हे ईश्वर
अपने रिश्ते को निभाने के लिए इंसान बहुत सी
कुर्बानियाँ देता है, खुद
की बहुत सी अच्छी बुरी आदतों को बदलता है, कुछ चीजों को अपनाता है तो कुछ को पीछे छोड़ देता है। आज एक पल
के लिए लगा शायद मैं इतनी बुरी हूँ कि वो मुझे छोड़ के आगे बढ़ जाएंगे। पर उन्होंने
ऐसा नहीं किया। एक रात बेहद परेशान होने के बाद सुबह probation
पर ही सही उन्होंने मुझे वापस
अपना लिया।
ये मेरे लिए आखिरी मौका है ऐसा वो कहते हैं। इसके
बाद कोई भी गलती हुई तो वो कुछ भी नहीं सुनेंगे, ये भी कहा। सच कहूँ तो अपनी गलती पर मैं खुद शर्मिंदा थी।
मैंने तो इनसे भी यही कहा था कि जब कोई आपको नहीं समझ रहा, बार बार आपके लिए परेशानियाँ बढ़ा रहा है तो आपको
पूरा हक़ है अपनी जिंदगी में आगे बढ़ने का, खुश रहने का। मन को भी समझा लिया था कि टूट जाने दो ये रिश्ता, मैं तुमको संभाल लूँगी। कम से कम ये अनिश्चय तो
खत्म होगा। बार बार का ये अबोला तो नहीं झेलना पड़ेगा। कोई बार बार किसी और का नाम
लेके तुम्हें सताएगा तो नहीं।
पर फिर सब ठीक हो गया। मैंने चैन की सांस ली और मन
भी सुकून से है। लेकिन कब तक?
सिर्फ तब तक न जब मैं समदर्शी होके अच्छा या बुरा
सब चुपचाप सहन कर लूँ। कोई उनके लिए मुझसे ज्यादा अहम है ये स्वीकार कर लूँ और
नज़रअंदाज़ कर दूँ उनकी जिंदगी में किसी और के होने को।
ये अलग बात है कि वो कभी ऐसा नहीं करते। मेरे दोस्त, मेरे जानने वाले, परिचित सभी से एक सुरक्षित दूरी बना कर चलती हूँ मैं। कभी किसी
से दो बातें कर लूँ तो कटघरे में खड़ी नज़र आती है मेरी वफादारी। क्यूँ कह रही हूँ
आपसे मैं ये सब? ईश्वर
एक रिश्ते में बराबरी की उम्मीद करना छलावा है। औरत और मर्द कभी बराबर नहीं होते, हो ही नहीं सकते। मर्द की बराबरी का दम भरने वाली
हर औरत को आखिरकार किसी न किसी मर्द के लिए झुकना ही पड़ता है। प्यार में इतना तो
करना ही पड़ता है। मैंने भी सिर झुकाया, उनकी बात मान ली। मैं भी अब गांधारी हूँ, कुछ नहीं देखूँगी। वादा करूँ? नहीं कर सकती! पता नहीं कब मेरा सोया हुआ
आत्मसम्मान जग जाए और मैं फिर किसी गलत बात के विरोध में उठ खड़ी हुई तो? ईश्वर
उन्हें सद्बुद्धि दो, आईना
दिखाओ। इतना ही कह सकती हूँ आपसे। कह सकती हूँ न?
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