ते में सिवाय अंतहीन समझौते के मेरे लिए है भी क्या? हाँ ये सच है कि मैं उनसे बेहद प्यार करती हूँ और उनकी हर खुशी और दुख में उनके साथ खड़े रहना चाहती हूँ। पर ये इंसान कभी तो अपने प्यार और परवाह से मुझे आकर्षित करता है और कभी ये निकृष्ट से शब्द मेरे लिए बोल कर मुझे सोचने पर मजबूर कर देता है। मैंने हमेशा दूसरों का भला ही सोचा है, भला ही चाहा है। वो जीवन के एक दोराहे पर हैं। इस वक़्त मेरा हाथ खींच लेना उन्हें भटका सकता है। मैं नहीं चाहती कि इस वक़्त उनका ध्यान ज़रा सा भी अपने लक्ष्य से भटके। पर उनके साथ रहने का मतलब समय समय पर ये अपमान और उनके जहरबुझे शब्द बर्दाश्त करना। कभी मेरी परवरिश, कभी मेरा व्यवहार, कभी मेरे संस्कार पर उनका उंगली उठाना। 

मैं जानती हूँ कि गुस्से में वाणी पर कोई वश नहीं चलता पर मुंह से निकली बात वापस भी तो नहीं आती। मुझे बेहद चोट पहुंचती है जब मेरे निजी जीवन या अकेलेपन पर वो कोई अपमानजनक बात कह देते हैं। या जब हमारे निजी पलों और यादों को वो किसी और ही रूप में मेरे सामने रख देते हैं। मैं स्वार्थी नहीं हूँ, चलता पुर्जा नहीं हूँ, बेईमान तो बिलकुल नहीं हूँ और वासना का मेरे जीवन में कोई स्थान नहीं। हाँ अपने जीवन में अपने लिए मुझे जो बेहतर लगा मैंने किया। मेरे संस्कारों के अलावा भी मेरा अपना एक व्यक्तित्व है, सोच है। उसके लिए किसी से शर्मिंदा होने की मुझे कोई भी आवश्यकता नहीं। 

माफी मांगती हूँ फिर एक बार। उनको प्यार, सम्मान और अपनापन देकर भी न तो उनके जीवन और न ही उनकी अच्छी यादों में मेरे लिए कोई जगह है। फिर भी मैं आपके समाज की रवायतों के आगे सर झुकाने को तैयार नहीं। मैं उसी राह चलूँगी जो मैंने खुद चुनी है। 

Thursday, 6 December 2018

उसने कहा है....

अध्याय ५९
....हे ईश्वर

फिर से वहीं ला के खड़ा कर दिया है आपने मुझे जहां से कुछ भी साफ नज़र नहीं आता। मेरा प्यार कम पड़ गया , मेरा विश्वास टूट गया। मैं खुद भी बिखरती जा रही हूँ। कुछ सोचने समझने की शक्ति ही खत्म हो गई है। जहां देखो वहाँ रिश्तों के नाम पर सौदे ही सौदे नज़र आ रहे हैं। एक सौदा मैंने भी आज किया। मैं एक बच्चा चाहती हूँ, पर उस बच्चे को पाने के लिए मुझे नरक से गुजरना पड़ेगा। दोहरी जिंदगी जीनी पड़ेगी। मन में कुछ और रखकर होठों से कुछ और कहना पड़ेगा। वो सब करना पड़ेगा जो करने के बारे में मैं सपने में भी सोच नहीं सकती थी। मेरी जिंदगी ऐसी क्यूँ है भगवान? क्यूँ कोई ऐसा इंसान नहीं आता जो मुझे स्वीकार कर ले, जैसे मैं हूँ वैसे ही अपना ले। सबके सामने मेरा हाथ पकड़ ले। 

पर नहीं। मेरी जिंदगी में रिश्तों के लिए जगह ही कहाँ है? जहां देखो वहाँ सौदे ही सौदे हैं। किसी ने एक बार फिर मुझसे वादा किया है, ज़ुबान दी है। मैं भी अपनी आँखों से देखना चाहती हूँ कहाँ है मेरे सब्र और उसकी ज़्यादतियों की हद। गलती मेरी है, मेरी ही है। मैं अपनी सही कीमत लगाना ही नहीं जानती। मैं दूसरों की तरह शर्तें रखना भी नहीं जानती। मैं और लोगों की तरह प्यार का तमाशा बनाना भी नहीं जानती। मैं कुछ भी तो नहीं जानती।

मैंने दूसरों का सहारा बनने की कोशिश की। दूसरों के लिए जीने की कोशिश की। अकेले अपना मुकाम भी पा लिया। पर आज भी मुझे एक इंसान की नज़रों में अपनी अहमियत देखने का इंतज़ार है, पता नहीं क्यूँ? मैंने किसी से बेहद प्यार भी किया। पर मेरा प्यार बार बार आपके समाज की रवायतों के आगे सर झुका देता है। मैं क्या करूँ? क्यूँ आते हैं मेरी जिंदगी में ऐसे लोग? कितने लोभ रहते हैं उनको। सब कुछ चाहिए उन्हें। प्यार भी, परिवार भी।  परिवार की इच्छा के आगे सिर झुकना उसकी मजबूरी है पर मेरी तो कोई मजबूरी नहीं। उनका कहना है तुम्हारी कुंडली में लिखा है तुम्हारी शादी का हाल। मन का हाल बताने वाली कोई कुंडली क्यूँ नहीं होती? क्यूँ कोई कुंडली उन्हें नहीं बताती कि मैं क्या महसूस कर रही हूँ?

ईश्वर मेरी सिर्फ एक प्रार्थना सुन लो। अगर तुम हो तो सुन लो! एक बार...सिर्फ एक बार इन सब रवायतों का सर झुका दो। मुझे एक बार अपनी कुंडली को मात देने की इजाज़त दे दो। आपने मेरी हर इच्छा पूरी की है। ये एक और मान लो। मैं जिंदगी भर अकेली रहना चाहती हूँ, भीड़ से दूर। मेरी जिंदगी में कोई ऐसा रिश्ता न भेजना जिसमें मेरी स्वीकृति न हो। मैं किसी झूठ के साथ अपना जीवन नहीं गुज़ारना चाहती, मेरे ईश्वर।


अकेले हैं तो क्या गम है

  तुमसे प्यार करना और किसी नट की तरह बांस के बीच बंधी रस्सी पर सधे हुए कदमों से चलना एक ही बात है। जिस तरह नट को पता नहीं होता कब उसके पैर क...