Wednesday, 22 May 2019

दो पाटन के बीच में..


हे ईश्वर

दो ही पंक्तियों में कबीर जी ने न जाने कितने लोगों की कथा कहानी कह डाली। चलती चाकी देख के, दिया कबीरा रोय, दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय’…

चाकी के ये दो पाट कोई भी हो सकते हैं। परिस्थितियाँ, अपनी खुशी और परिवार की खुशी, माँ और बीवी, पति और संतान... न जाने ऐसी कितनी चक्कियों के पाट हैं जो इंसान को पीसते चले जा रहे हैं। गुज़रता हुआ वक़्त मुट्ठी भर अनाज की तरह न जाने कब हाथ से निकल जाता है, पता ही नहीं चलता। लोग सोचते हैं एक बार मेरे पास वक़्त होगा तो ये करेंगे वो करेंगे। वो भी तो कहते हैं... इस वक़्त मेरे पास वक़्त नहीं है। परिवार, ज़िम्मेदारियाँ, भविष्य, दोस्त, रिश्तेदार और ढेर सारे सामाजिक मेल जोल। इस सब के बीच में हमारा रिश्ता बड़ी आस लगा कर देखता है उनकी तरफ कि कब वो मुझे याद करेंगे, थोड़ा सा ही सही वक़्त देंगे। ये शिकायत तो शायद हर पति या पत्नी की होती है कि एक दूसरे के लिए उन्हें वक़्त ही नहीं मिलता।

वक़्त होता नहीं है ईश्वर, वक़्त निकाला जाता है। उसके लिए जो आपके लिए खास हो, अहम हो। किसी की एक आवाज़ पर उसके पास भागते जाने वाली मैं अच्छी तरह से जानती हूँ कि मैं पुकारूंगी तो शायद आ नहीं सकेगा वो। कैसे कहूँ कि मुझे कोई शिकायत नहीं। पर शिकायत करूँ भी तो किस से? और क्यूँ? कभी कहा भी है मैंने पर वो कहते हैं तुम्हारे पास बहुत सा खाली वक़्त है इसलिए इतना सब कहा करती हो। सोचा करती हो। पर ऐसा नहीं है ईश्वर। मेरे पास भी सीमित ही समय है फिर भी उनका असर ही कुछ ऐसा है। बुलाते हैं तो भाग कर जाने का मन करता है। कुछ करने को कहते हैं तो इफ़रात खुशी होती है। क्या है ये खुशी ईश्वर? क्यूँ मिलता है इतना सुकून?

आपसे एक बात कहूँ? बचा लीजिये मेरे इस प्यारे से रिश्ते को वक़्त नहीं है के जहर से। ऐसा एक दिन ला दीजिये भगवान कि उनकी ये भागती दौड़ती जिंदगी ज़रा सा थमे और उनको कुछ वक़्त मेरे साथ बिताने का ख्याल आए। करेंगे न?




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