हे
ईश्वर
ये
कैसी ज़िंदगियाँ हैं हमारे चारों तरफ। हर किसी की आँखों में थकान दिखती है, हर कोई कहा अनकहा दर्द समेटे, अपने जख्म छुपाता
फिरता है। हर किसी के होठों पर हंसी और आँखों में न जाने कितने आँसू हैं। फिर भी
हम हँसते हैं, जीते हैं। अपने आस पास इतनी रंगीनी और रोशनी
समेट लेते हैं कि अपने मन के अंधेरे का हमें एहसास न हो। क्यूँ है आपकी दुनिया ऐसी
भगवान?
आपने
जब बनाई थी तो क्या सोचा था कि ये इंसान अपने ही बनाए हुए रिश्तों में ऐसे उलझेंगे
कि अपने आस पास की खूबसूरती से बेपरवाह अपने में गुम होके रह जाएंगे। इतनी सारी कहानियाँ
बनी हैं इन्हीं उलझे हुए रिश्तों के चारों तरफ। क्यूँ उलझा ली लोगों ने अपनी ज़िंदगियाँ
इस तरह?
कितनी
सरल थी आपकी दुनिया जब केवल प्रेम इसका आधार था। फिर परिवार बना, मुहल्ला बना, देश बने और बनीं बहुत सारी सीमाएं। पहले
पहल तो ये सीमाएं केवल एक सुविधा थीं। वक़्त के साथ ये बंधन बन गईं हैं। ये भी कम पड़ती
हैं तो लोग धर्म और फिर जात बिरादरी बना लेते हैं। इंसान को इंसान से अलग करने का एक
भी मौका नहीं खोना चाहते आपकी दुनिया के लोग।
एक
बच्चा जब आपकी दुनिया में आँखें खोलता था तो उसके सामने एक ऐसा संसार होता था जो बाहें
फैला कर उसे बुलाता था। अकेले होने नहीं देता था। पर आज किसी की गोद में अपने बच्चे
को देने से पहले हम निशंक नहीं हो पाते। एक पल के लिए भी छोड़ दें तो यही लगता है कि
इस मासूम जिंदगी पर कोई आंच तो नहीं आ जाएगी।
घर, स्कूल, खेल के मैदान.. वो बेफिक्री अब नहीं रही। कहाँ
तो सुबह के गए शाम ढले ही आते थे फिर भी माँ से फिक्र की जगह डांट ही पड़ती थी। पर आज
तो एक एक पल की खबर रखने के बाद भी माँ सशंकित ही रहती है। क्यूँ भगवान? वो कौन सी दुनिया के लोग हैं जो इंसानियत को शर्मिंदा करने में ही सुकून महसूस
करते हैं? क्यूँ चैन से नहीं जीते न जीने देते हैं। अपनी कुंठाएं, अपनी विकृत सोच और घृणित मानसिकता से समाज को मैला करने वाले ये लोग... इनके
लिए भी कोई सीमा क्यूँ नहीं बनी? जिसे ये कभी न लांघ सकें और
रहें अपने ही नरक में, अपने जैसे लोगों के साथ। उन्हीं लोगों
के बीच।
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