अध्याय ३०
हे ईश्वर
पता नहीं प्यार क्या होता है? आज २१००० शब्द लिख
डाले हैं फिर भी लगता है कुछ कह नहीं पाई हूँ ठीक से. समझा नहीं पा रही कि कहना
क्या चाहती हूँ! मेरी दुनिया कितनी अलग है मेरे आस पास के लोगों से. उस दिन बहुत
दिनों के बाद एक दोस्त से मुलाक़ात हुई. वो शादी शुदा है. कितनी अलग है हमारी दुनिया
एक दूसरे से. अभी भी गूँज रही है उसकी हिदायतें और सलाहें मेरे कानों में. खुश रहा
करो, व्यस्त रहा करो, घर साफ़ रखा करो. कुछ व्रत त्यौहार भी बताए. मन ही मन मैं
सोचती रही क्या करूँ? खुश रहने दूं उसे उसकी सोच के दायरे में या सच्चाई का आईना
दिखा दूँ. ये सारे लोग बेहद मासूम हैं भगवान. दुनिया और उसकी तल्ख़ सच्चाई उनको छू
नहीं पाई है अब तक. सच कहूँ तो बेहद बहादुर है वो और मैं कायर. उसमें विश्वास करने
का और विश्वास के दम पर आगे बढ़ने का जो गुण है, वो उसकी मदद करता है. मैं अगर शादी
का सोचूं तो न जाने क्या क्या सोचना पड़ जाता है. सबसे अहम् बात जो उसने कही थी वो
थी भूल जाओ अपना अतीत. मैं तो भूलने को तैयार हूँ, पर आने वाले ने पूछा तो क्या जवाब
दूँ? कैसे झूठ बोलूं? अगर न बोलूं तो क्या वो मुझे मेरे सच के साथ स्वीकार करेगा? यही
सब सोच कर मन नहीं मानता.
आपने कहा था कि आप मेरी तरह बग़ावत नहीं कर सकते.
मुझे बग़ावत की ज़रूरत ही नहीं है. अजीब है न! मैं जिसे चाहूँ उसे अपना जीवनसाथी बना
सकती हूँ पर ये फैसला मेरे नहीं सामने वाले के हाथों में रहता है हमेशा. और हमेशा
वो मुझे छोड़ कर आगे बढ़ जाता है. रिश्ते की
शुरुआत तो बड़ी खूबसूरत होती है पर अंत भयानक. हर बार मुझे अन्दर से छील देती है
तुम्हारी दुनिया ईश्वर. मैं मर जाती हूँ जबकि मैं जीना चाहती हूँ. मैंने बहुत कुछ
सुना है अपने बारे में इतने सालों में. हर बार मैंने सोचा था अब कभी किसी पर भरोसा
नहीं करुँगी. फिर भी कोई जब आपको चोट लगी हो और कोई सहारा देकर खड़ा करने लगे तो आप
कैसे उसे ठुकरा सकते हैं? पर भगवान हर बार मुझे सहारा देकर खड़ा करने वाला ही मुझे
वो धक्का देता है कि मैं फिर से बिखर जाती हूँ.पहले से ज्यादा ज़ख्म लग जाते हैं.
पता है कुछ ज्यादा समझदार लोग कहेंगे खुद का सहारा खुद बनो. कहने दो. ‘पीर पराई’ समझने
वाले नहीं हैं तुम्हारी दुनिया में.
सच कहूँ तो मैं भी अकेली रहना चाहती हूँ. पर जैसे
ही हमारे बीच की दूरी बढ़ाती हूँ वो और भी मेरे करीब आ जाते हैं. शायद अकेले रहने
का डर उन्हें सताने लगता है. या उनकी ज़रूरतें उनका रास्ता रोक लेती हैं. नाराज़ हो
जाते हैं वो जब भी मैं ये सवाल किया करती हूँ. पर मेरा मन पूछे बिना नहीं मानता.
क्या हक है किसी भी इन्सान को मुझसे कोई उम्मीद लगाने का? क्यूँ मेरी इतनी फिक्र
है जब मुझे छोड़ कर जाने का पक्का इरादा कर लिया है. हर १ महीने में ये दौरा मुझे
पड़ता है जब मैं ‘प्रैक्टिकल’ होने की तरफ कदम बढ़ाती हूँ. पर सच. अपना आप ही खोखला
लगने लगता है मुझे तब. ऐसा लगने लगता है कि मैं अपने आप के साथ गलत कर रही हूँ. किसी
को निस्वार्थ प्यार करना मेरा हक है. भले ही मुझे बदले में वो प्यार न मिले.
बहुत अजीब होते हैं मेरे जैसे लोग भगवान. अपना सब
कुछ प्यार के नाम पर देकर बदले में कुछ नहीं चाहते. प्यार करना बड़ा मुश्किल है
तुम्हारी दुनिया में. फिर भी मेरे जैसे लोग न जाने कहाँ से इतनी हिम्मत ले आते
हैं. धोखा खाते हैं फिर भी विश्वास करते हैं. इतना कुछ सहते हैं फिर भी अच्छा ही
सोचते हैं. क्यूँ? क्यूँ नहीं बदलती मैं? क्या कीमत चुकाऊं अपने अटूट विश्वास की?
बताओ न भगवान्? अच्छा ठीक है. चाहो तो ये रिश्ता भी ले जाओ. इसका भी वही हाल करो
जो तुमने बाकियों का किया. अलग कर दो मुझे फिर से मेरे किसी चाहने वाले से. दो
मुझे फिर से वही सांसें रोक देने वाला दर्द. करो न ये सब और बाकी सब कुछ. पर ईश्वर
मैं आप पर और प्यार पर विश्वास करना नहीं छोडूंगी. हमेशा यही सोचूंगी कि तुमने
मेरे लिए मेरे इतने बरस की तपस्या का पुरस्कार बचा कर रखा है. सही समय पर दे दोगे.
पर एक बात कहूँ ‘जब भी अपनी शादी को लेकर उनसे मजाक करती हूँ, उनकी आवाज़ की राहत
मेरा मन खट्टा कर देती है. ऐसा लगता है जैस साँस रोक कर वो प्रतीक्षा कर रहे हैं
कि कोई मुझे वो सब दे दे जो कभी मैंने उनसे मांगा था. ईश्वर अगर तुम हो तो उनकी ये
इच्छा उनसे ही पूरी करवाना. मेरे प्यार की जीत में न जाने कितने मासूम एहसासों की
जीत है, सच्चाई की जीत है, धैर्य और विश्वास की जीत है. जीतने दो न इस बार मुझे.
प्लीज भगवान्.